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________________ १५६ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [पच्छियखंध-अत्थाहियार * टिदि-अणुभागे तहेव णिज्जरयदि । ३४० द्विदीए असंखेज्जे मागे अप्पसत्थपयडीणमणभागस्स च अणते भागे पुव्वं व घादेदि त्ति भणिदं होदि । एत्थ पदेसग्गं पि तहेव णिज्जरयदि त्ति वक्कसेसो कायव्वो, आवज्जिदकरणादो पहुडि सत्थाणकेव लिगुणसेडिणिज्जरादो असंखेन्जगुणसेढिणिज्जराए अवडिदणिक्खेवायामेण पवृत्तिसिद्धीए बाहाणवलंभादो। एवमेसो तदिओ केवलिसमग्घादभेदो परूविदो । संपहि चउत्थसमये लोगपूरणसण्णिदं समुग्धादं सगसव्वपदेसेहिं सव्वलोगमावरिय पयट्टावेदि त्ति जाणावणमत्तरसुत्तारंभो * तदो चउत्थसमये लोग परेदि । ६ ३४१ वादवलयावरुद्धलोगागासपदेसेसु वि जीवपदेसेसु समंतदो णिरंतरं पविद्वेसु लोगपूरणसण्णिदं चउत्थं केवलिममुग्धादमेसो तदवत्थाए पडिवज्जदि त्ति मणिदं होदि । एत्थ वि कम्मइयकायजोगेणाणाहारओ चेव होदि; तदवत्थाए सरीरणिवत्तणट्ठमोरालियणोकम्मपदेसाणमागमणस्स गिरोहदंसणादो। एवं च लोगमावरिय तुरियावत्थाए कम्मइयकायजोगेण वट्टमाणस्स तदवत्थाए सम्वेसि जीवपदेसाणं समजोगत्तपदुप्पायणट्ठमुत्तरसुत्तारंभो * स्थिति और अनुभागको उसी प्रकार निर्जरा करता है। ६ ३४० स्थितिके असंख्यातबहुभागका और अप्रशस्त प्रकृतियोंके अनन्त बहुभागका पहलेके समान घात करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। यहाँपर प्रदेशपुंजकी भी उसी प्रकार निर्जरा करता है यह वाक्यशेष करना चाहिये, क्योंकि आवजित करणसे लेकर स्वस्थान केवलीको गुणश्रेणिनिर्जरासे असंख्यातगुणी गुणश्रेणिनिर्जराको अवस्थित निक्षेपरूप आयामके साथ प्रवृत्तिकी सिद्धि में बाधा नहीं उपलब्ध होती। इस प्रकार यह केवलिसमुद्धातके भेदका कथन किया । अब चौथे समयमें लोकपूरणसंज्ञक समुद्धातको अपने सम्पूर्ण प्रदेशोंद्वारा समस्त लोकको पूरा करके प्रवृत्त करता है, इसका ज्ञान करानेकेलिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं * तत्पश्चात् चौथे समयमें लोकको पूरा करता है। ६३४१ बातवलयसे रुके हुए लोककाशके प्रदेशोंमें भी जीवके प्रदेशोंके चारों ओरसे निरन्तर प्रविष्ट होनेपर लोकपूरण संज्ञक चोथे केवलिसमुद्धातको यह केवली जिन उस अवस्थामें प्राप्त होते हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । यहाँपर भी कार्मणकाययोगके साथ यह अनाहारक ही होता है, क्योंकि उस अवस्थामें शरीरकी रचनाकेलिये औदारिकशरीर नोकर्मप्रदेशोंके आगमनका निरोध देखा जाता है। इस प्रकार लोकको पूरा करके चौथी अवस्थामें कार्मणकाययोगके साथ विद्यमान केवलोजिनके उस अवस्था में समस्त जोवप्रदेशोंके समान योगके प्रतिपादन करनेके लिये आगेके सूत्रका आरम्भ करते हैं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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