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________________ सिद्धसरूवं ] चतुर्थं स्यादयोगस्य शेषकर्मच्छिदुत्तमम् । फलमस्याद्भुतं धाम परतीर्थ्यदुरासदम् || १ || इति । १८५ $ ३९६ स पुनरयोगिकेवली तथाविधेन ध्यानपरिणामातिशयेन निर्देग्धसर्वमलकलंकबन्धनो निरस्तकिट्टिधातुपाषाणजात्य कनकवल्लब्धात्मस्वभावस्तथागतिपरिणामस्वाभाव्यात् प्रदीपशिखावदी हैव सिद्धयन् सिद्ध एकसमयेनोर्ध्वं गच्छत्यालोकान्तादित्येतत्प्रतिपादयितुकामः सूत्रमुत्तरं पठति * सेलेसिं श्रद्धाए भीणाए सव्वकम्म विप्पमुक्को एगसमएण सिद्धिं गच्छइ $ ३९७ अयोगिकेवलिगुणावस्थानकालः शैलेश्यद्धा नाम । सा पुनः पंचह्नस्वाक्षरोच्चारणकालावच्छिन्नपरिमाणत्यागमविदां निश्चयः । तस्यां यथाक्रममधः स्थितिगलनेन क्षीणायां सर्वमलकलंक विप्रमुक्तः स्वात्मोपलब्धिलक्षणां सिद्धिं सकलपुरुपार्थसिद्धेः परमकाष्ठानिष्ठामेकसमयेनैवोपगच्छति, कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षान्तरमेव मोक्षपर्यायाविर्भावोपपत्तेः । उक्तं च 1. अयोगिकेवली जिनके शेष कर्मोंका छेद करनेवाला व्युपरत क्रियानिवर्ति नामका चौथा उत्तम शुक्लध्यान होता है जो मिथ्यातीर्थवालोंको दुरासद है, अद्भुत मोक्ष धामकी प्राप्ति इसका फल है ।। १ ।। ९ ३९६ वह अयोगिकेवली जिन उस प्रकारके ध्यानपरिणामके अतिशय से समस्त मल और कलंकबन्धनका नाशकर किट्टरूप धातु और पाषाणके निकल जानेपर शुद्ध सोनेके समान आत्मस्वरूपको प्राप्तकर उस प्रकारकी गतिपरिणामरूप स्वभावके कारण जिस प्रकार प्रदीपकी शिखा अन्य पर्यायरूप परिणम जाती है उसी प्रकार यह अयोगिकेवली जिन यहीं सिद्ध होता हुआ सिद्ध स्वरूप वह एक समय द्वारा लोकके अन्ततक ऊपर जाता है । इस प्रकार इस बातका प्रतिपादन करते हुए आमेके सूत्रको कहते हैं * शैलेश पदके क्षीण हो जानेपर समस्त द्रव्य-भाव कर्मोंसे मुक्त होता हुआ यह जीव एक समयद्वारा सिद्धिको प्राप्त होता है । ६ ३९७ अयोगिकेवली गुणस्थानका काल शैलेशपदका काल है । परन्तु वह अ, इ, उ, ऋ, ल इन पाँच ह्रस्व अक्षरोंके उच्चारणमें जितना काल लगता है उतना होता है, ऐसा आगमके जानकारोंका निश्चय है । इस अवस्थामें यथाक्रम अधःस्थितिके गलनेसे शेष कर्मोंके क्षीण होनेपर समस्त मल और कलंक से मुक्त होता हुआ सकल पुरुषार्थ की सिद्धि होने से परमकाष्ठाको प्राप्त अपने आत्माको उपलब्धिलक्षण सिद्धिको एक समयके द्वारा ही प्राप्त कर लेता है अर्थात् सिद्ध पदको प्राप्त एक समय में लोकाग्रको प्राप्त कर लेता है, क्योंकि समस्त कर्मोके क्षय होनेके अनन्तर ही मोक्षपर्यायकी उत्पत्ति बनती है । कहा भी है
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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