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________________ के िलसमुग्धादो] १५५ क सेसस्स च अणुभागस्स अप्पसत्थाणमणते भागे हणइ। $ ३३८ सुगमत्वान्नात्र सूत्रद्वये किंचिद् व्याख्येयमस्ति। एत्थ वि गुणसेढिपरूवणाए आवज्जिदकरणभंगो। एवमेसो विदिओ केवलिसमुग्घादस्सावत्थाविसेसो परूविदो । संपहि तदिये अवत्थाविसेसे वट्टमाणस्स सरूवणिरूवणमुवरिमं सुत्त पबंधमाह-- * तदो तदियसमये मंथं करेदि । $ ३३९ मथ्यतेऽनेन कर्मेति मन्थः। अघादिकम्माणं द्विदिअणुभागणिम्महणट्ठो केवलिजीवपदेसाणमवत्थाविसेसो पदरसग्णिदो मंथो त्ति वुत्तं होइ । एदम्मि अवस्थाविसेसे वट्टमाणस्स केवलिणो जीवपदेसा चदुहिम्मि पासेहिं पदरागारेण विसप्पियण समंतदो वादवलयवदिरित्तासेसलोग़ागासपदेसे आवरिय चिट्ठति त्ति दट्ठव्वं, सहावदो चेव तदवत्थाए केवलिजीवपदेसाणं वादवलयभंतरे संचाराभावादो। एदस्स चेव पदरसण्णा रुजगसण्णा च आगमरूढिवलेण दट्ठव्या । एदम्मि पुण अवत्थंतरे कम्मइयकायजोगी अणाहारी च जायदे, तत्थ मूलसरीरावट्ठभजणिदजीवपदेसपरिप्फंदा संभवादो, शरीरप्रायोग्यनोकर्म पुद्गलपिण्डग्रहणाभावाच्च । संपहि एत्थ वि द्विदि-अणुभागे पुव्वं व घादेदि ति पदुप्पायणट्ठमुत्तरसुतमोइण्ण-- * अप्रशस्त प्रकृतियोंके शेष रहे अनुभागके अनन्तबहुमागका हनन करता है । 8 ३३८ सुगम होनेसे यहाँपर उक्त दोनों सूत्रोंमें कुछ व्याख्यान करने योग्य नहीं है । यहाँपर भी गुणश्रेणि-प्ररूपणा आजितकरणके समान है। इस प्रकार केवलिसमुद्धातकी तीसरी अवस्थाविशेषमें विद्यमान केवलोके स्वरूपका प्ररूपण करनेकेलिये आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * तत्पश्चात् तीसरे समयमें मन्थ नामके समुद्धातको करता है। ६ ३२९ जिसके द्वारा कर्म मथा जाता है उसे मन्थ कहते हैं । अघातिकर्मों के स्थिति और अनुभागके निर्मथनकेलिये केवलियोंके जीवप्रदेशोंकी जो अवस्था विशेष होती है, प्रतर संज्ञावाला वह मन्थ समुद्धात है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस अवस्था विशेषमें विद्यमान केवलोके जीवप्रदेश चारों हो पार्श्वभागोंसे प्रतराकाररूपसे फैलकर सर्वत्र वातवलयके अतिरिक्त पूरे लोकाकाशके प्रदेशोंको भरकर अवस्थित रहते हैं ऐसा जानना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें केवलोके जीवप्रदेशोंका स्वभावसे ही वातवलयके भीतर संचार नहीं होता। इसीकी प्रतरसंज्ञा और रुचक संज्ञा आगममें रूढिके बलसे जाननी चाहिये । परन्तु इस अवस्थामें केवली जिन कार्मणकाययोगी और अनाहारक हो जाता है, क्योंकि उस अवस्थामें मूल शरीरके आलम्बनसे उत्पन्न हुए जीवप्रदेशोंका परिस्पन्द सम्भव नहीं है तथा उस अवस्थामें शरीरके योग्य नोकर्म पुद्गलपिण्डका ग्रहण नहीं होता । अब इसो अवस्थामें स्थिति और अनुभागका पहलेके समान घात करता है इस बातका कथन करनेकेलिये उत्तरसूत्र अवतीर्ण हुआ है
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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