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________________ ११५ गा० २३१] * सेसेसु पदेसु णत्थि णाणत्तं । * कुदो? ६ २७६ एत्तो उवरिमासेसपदेसु णाणत्तलेयस्स वि संभवाणवलंभादो । एवमेत्तिएण सुत्तपबंधेण इत्थीवेदोदयक्ख वगस्स णाणत्तविचारं परिसमाणिय संपहि णवुसयवेदोदयक्खवगं घेत्तूण तत्थ पयदपरूवणाए णाणत्तगवेसणट्ठमुवरिमं सुत्तपबंधमाढवेई । * एत्तो णवुसयवेदेण उवविदस्स खवगस्स णाणत्त वत्तइस्सामो । ६ २७७ सुगमं । * जाव अंतरं ण करेदि ताव णत्थि णाणत्तं । ६ २७८ सुगमं । * अंतरं करेमाणो णवुसयवेदस्स पढमहिदि हवेदि । ६ २७९ एदमेगं णाणत्तमेत्थ दट्ठव्वं, इत्थि-पुरिसवेदपरिहारेण णqसयवेदस्सेव पढमट्ठिदि ठवेदि ति। संपहि एदिस्से णवुसयवेदपढमद्विदीए पमाणविसेसावहारणमिदमाह * शेष पदों में विभिन्नता नहीं है। ६२७६ क्योंकि इससे आगेके शेष पदों में विभिन्नताका लेश भो सम्भव नहीं है । इस प्रकार इतने सूत्रप्रबन्धद्वारा स्त्रोवेदके उदय से क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाले क्षपकके विभिन्नताके विचारको समाप्तकर अब नपुंसक वेदके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाले क्षपकको स्वीकार कर वहाँ प्रकृत प्ररूपणाकी विभिन्नताका अनुसन्धान करनेकेलिये आगेके सूत्र प्रबन्धको आरम्भ करते हैं * इससे आगे नपुंसकवेदके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी विभिन्नताको बतलावेंगे। $ २७७ यह सूत्र सुगम है। * जब तक अन्तर नहीं करता है तब तक कोई विभिन्नता नहीं है। ६ २७८ यह सूत्र सुगम है। * अन्तर करने वाला क्षपक नपुंसकवेदको प्रथम स्थिति स्थापित करता है । ६ २७९ यह एक विभिन्नता यहाँपर जानना चाहिये, क्योंकि यहाँपर स्त्रीवेद और पुरुषवेदको छोड़कर एक नपुसकवेदकी ही प्रथम स्थिति स्थापित करता है। अब इस नपुंसकवेदकी प्रथम स्थितिके प्रमाणविशेषका अवधारण करनेकेलिये इस सूत्रको कहते हैं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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