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________________ शास्त्राथसंग्रहः ] १८७ ६४०० बुद्धिसुखदुःखेच्छाद्वेषप्रयत्नधर्माधर्मसंस्काराणां नवानां आत्मगुणानां मलोद्वर्तेनोच्छित्तौ सत्यां गुणैर्वियुक्तस्यात्मनः स्वात्मन्यवस्थानं मोक्षो निःश्रेयसमित्यपरे परिकल्पयन्ति, तदप्यनेनैव प्रतिविहितं द्रष्टव्यम्, तत्रापि पुरुषार्थविभ्रंशनं मुक्त्वा पुरुषार्थसिद्धरत्यन्तमनुपलब्धेर्विशेषलक्षणशून्यस्यावस्तुत्वात् खरविषाणवन्मुक्तात्मनामभावप्रसंगाच्च न समीचीनमेतद्दर्शनम् ४०१ उपरतकार्यकारणसंबंधस्यात्मनः सुषुप्तपुरुषवदव्यक्तचैतन्यस्वरूपेणावस्थानमपरेषां निर्वाणम् । तदप्यसत्, तत्रापि पूर्वोक्तदोषानुषंगस्यापरिहरणीयत्वादित्यलमसद्दर्शनोपन्यासेन । ततः स्वात्मोपलब्धिरेव सिद्धिरिति सिद्धो नः सिद्धान्तः परसिद्धान्तव्याघातश्च । $ ४०२ तदेवमनादिकर्मसम्बन्धपरतंत्रः संसारचक्रे परिभ्रमन्नात्मा मोहोदयोस्थापितं रागद्वेषपर्यायं प्रेयो-द्वेषसंजितं' मुहुर्महुरास्कन्दस्तत्पूर्विका प्रकृतिस्थित्यनुभवप्रदेशप्रविभक्तां चतुष्टयी सवस्थां मोहनीय स्येतरकर्मणां च मलोत्तरप्रकृतिभेदभिन्नां सातत्येन विभ्राणेस्तबंधसंक्रमोदयोदीरणापरिणामांश्च सततमात्मसात्कुर्वन् क्रोधमान $ ४०० बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, धर्म, अधर्म और संस्कार इन नौ आत्माके गुणोंका मूलसे उद्वर्तन होकर उच्छेद हो जानेपर गणों से रहित आत्माका अपनी आत्मामें अवस्थान होनेका नाम मोक्ष है, निश्रेयस् उसीको कहते हैं । इस प्रकार दूसरे मनवाले (वैशेषिक) कल्पना करते हैं सो उनकी उस कल्पनाका पूर्वोक्त कथनसे ही निराकरण जानना चाहिये, क्योंकि उक्त कथनमें भी भ्रष्ट पुरुषार्थको छोड़कर पुरुषार्थकी सिद्धिकी किसी भी प्रकारसे उपलब्धि नहीं होती, क्योंकि विशेष लक्षणसे शून्यको वस्तुपना नहीं प्राप्त होता तथा गधेके सींगोंके समान मुक्तात्माओंके अभावका प्रसंग आता है, इसलिये यह दर्शन समीचीन नहीं है । ४०१ जिस आत्माका कार्य-करण सम्बन्ध उपरत हो गया है ऐसे आत्माका सोये हुए पुरुषके समान चेतनाके अव्यक्त स्वरूपसे अवस्थित रहना मोक्ष है ऐसा अन्य मतवाले मानते हैं, परन्त उन मतवालोंका ऐसा कहना भी असत है. क्योंकि इस मान्यतामें भी अपरिहार्यरूपसे पूर्वोक्त दोष प्राप्त होते हैं, इसलिये असमोचीन दर्शनोंके कथनको पूर्व में जितनी चर्चा की है वह पर्याप्त है। इनके कथनकी अब और आवश्यकता नहीं। अतएव अपने आत्माकी उपलब्धिका नाम ही सिद्धि (मोक्ष) है, इसलिये उक्त कथनसे हमारा सिद्धान्त सिद्ध हुआ और दूसरोंके द्वारा माने गये सिद्धान्तोंका व्याघात हो गया। ६४०२ इस कारण इस प्रकार अनादि कर्मसम्बन्धसे परतन्त्र हआ तथा संसारचक्रमें परिभ्रमण करता हुआ यह आत्मा मोहके उदयसे उपस्थित हए प्रेम और द्वेष संज्ञावाले राग और द्वेष रूप पर्यायको बार-बार प्राप्त होता हुआ तत्पूर्वक मोहनीय और इतर कर्मोकी मूल और उत्तर प्रकृतियोंके भेदसे नानारूप स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंकी अपेक्षा विभक्त चार प्रकार की सत्तारूप १. मु० प्रतौ प्रेय-द्वेषसंज्ञितं इति पाठः । २.प्रेसकापीप्रतौ चतुष्टयी इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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