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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्सवणा ६६८ असहाणं पि असादाअथिरादिपयडीणं परिणामपच्चइयाणमणुभागोदओ अणंतगुणहाणिसरूवेणेदम्मि विसये पयदि त्ति एसो वि अत्थो एत्थ सुत्तसूचिदो दव्यो। ६९ 'गुणहीणमंतरायं' एवं भणिदे पंचंतराइयपयडीणमणुभागमेसो पडिसमयमणंतगुणहाणिसरूवेण वेदेदि त्ति सत्तत्थसंबंधो । कुदो एदस्स अणंतगुणहीणत्तणियमो चे ? ण, सुहपरिणामविरुद्धसहावस्स तदणुभागस्स एदम्मि विसये अणंतगुणहाणिं मोत्तूण पयारंतरसंभवाणवलंभादो। केवलणाण-दसणावरणीयाणं पि एत्थेव संगहो कायव्वो, सुत्तस्सेदस्स देसामासयत्तादो। तदो तेसिं अनुभागमेसो णियमा अणंतगुणहीणं वेदेदि त्ति घेत्तव्वं । ६७० 'से काले सेसगा भज्जा' एवं मणिदे वृत्तसेसाणि कम्माणि पडिसमयमणंतगुणहीणाणुभागोदयेण भजिदव्वाणि ति सुत्तत्थसंबंधो। कुदो एवमिदि चे ? तेसिं छवडिहाणि-अवट्ठिदसरूवेणेदम्मि विसये अणुभागोदयपवुत्तिदंसणादो। तदो चदुविहस्स णाणावरणीयस्स तिविहस्स दसणावरणीयस्स भवोपग्गहियणामपयडीणं च ६ ६८ जो परिणाम-प्रत्ययस्वरूप असातावेदनीय और अस्थिर आदि अशुभ प्रकृतियाँ हैं उन प्रकृतियोंके अनुभागका उदय इस स्थान में अनन्त गुणहानिरूपसे प्रवृत्त होता है, इस प्रकार यह अर्थ भी यहाँ पर उक्त भाष्यगाथा सूत्रसे सूचित हुआ जानना चाहिये । ६९ 'गुणहीणमंतरायं' ऐसा कहनेपर पांच अन्तराय प्रकृतियों के अनुभागको यह क्षपक प्रतिसमय अनन्तगुणहानिरूपसे वेदता है, यह इस भाष्यगाथा सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध है । शंका-इस जीव के अन्तराय कर्मका अनन्तगुणहीनरूपसे अनुभव करनेका नियम किस कारण है ? समाधान--नहीं, क्योंकि अन्तरायकर्म शुभपरिणामके विरुद्धस्वभाववाला होता है, इसलिए इस क्षपकके पांच अन्तराय कर्मके अनुभागका इस स्थान में अनन्तगुणहानिको छोड़कर दूसरा प्रकार सम्भव नहीं उपलब्ध होता । केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण प्रकृतियोंका भी यहींपर पाँच अन्तराय कर्मोके साथ संग्रह करना चाहिये, क्योंकि यह भाष्यगाथा सूत्र देशामर्षक है, इसलिये इन दो प्रकृतियोंके अनु. भागको भी यह क्षपक नियमसे अनन्तगुणहीनरूपसे वेदन करता है ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । ७० 'से काले सेसगा भज्जा' ऐसा कहनेपर पूर्व में कहे गये कर्मोंसे शेष रहे कर्म प्रतिसमय अनन्त-गुणहीन अनुभागके उदयकी अपेक्षा भजनीय होते हैं, यह इस भाष्यगाथा सूत्रके उक्त वचनका अर्थके साथ सम्बन्ध है। शंका--ऐसा किस कारण है ?
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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