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________________ जयधवलास हिदे कसायपाहुडे [ चारितक्खवणा ९ ७३ जसगित्तिवज्जाओ सेसणामपयडीओ सुहासु मेयभिण्णाओ कथमेसो वेदयदे, किमणं गुणवडी हाणीए अण्णहा वा त्ति पुच्छिदं होदि ? * जसणामं परिणाम पन्चइयं मणुस - तिरिक्खजोणियाणं । ३२ $ ७४ देण सणामउदएण सूचिदं जत्तियाओ परिणामपच्चइयाओ सुमाओ माओ ताओ सव्वाओ अनंतगुणाए सेढीए वेदयदि ति जसगित्तिणामं मणुस - तिरिक्खजोणियाणं जीवाणं परिणामपच्चइयाणं सुहपरिणामेणेदस्सा णु मागोदय बुद्धिदंसजादो । तदो एदेणेव जसगित्तिउदयेण सुत्तणिद्दिद्वेण देसाभासयभूदेण एसो वि अत्थविसेसो सूचिदो ददुव्वो । जेत्तियाओ परिणामपच्चइयाओ सुभाओ णामपयडीओ सुभगादेज्जाओ ताओ सव्वाओ अनंतगुणाए सेढीए एसो खवगो वेदेदिति । किं कारणं ? सुहपयत्तिं संते परिणामपच्चद्दत्तं पडि भेदाभावादो । ण केवलं सुहाणं पडी मणुभागोदयस्साणंतगुणबड्डीए चैव एदेण जसगित्तिउदएण सूचिदा, किंतु असुभगाणं पि परिणामपच्चइयाणं णामपयडीणमणुभागोदओ अनंतगुणहाणीए पहृदि चि एदस्स वि सूचयमेदं चैव जसगित्तिवयणमिदि जाणावणडुमिदमाह - ९ ७३ यशःकीर्तिको छोड़कर शुभ और अशुभ भेदसे भेदको प्राप्त हुई नामकर्मकी शेष प्रकृतियोंको यह क्षपक जीव कैसे वेदता है ? क्या अनन्तगुणवृद्धि रूपसे वेदता है या अनन्तगुणहानिरूपसे वेदता है या अन्य प्रकारसे वेदता है यह पूछा गया है ? * मनुष्य जीवोंके और तिर्यञ्च योनिवाले जीवके यशः कीर्ति नामकर्मकी प्रकृति परिणाम- प्रत्ययवाली होती है । $ ७४ इस वचन द्वारा यशःकीर्ति नामकर्मके उदयद्वारा जितनी परिणाम प्रत्ययवाली शुभ प्रकृतियाँ सूचित की गई हैं उन सबको प्रतिसमय अनन्तगुणीश्रेणिरूपसे वेदता है, इसलिये मनुष्य और तिर्यञ्च योनिवाले जीवोंके यशःकीर्तिसे लेकर परिणाम प्रत्ययवाली सभी शुभप्रकृतियों की इस क्षपकके अनुभागके उदय की वृद्धि देखो जाती है । इसलिए निर्दिष्ट देशामर्षकभूत भाष्यगाथासूत्र द्वारा निर्दिष्ट इसी यशः कीर्तिके उदयसे यह अर्थ विशेष भी सूचित किया गया जानना चाहिये । तात्पर्य यह है कि परिणामप्रत्यय जितनी सुभग और आदेय शुभ नामकर्मसम्बन्धी प्रकृतियाँ है उन सबको अनन्तगुणी श्रेणिरूपसे यह क्षपक वेदता है, क्योंकि उनमें शुभप्रकृतिपना होनेपर परिणाम प्रत्ययपने के प्रति यशःकीर्ति से इनमें कोई भेद नहीं पाया जाता। यहाँ इस यश:कीर्ति उदयद्वारा केवल शुभ प्रकृतियों के उदयको अनन्तगुण वृद्विरूपसे ही सूचित नहीं किया गया है, किन्तु परिणामप्रत्यय नामकर्मकी अशुभ प्रकृतियों के अनुभागका उदय इस क्षपकके अनन्त गुणहानिरूपसे प्रवृत्त होता है यह यशःकीर्ति वचन द्वारा सूचित किया गया है, इस प्रकार इसी बात का ज्ञान करानेके लिये यह कहते हैं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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