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________________ गा० २०६ ] * मज्झे उदिण्णाओ सुहुमसांपराइयकिट्टी असंखेज्जगुण । $ २१ सुगममेदं पि सुतमिदि ण एत्थ वक्खाणायरो । एवमेसा सुहुमसां पराइयस्स पढमसमये उदीरिज्जमाणकिट्टीणं सरूपपरूवणा कदा, एसा चैव विदियादिसमयेसु विणिरवसेसमणुगंतव्त्रा । raft विदियसमये पुव्वोदिण्णाणं किट्टीणमग्गग्गादो असंखेज्जदिभागं मुंचदि, हेट्ठदो अपुव्वमसंखेज्जदिभागमाघडदे । एवं जाव चरिमसमयसुहुमसांपराइयो ति । किट्टीणमणुसमय मोवट्टणाविहाणं च पुव्वं व परूवेयव्वं । ठिदिखंडयादिसेसासेसविसेसपरूवणा च सुगमा त्ति ण पुणो पवंचिज्जदे । एवमेदीए परूवणाए सुहुमसां पराइयद्धमणुपालेमाणस्स जाधे ठिदिखडयसहस्साणि णाणावरणादिकम्माणमणुभाग खंडय सहस्साविणाभावीणि गदाणि ताधे मोहणीयस्स अपच्छिमठिदिखंड मागाएमाणो एदेण विहाणेणागाएदि ति पदुप्पायण सुत्तमुत्तरं भणइ - * सुहुमसांपराइयस्स संखेज्जेसु ठिदिखंडयस हस्सेसु गदेसु जमपच्छिमं ठिदिखंडयं मोहणीयस्स तम्हि ट्ठिदिखंडये उक्कीरमाणे जो * मध्य भागमें स्थित उदीर्ण होनेवाली सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियां असंख्यातगुणी हैं। $ २१ यह सत्र भी सुगम है, इसलिये इस विषय में व्याख्यान विषयक आदर नहीं है । इस प्रकार यह सूक्ष्मसाम्परायिकके प्रथम समय में उदीरणाको प्राप्त होने वालो कृष्टियोंके स्वरूपकी प्ररूपणा की । तथा यही प्ररूपणा द्वितीयादि समय में भी पूरी तरहसे जान लेनो चाहिये । इतनी विशेषता है कि पहले उदीर्ण हुई कृष्टियोंके अग्राग्रभाग से असंख्यातवें भागको छोड़ देता है तथा अधस्तन अपूर्व असंख्यातवें भागको भली प्रकार घटित करता है। इस प्रकार सूक्ष्ममाम्परायिक कृष्टियों के अन्तिम समय तक जानना चाहिये । कृष्टियोंको प्रतिसमय अपवर्तना-विधिको पहले के समान कथन करना चाहिये । स्थितिकाण्डक आदिकी शेष सम्पूर्ण विशेषप्ररूपणा सुगम है, इसलिये उसका पुनः विस्तार नहीं करते हैं । इस प्रकार इस प्ररूपणाके अनुसार सूक्ष्मसाम्परायिकके कालका पालन करनेवाले क्षपक जीवके ज्ञानावरणादि कर्मोके हजारों अनुभागकाण्डकोंके अविनाभावी हजारों स्थिति काण्डक जब व्यतीत हो जाते हैं तब मोहनीयकर्मके अन्तिम स्थितिकाण्डकको ग्रहण करता हुआ 'इस विधिसे ग्रहण करता है' इस बातका कथन करने के लिये आगेके सूत्रको कहते हैं * सूक्ष्मसाम्परायिकके संख्यात हजार स्थितिकाण्डकोंके व्यतीत हो जाने पर जो मोहनीय कमका अन्तिम स्थितिकाण्डक है उस स्थितिकाण्डकके उत्कीर्ण २
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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