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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तस्सवमा स्तोकत्वे वा निर्ये यथापूर्व तथैवेदानीमपि बंघोदयसंक्रमाः प्रदेशानुभागविषयाः प्रतिपत्तव्या इत्युक्तं भवति । ६१७४ एदस्स भावत्थो-किट्टीकरणादो पुवावस्थाए जहा संकामणपट्ठवगचउत्थमूलगाहमस्सियूण तीहिं भासगाहाहिं पदेसाणुमागविसयाणं बंधोदयसंकमाणं सत्थाणविसेसिदं थोवबहुत्तमणुमग्गिदं तहेव एहि पि अणुमगियध्वं, ण एल्थ कोवि विसेससंभवो अस्थि त्ति वृत्तं होइ। संपहि एदस्सेव मुत्तस्थरस फुडीकरणद्वमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ * विहासा। ६ १७५ सुगमं । * तं जहा। ६ १७६ सुगमं । 8 संकमगे च चत्तारि मलगाहाओ, तत्थ जा चउत्थी मूलगाहा, तिस्से तिणि भासगाहाम्रो तासिं जो अत्थो सो इमिस्से वि पंचमीए गाहाए अत्थो कायव्वो। अर्थके साथ सम्बन्ध है। अब इसी प्रकार पूछे गये अर्थके विषयमें निश्चयको उत्पन्न करमोक्के लिये गाथाका उत्तरार्ध अवतीर्ण हुआ है-'बहुअं ते थोवं ते' इत्यादि । बहुलका या स्तोकत्वका निर्धारण करने पर जिस प्रकार पहले प्रदेश और अनुभागविषयक बन्ध, उदय और संक्रमका कथन कर आये हैं उसी प्रकार यहाँ जानना चाहिये, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ६१७४ इसका भावार्थ-कृष्टिकरणसे पहलेको अवस्थामें जिसप्रकार संक्रामण प्रस्थापकके चौथी मूलगाथा (९४-१४७) का आश्रयकर तीन भाष्यगाथाओंके द्वारा प्रदेश और अनुभागविषमक बन्ध, उदय और संक्रमका स्वस्थान विशेषतासे युक्त अर्थात् स्वस्थान-सम्बन्धी अल्मबहुतका अनुमार्गण किया उसी प्रकार इस समय भी अनुमार्गण कर लेना चाहिये। यहां पर उक्त स्थानसे कोई विशेष सम्भव नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। अब इसी सूत्रके स्पष्टोकरणके लिये विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। ६ १७५ यह सूत्र सुगम है। * वह जैसे। ६ १७६ यह सूत्र सुगम है। * संक्रामक प्रस्थापकके विषयमें चार मूल गाथायें हैं। उनमें जो चौथी मूलगाथा है उसकी तीन भाष्यगाथायें हैं । उनका जो अर्थ है वह इस पाँचवीं गाथाका भी अर्थ करना चाहिये।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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