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गा० २१९ ]
$ १३७ अयमस्य भावार्थः -- पढमसमय किडीवेदगस्स संजलणाणं ट्ठिदिसंतकम्ममदुवस्समेत्तमत्थि; कोहोदयखवगम्मि परिष्फुडमेव तदुवलंभादो । ण च एत्तियमेत्ताणं द्विदिविसेसाणं तक्काले बंधसंभवो अस्थि; चदुमासमेत्तस्सेव ताधे संजलाणं द्विदिबंधस्स संभवोवलंभादो । ट्ठिदिसंकमो पुण तक्कालभात्रिओ उदयावलियपविट्ठाओ हिदीओ मोत्तूण सेसासेसट्ठिदिविसेसेसु पयदृदि, तत्थ पयारंतरासंभवादो ति । एदेण कारणेण ण; सव्वेसु ठिदिविसेसेसु त्तिणिद्दिहं । ट्ठिदिउदीरणा वि उदयावलिवज्जासु सव्वासु चेव ट्ठिदीसु पयहृदि ति एसो वि अत्थो एदेणेव सुत्तेण सूचिदो दट्ठव्वो । एवमेत्तिएण पबंधेण गाहापुव्वद्ध विहासिय संपहि गाहापच्छद्धमस्सिपूर्ण अणुभागसं कम तदुदीरणाणं पवृत्तिविसेसाबहारणट्ठमिदमाह–
* 'सव्वेसु चाणभागेसु संकमो मज्झिमो उदयो' त्ति एवं सव्वं वाकरणसुत्तं ।
$ १३८ सर्वमेवैतद् गाथापश्चार्द्धं व्याकरणसूत्रमेव प्रतिवचनसूत्रमेवेति ग्राह्यं । सुबोधमन्यत् ।
* सव्वा किट्टीओ संकमंति ।
$ १३७ इस विभाषासूत्रका यह भावार्थ है - प्रथम समय में कृष्टिवेदकजीवके चारों संज्वलनों का स्थितिसत्कर्म आठ वर्ष प्रमाण होता है, क्योंकि क्रोधसंज्वलनके उदयके समय क्षपक यह सत्व स्पष्ट रूप ही पाया जाता है । किन्तु उस कालमें एतत्प्रमाण स्थितिबन्ध नहीं पाया जाता, मात्र उस कालमें संज्वलनकषायों का स्थितिबन्ध चार मास प्रमाण हो पाया जाता है । किन्तु उस कालमें होनेवाला स्थितिसंक्रम उदयावलिप्रविष्ट स्थितियों को छोड़कर शेष समस्त स्थितिविशेषोंमें प्रवृत्त होत! है; क्योंकि उस काल में संक्रमसम्बन्धी और दूसरा प्रकार सम्भव नहीं है । उस काल में स्थितिउदीरणा भी उदयावलिको छोड़कर शेष समस्त स्थितियों में प्रवृत्त होती है इस प्रकार यह अर्थ भी इसी सूत्र द्वारा सूचित हुआ जानना चाहिये । इस प्रकार इतने प्रबन्धद्वारा गाथाके पूर्वार्धकी विभाषा करके अत्र गाथाके उत्तरार्धका आश्रय करके अनुभाग-संक्रम और अनुभाग- उदीरणाकी प्रवृत्तिविशेषका अवधारण करनेके लिये यह सूत्र कहते हैं
* तथा संक्रम सभी अनुभागों में होता है और उदय मध्यमकृष्टियोंका होता । इस प्रकार गाथाका उत्तरार्धरूप यह सब व्याकरणसूत्र है ।
$ १३८ यह पूरा ही उक्त गाथाका व्याकरणसूत्र ही है अर्थात् प्रतिवचनसूत्र ही है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । शेष सब कथन सुबोध है ।
* उक्त क्षपकके सभी कृष्टियाँ संक्रमित होती हैं