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________________ ६६ जयधवला सहिदे कसा पाहुडे [ चारितक्खवणा एत्थ 'अणंतरपुव्वगेणे' त्ति भणिदे अनंतरपुब्विन्लसमयम्मि ओकडिदे कम्मपदे से त्ति अत्थो गहेयव्वो; सत्तमीए अत्थे तदियविहत्तिणिद्द सावलंबणादो । संपहि सरिसासरिसपदाणमत्थणिण्णयं काढूण गाहापच्छद्धं विहासेमाणो उवरिमं पबंधमाढवेह - * सरिसमसरिसे त्ति णाम का सण्णा ? $ १५९ किं पेक्खियूण सरिसत्तमसरिसत्तं वा इह विवक्खियमिदि पुच्छिदं होदि । संपहि एदिस्से पुच्छाए णिष्णय विहाणदुमुत्तरसुत्तारंभो * जदि जे अणुभागे उदीरेदि एक्किस्से वग्गणाए सव्वे ते सरिसा णाम । अध जे उदीरेदि अणेगासु वग्गणासु, ते असरिसा णाम । 8 १६० एवं - $ १६१ भणतस्सा हिप्पायो -- उदयम्मि णिवदमाणाओ अनंताओ किट्टीओ साओ चैव जइ एकट्टीसरूवेण परिणमिय उदयमागच्छति तो तासिं सरिससण्णा होइ । अध अतकिट्टीओ ओकड्डियूणुदयम्मि पदिदपरमाणू जइ अनंत किट्टी सरूवेण होण चिट्ठति तदो ते असरिसा णाम भण्णंति, अणेयवग्गणायारेण परिणदत्तादो त्ति । एवमेदेण सुत्तेण सरिसा सरिसपदाणमत्थं जाणाविय संपहि एदेसु दोसु वियप्पे सु दूसरे समय में ही पुनः अपकर्षित करके इसका प्रवेश कराना सम्भव है ऐसा यहाँ ज्ञान कराया गया है । यहाँ 'अणंतरपुव्वगेण' ऐसा कहनेपर अनन्तर पूर्व समय में कर्मप्रदेशों के अपकर्षित करनेपर यह अर्थं ग्रहण करना चाहिये क्योंकि सप्तमी विभक्तिके अर्थ में तृतीया विभक्तिके निर्देशका इस पदमें अवलम्बन लिया गया है । अब सदृश और असदृश पदों के अर्थका निर्णय करके गाथा के उत्तरार्धक विभाषा करते हुए आगे के प्रबन्धको आरम्भ करते हैं सदृश और असदृश इस नामकी संज्ञाका क्या अर्थ है ? १५९ सदृशपना या असदृशपना क्या देखकर प्रकृतमें विवक्षित है, यह पूछा गया है ? अब इस पृच्छाका निर्णय करनेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * * यदि एक वर्गणाके रूपमें जिन अनुभागोंकी उदीरणा करता है उन सबकी सदृश संज्ञा है । तथा अनेक वर्गणाओंके रूपमें जिन अनुभागोंकी उदीरणा करता है उनकी असदृश संज्ञा है । १६० इस प्रकार - १६१ कहनेवाले का यह अभिप्राय है— उदयमें प्राप्त होनेवाली अनन्त कृष्टियाँ यदि सभी कृष्टियाँ एक कृष्टिरूपसे परिणमन करके उदयको प्राप्त होती हैं तो उनकी सदृश संज्ञा होती है। तथा यदि अनन्त कृष्टियोंको अपकर्षित करके उदयको प्राप्त हुए परमाणु यदि अनन्त कृष्ट होकर स्थित रहते हैं तब वे अपश संज्ञावाले कहे जाते हैं, क्योंकि वे अनेक वर्गणारूपसे परिणत हुए हैं। इस प्रकार इस सूत्र द्वारा सदृश ओर असदृश पदोंका ज्ञान कराकर अब इन
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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