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________________ १६ प्रस्तावना लोभ संज्वलनकी दूसरी कृष्टिका वेदन करनेवाले जीवके जो प्रथम स्थिति एक समय अधिक एक आवलिप्रमाण शेष रहती है उस समय संज्वलन लोभकी तीसरी कृष्टि पूरीकी पूरो सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में संक्रमित हो जाती है। तात्पर्य यह है कि दूसरी कुष्टिके एक समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध और उदयावलि में प्रविष्ट हुए प्रदेशपुंजको छोड़कर शेष सब द्रव्य सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियों में संक्रान्त हो जाता है । तब यह क्षपक अन्तिम समयवर्ती बादर-साम्परायिक और मोहनीय कर्मका अन्तिम समयवर्ती बन्धक होता है । उसके बाद यह क्षपक सूक्ष्मसाम्परायिक होकर सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टियोंके असंख्यात बहुभागकी उदीरणा करता है । इसके जो अनुदीर्ण और उदीर्ण कृष्टियोंका अल्पबहुत्व होता है उसका संक्षिप्त कथन १५वीं पुस्तक में कर आये हैं । इसके आगे बतलाया है कि जितना सूक्ष्मसाम्परायिकका काल शेष रहता है उतना ही मोहनीय कर्मका स्थितिसत्कर्म शेष रहता है । ऐसी अवस्थामें इस गुणस्थानसम्बन्धी जिन गाथाओं का विशेष खुलासा कर आये हैं उन गाथाओंका उच्चारणापूर्वक प्रत्येक पदका खुलासा करेंगे । उनमें दसवीं मूलगाथा में बतलाया है कि मोहनीय कर्मके कृष्टिरूपमें परिणमा देनेपर किनकिन कर्मों को कितने प्रमाण में बाँधता है, किन-किन कर्मोंको कितने प्रमाण में वेदता है, किन-किन संक्रमण करता है और किन-किन कर्मोंका असंक्रामक होता है । इन बातोंका खुलासा आगे पाँच भाष्यगाथाओं द्वारा करते हुए पहली भाष्यगाथामें बतलाया है कि संज्वलन क्रोधको प्रथम कृष्टिका वेदन करने वाला अन्तिम समयवर्ती जीव मोहनीय कर्मसहित यहाँ बँधने वाले तीनघाति कर्मोंका अन्तर्मुहूर्त कम दस वर्षं प्रमाण स्थितिबन्ध करता है । इसमें इतनी विशेषता है कि जिन कर्मों की अपवर्तना होती है उनको देशघातिरूपसे ही बाँधता है तथा जिन कर्मोंकी अपवर्तना सम्भव नहीं है उन कर्मोंको सर्वघातिरूपसे बाँधता है । वे कर्म केवलज्ञानावरण और केवलदर्शनावरण हैं । शेष कर्मोंका क्षयोपशम होता है, इसलिए उनकी अपवर्तना होती है । अतः उनका देशघातिकरण होने से उनका देशघातिरूप ही बन्ध होता है । यह प्रथम भाष्यगायाकी प्ररूपणाका सार है । दूसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि अन्तिम समयवर्ती बादरसाम्परायिक जीव नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्मका स्थितिबन्ध कुछ कम एक वर्षप्रमाण होता है, तीन घातिकर्मोंका मुहूर्त - पृथक्त्व प्रमाण होता है और मोहनीय कर्मका अन्तर्मुहूर्तप्रमाण होता है । तीसरी भाष्यगाथामें बतलाया है कि अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीव नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मको एक दिनके भीतर बाँधता है अर्थात् आठ मुहूर्तप्रमाण बन्ध करता है तथा वेदनीय कर्मको बारह मुहूर्त प्रमाण बाँधता है । चौथी भाष्यगाथामें बतलाया है कि तीन मूलप्रकृतियोंकी प्ररूपणा करनेके बाद जो मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण हैं उनके अनुभागको देशघातिरूपसे वेदन करता है । यहाँ गाथामें जो 'च' शब्द आया है उससे अवधिज्ञानावरण और मन:पर्ययज्ञानावरण तथा चक्षु, अचक्षु और अवधिदर्शनवरणको ग्रहण करना चाहिये । इनकी क्षयोपशमलब्धि सम्भव है इसलिए इनका देशघातिरूपसे वेदन करता है । इसी प्रकार पाँच अन्तराय प्रकृतियोंके सम्बन्धमें जो भी जानना चाहिये । इनके सिवाय जो अलब्धिरूप कर्म होते हैं, अर्थात् जिन कर्मोंका किसी-किसीके क्षयोपशम सम्भव नहीं है उन अवधिज्ञानावरण, मन:पर्ययज्ञानावरण और अवधिदर्शनावरणको सर्वघातिरूपसे वेदन करता है,
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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