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________________ गा• २१२] * जाश्रो असुभाश्रो परिणामपञ्चहगाो तारो अणंतगुणहीणाए सेढीए वेदयदि त्ति । ६ ७५ गयत्थमेदं सुत्तं । णवरि एत्थ 'असुहणामाओं' त्ति भणिदे अथिर-असुभादिपयडीणं जहासंभव' संगहो कायव्वो। संपहि गाहापच्छद्धविवरणहमिदमाह-- * अंतराइयं सव्यमणंतगुणहीणं वेदयदि । ६७६ कुदो ? पंचण्हमंत्तराइयाणं पयडीणमणुभागस्स सुह-परिणामविरुद्धसहावस्स खवगविसोहीहि अणतगुणहाणीए उदयपरिणामस्स बाहाणुवलंभादो। * भवोपग्गहियानो णामाश्रो छविहाए वड्ढीए छविहाए हाणीए भजिवव्वाभो । ६७७ एत्थ भवोपग्गहियाओ णामाओ ति मणिदे भवपच्चइयाणं णामपयडीणं मणुसगइआदीणं जहासंभवं गहणं कायव्वं । एत्थ एदाओ मवपच्चइयाओ एदाओ च परिणामपच्चइयाओ त्ति एसो अत्थविसेसो संतकम्मपाहुडे वित्थारेण मणिदो। एत्थ पुण गंथगउरवभएण ण भणिदो । तेण तत्थ भणिदपरूवर्ण सव्वमेत्थ भणियण गेण्हियव्वं । तासिमणुभागमेसो वेदेमाणो छवड्डि-हाणि-अवट्ठिदसरूवेण वेदेदि त्ति सुत्तत्थो। * जो अशुभ परिणामप्रत्यय प्रकृतियां हैं उन्हें यह क्षपक प्रतिसमय अनन्तगुणहानिश्रेणिरूपसे वेदता है। __६७५ यह सूत्र गतार्थ है। इतनी विशेषता है कि इस सूत्रमें 'अशुभ नामकर्म सम्बन्धी प्रकतियां' ऐसा कहने पर अस्थिर और अशुभ आदि प्रकृतियोंका यथासम्भव संग्रह करना चाहिये । अब उक्त भाष्यगाथाके उत्तरार्धका कथन करने के लिये यह सूत्र कहते हैं * अन्तरायसम्बन्धी सब प्रकृतियोंको अनन्तगुणहीनरूपसे वेदता है। ६७६ क्योंकि पाँच अन्तरायकर्म-सम्बन्धी प्रकृतियोंका अनुभाग शुभपरिणामोंके विरुद्ध स्वभाववाला होता है, इसलिये क्षपकश्रेणिसम्बन्धी विशुद्धियोंके द्वारा उसके अनन्तगुणहानिरूपसे उदयरूप परिणामके होने में बाधा नहीं पाई जाती है। * भवके द्वारा उपगृहीत नामकमकी प्रकृतियां छह प्रकारकी वृद्धिद्वारा और छह प्रकारकी हानिद्वारा भजनीय होती है। ७७ इस सूत्र में 'भवोपग्गहियाओ णामाओ' ऐसा कहने पर भवप्रत्यय मनुष्यगति आदि नामकर्मकी प्रकृतियोंका यथासम्भव ग्रहण करना चाहिये । यहाँपर ये भवप्रत्यय प्रकृतियाँ हैं और ये परिणामप्रत्यय प्रकृतियाँ हैं यह अर्थ विशेष सत्कर्मप्राभृतमें विस्तारके साथ कहा गया है, परन्तु यहाँपर ग्रन्थके बढ़ जानेके भयसे नहीं कहा गया है, इसलिये उसमें कही गई सब प्ररूपणाको यहाँ पर कहकर ग्रहण कर लेनी चाहिये। उनके अनुभागको यह क्षपकजोव वेदन करता हुआ छह १. यथावसरं वा० ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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