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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा * कोहेण उवदिस्स जा माणस्स खवणद्धा, माणेण उवट्ठिदस्स तम्हि चेव काले माणस्स खवणद्धा । १०४ ९ २४९ कोहोदएण चढिदस्स खवगस्स जा माणस्स तिण्डं संगहकिट्टीण खवणद्धा तहि चेव काले एसो माणवेदगखवगो अप्पणो तिन्हं संगहकिट्टीणं खवणाए पयहृदि, ण तत्थ किंचि णाणत्तमत्थि त्ति भणिदं होदि । एत्तो उवरिमसव्वत्थेव दोपह खवगाणं णाणत्तेण विणा सव्वा परूवणा पयट्टदि त्ति | जाणावणफलो उत्तरसुत्तणिदेसो * एत्तो पाये जहा कोहेण उवद्विदस्स विही तहा माणेण उवट्टिदस्स । $ २५० गयत्थमेदं सुत्तं । एवमेत्तिएण पबंधेण पुरिसवेदोदयक्खवगस्स णिरु - काण तत्थ कोहोदय क्खवगादो माणोदयक्खवगस्स णाणत्तमणुमग्गिय संपहि तस्सेव पुरिसवेदक्खवगस्स मायोदयेण सेढिमारूढस्स जो णाणत्तविचारो तणिण्णयविहाणमुवरिमं सुत्तपबंधमाह * क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढे हुए क्षपकके जो मान संज्वलन काक्षपणा काल है, मानसंज्वलनसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके उसी कालमें मानसंज्वलनका क्षपणाकाल है । $ २४९ क्रोधसंज्वलन के उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जो मानसंज्वलनकी तीन संग्रह कृष्टियों का जो क्षपणा काल है उसी कालमें यह मान संज्वलनका वेदन करनेवाला क्षपक अपनी तीन संग्रह कृष्टियोंकी क्षपणामें प्रवृत्त होता है। इस प्रकार इसमें कोई विभिन्नता नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इससे आगे सर्वत्र ही दोनों क्षपकों के भेदके बिना समस्त प्ररूपणा प्रवृत्त होती है, यह ज्ञान कराने के फलस्वरूप आगेके सूत्रका निर्देश करते हैं * इससे आगे जिस प्रकार क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी क्षपणकी विधि कही है उसी प्रकार मानसं ज्वलन के उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़े हुए क्षपककी क्षपणाकी विधि जाननी चाहिये । $ २५० यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा पुरुषवेदके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़े हुए क्षपकको विवक्षित कर वहाँ क्रोध संज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़े हुए क्षपकसे मानसंज्वलन के उदयसे क्षपकश्र णि पर चढ़े हुए क्षकको विभिन्नताका अनुसन्धान करके अन पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए उसी पुरुषवेदो क्षपकके मायासंज्वलन के उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपकके जो विभिन्नताका विचार है उसका निर्णय करनेके लिए आगे के सूत्र - प्रबन्धको कहते हैं—
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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