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________________ ५९ गा० २१९ ] $ १३७ अयमस्य भावार्थः -- पढमसमय किडीवेदगस्स संजलणाणं ट्ठिदिसंतकम्ममदुवस्समेत्तमत्थि; कोहोदयखवगम्मि परिष्फुडमेव तदुवलंभादो । ण च एत्तियमेत्ताणं द्विदिविसेसाणं तक्काले बंधसंभवो अस्थि; चदुमासमेत्तस्सेव ताधे संजलाणं द्विदिबंधस्स संभवोवलंभादो । ट्ठिदिसंकमो पुण तक्कालभात्रिओ उदयावलियपविट्ठाओ हिदीओ मोत्तूण सेसासेसट्ठिदिविसेसेसु पयदृदि, तत्थ पयारंतरासंभवादो ति । एदेण कारणेण ण; सव्वेसु ठिदिविसेसेसु त्तिणिद्दिहं । ट्ठिदिउदीरणा वि उदयावलिवज्जासु सव्वासु चेव ट्ठिदीसु पयहृदि ति एसो वि अत्थो एदेणेव सुत्तेण सूचिदो दट्ठव्वो । एवमेत्तिएण पबंधेण गाहापुव्वद्ध विहासिय संपहि गाहापच्छद्धमस्सिपूर्ण अणुभागसं कम तदुदीरणाणं पवृत्तिविसेसाबहारणट्ठमिदमाह– * 'सव्वेसु चाणभागेसु संकमो मज्झिमो उदयो' त्ति एवं सव्वं वाकरणसुत्तं । $ १३८ सर्वमेवैतद् गाथापश्चार्द्धं व्याकरणसूत्रमेव प्रतिवचनसूत्रमेवेति ग्राह्यं । सुबोधमन्यत् । * सव्वा किट्टीओ संकमंति । $ १३७ इस विभाषासूत्रका यह भावार्थ है - प्रथम समय में कृष्टिवेदकजीवके चारों संज्वलनों का स्थितिसत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होता है, क्योंकि क्रोधसंज्वलनके उदयके समय क्षपक यह सत्व स्पष्ट रूप ही पाया जाता है । किन्तु उस कालमें एतत्प्रमाण स्थितिबन्ध नहीं पाया जाता, मात्र उस कालमें संज्वलनकषायों का स्थितिबन्ध चार मास प्रमाण हो पाया जाता है । किन्तु उस कालमें होनेवाला स्थितिसंक्रम उदयावलिप्रविष्ट स्थितियों को छोड़कर शेष समस्त स्थितिविशेषोंमें प्रवृत्त होत! है; क्योंकि उस काल में संक्रमसम्बन्धी और दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है । उस काल में स्थितिउदीरणा भी उदयावलिको छोड़कर शेष समस्त स्थितियों में प्रवृत्त होती है इस प्रकार यह अर्थ भी इसी सूत्र द्वारा सूचित हुआ जानना चाहिये । इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा गाथाके पूर्वार्धकी विभाषा करके अत्र गाथाके उत्तरार्धका आश्रय करके अनुभाग-संक्रम और अनुभाग- उदीरणाकी प्रवृत्तिविशेषका अवधारण करनेके लिये यह सूत्र कहते हैं * तथा संक्रम सभी अनुभागों में होता है और उदय मध्यमकृष्टियोंका होता । इस प्रकार गाथाका उत्तरार्धरूप यह सब व्याकरणसूत्र है । $ १३८ यह पूरा ही उक्त गाथाका व्याकरणसूत्र ही है अर्थात् प्रतिवचनसूत्र ही है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । शेष सब कथन सुबोध है । * उक्त क्षपकके सभी कृष्टियाँ संक्रमित होती हैं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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