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________________ १८६ जय धवलास हिदे कसा पाहुडे कर्मबन्धनबद्धस्य सद्भूतस्यान्तरात्मनः । कृत्स्नकर्म विनिर्मोक्षो मोक्ष इत्यभिधीयते ।। १ ।। यथा बीजास्तित्वे यवतिलमसूरप्रभृतयः, प्ररोहंति क्षिप्त्वा भुवि बहुविधप्रत्ययवशात् । तनोर्बीजं कर्म क्षयमुपगते कर्मणि तथा, प्रसूतिर्देहानामसति भवबीजे न भवति ।। २ ।। इति । [ पच्छिमखंध-अत्थाहियार ९ ३९८ अत्रायोगिकेवली द्विरिमसमये अनुदय वेदनीय- देवगतिपुरस्सराः द्वासप्ततिः प्रकृतीः क्षपयति, चरिमसमये च सोदय वेदनीय मनुष्यायुर्मनुष्य गतिकास्त्रयोदश प्रकृतीः क्षपयतीति प्रतिपत्तव्यम् । तासां च प्रकृतीनां नामनिर्देशस्तु परिबोधः । ततः सूक्तं -- कृत्स्नकर्मक्षयादवि कलात्मस्वरूपोपलब्धिरनन्तज्ञानादीनां परमकाष्ठा मोक्ष इति । ९ ३९९ एतेन प्रदीपनिर्वाणवत्स्कन्धमन्तानोच्छेदादभावमात्रं निर्वाणं परिकल्पयन् वादी प्रतिक्षिप्तः, सर्वपुरुषार्थसिद्धेः परमकाष्ठालक्षणस्य तस्याभावमात्रत्वविरोधात् । अभावमात्रत्वे च प्रेक्षापूर्व कारिणां तदर्थप्रयासवैयर्थ्यात् । न हि कश्चित्सचेतनः पुरुषः आत्माभावाय प्रतीयते न इत्यसमज्जसोऽयं मोक्षप्रक्रियावतारः । कर्मबन्धनसे बद्ध विद्यमान अन्तरात्मा के समस्त कर्मोंसे मुक्त हो जानेका नाम मोक्ष है ऐसा कहा जाता है ॥ १ ॥ जैसे बीज अस्तित्वमें जौ, तिल और मसूर आदि पृथिवीमें निक्षिप्त कर अनेक कारणों के वशसे अंकुरोंको उत्पन्न करते हैं । उसी प्रकार संसार में शरीरका मूल कारण कर्म है उस कर्मके क्षयको प्राप्त होनेपर शरीरधारियोंके भवबीजके नहीं रहनेपर नवबीजकी उत्पत्ति नहीं होती है ॥२॥ $ ३९८ यहाँपर अयोगिकेवली द्विचरम समय में अनुदयरूप वेदनीय और देवगति आदि बहत्तर प्रकृतियोंकी क्षपणा करता है और अन्तिम समय में उदय सहित वेदनीय, मनुष्यायु और मनुष्यगति आदि तेरह प्रकृतियों की क्षपणा करता है ऐसा जानना चाहिये । तथा उन प्रकृतियोंका नाम निर्देश सुबोध है । इसलिये शास्त्रमें ठीक ही कहा गया है कि समस्त कर्मोंका क्षय होनेसे शरीररहित • अनन्त ज्ञानादिकी परम काष्ठारूप आत्मस्वरूपकी प्राप्ति मोक्ष है । § ३९९ इस प्रकार इस कथनसे प्रदीपके निर्वाणके समान स्कन्धसन्तानका उच्छेद हो जाने से आत्मा अभावमात्रका नाम निर्वाण है ऐसी कल्पना करनेवाला वादी निराकृत हो गया, क्योंकि समस्त पुरुषार्थ की सिद्धि होनेसे परम काष्ठालक्षण मोक्षको अभाव माननेमें विरोध आता है तथा मोक्षको अभावमात्र माननेपर प्रेक्षापूर्वक कार्य करनेवालोंकेलिये मोक्षकेलिए पुरुषार्थ करना व्यर्थ हो जाता है और कोई भी सचेतन पुरुष आत्माका अभाव करनेकेलिये प्रतीत नहीं होता है । इस प्रकार मोक्षका अभाव माननेपर मोक्षप्रक्रियाका अवतार करना असमंजस नहीं ठहरेगा ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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