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________________ पृष्ठ पंक्ति १५ १२ १६ २१ १७ २७ १९ ८ २१ २७ ४५ * २२ १९ २८ ३४ ३१ १३ ३२ २० २२ ३९ ३९ २२-२३ साथ रहकर अजघन्य अनुभाग कर लेता है । अशुद्ध जिसके शरीरग्रहण के शरीरग्रहण के उपरिय ग्रैवेयक में स पर्याप्तक ८२ ५ ८२ १९ ९९ २० १०० २१ १११ १९ २० पंचेन्द्रिय पर्याप्तकों में अवगत वेदियों में ४६ २१ ७१ ४ सणक्कुमार ७१ २७ सनत्कुमार ७१ ३५ सनत्कुमार आदि ८० २७ १६२ १६२ अनुत्कृष्ट उत्कृष्ट काल अपनी अपनी अनुभाग से अधिक का बँध कर लिया अनुभागबन्ध कर मरण कर लिया अनन्तर नीचे उतर कर अनन्तर नीचे सासादन में उतरकर साथ रहकर मर जाता है अनुभाग के काल में एक समय शेष हो जह० जहणेण जघन्य से अन्तर्मुहूर्त है जयधवला भाग ५ शुद्ध काल तक समान अनुभाग ओ से तीनों ही सब सबसे थोड़ी है । १२० २० मनुष्य अपर्याप्त १२४ ३२-३३ संख्यातगुणे हैं । असंख्यात गुणवृद्धि विभक्ति वाले १३२ १७ और क्रोध १४३ १८ भी नाश करके १५३ १७ अनुनग १९ क्योंकि जघन्य २३ विशुद्ध से किसके शरीरपर्याप्ति के ग्रहण के शरीरपर्याप्ति के ग्रहण के देवों में अपर्याप्तक उत्कृष्ट जघन्य काल अपनी पंचेन्द्रिय अपर्याप्तकों में अपगतवेदियों में सहस्सार सहस्रार सहस्रार आदि अनुभाग का बंध हुआ, वे अगले समय में मरण को प्राप्त होकर एकेन्द्रिय आदि में उत्पन्न होंगे जह० जहण्णुक्कस्सेण जघन्य व उत्कृष्ट से अन्तर्मुहूर्त है काल तक असंज्ञी के समान अनुभाग ओध से तथा सामान्य तियंचों में तीनों ही सबसे थोड़ी है । मनुष्य पर्याप्त संख्यातगुणे हैं । संख्यातगुणवृद्धि विभक्ति वाले जीव संख्यातगुणे हैं, असंख्यातगुणवृद्धि विभक्ति वाले क्रोध भी नाश करने के पूर्व अनुभाग क्योंकि नवीन बंध जघन्य विशुद्धि से
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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