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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा ६ ३४ एसा पढमभासगाहा । एदीए किट्टीवेदगस्स पडिणियदुद्देसे वट्टमाणस्स तिण्हं घाइकम्माणं टिदि-अणभागबंधपमाणणि देसो कओ दट्टयो । संपहि एदिस्से अवयवत्थो वुच्चदे । तं जहा-'दससु च वस्सस्संतो । एवं भणिदे कोहपढमकिट्टीवेदगचरिमसमये दसण्हं वस्साणमंतो द्विदि बंधदि-अंतोमुहुत्तणदसवस्सपमाणेण हिदि बंधदि त्ति वृतं होइ । 'णियमा दु' णिच्छयेणेव 'सेसगे अंसे' मोहणोयवज्जाणं तिण्हं घाइकम्माणमिदि वृत्तं होइ । मोहणीयस्स वि द्विदिबंधपमाणणिद्द सो एदेणेव सूचिदो दट्ठव्वो। तिण्हं घाइकम्माणं पि ट्ठिदिबंधपमाण-णिद्दे सो एत्थेव सूचिदो त्ति घेत्तव्वो, सुत्तस्सेदस्स देसामासयत्तादो । ३५ संपहि गाहापच्छद्धस्सत्थो वुच्चदे । तं जहा-'देसावरणीयाई' देसघादीणि चेव बंधदि । 'जेसिमोवट्टणा अत्थि' एवं भणिदे घादिकम्मेस जेसिं कम्माणमोवट्टणा संभवइ तेसिं देसघादीणं चेव बंधगो होदि त्ति वुत्तं होइ । जेसिं पुण ओवट्टणाऐ णत्थि संभवो ताणि सव्वघादीणि चेव बंधदि त्ति एसो वि अत्थो एत्थेव णिलीणो त्ति वक्खाणेयब्वो। ओवट्टणासण्णा च पुत्वमेव परूविदा त्ति ण पुणो परूविज्जदे । संपहि एदस्सेव गाहासुत्तत्थस्स फुडीकरणट्ठमुवरिमं विहासागंथमाढवेइ * एदिस्से गाहाए विहासा। 8 ३४ यह प्रथम भाष्यगाथा है। इसके द्वारा प्रतिनियत स्थानमें विद्यमान कृष्टिवेदक क्षपकके तीन घातिकर्मोंके स्थिति-बन्ध और अनुभाग-बन्धके प्रमाणका निर्देश किया गया जानना चाहिये । अब इस भाष्यगाथाके प्रत्येक पदका अर्थ कहते हैं । यथा-'दससु च वस्सस्संतो' इस प्रकार कहने पर संज्वलन क्रोधको प्रथम कृष्टिका वेदक अन्तिम समयमें दस वर्षों के भीतर स्थितिको बाँधता है अर्थात् अन्तर्मुहूर्त कम दसवर्षप्रमाण स्थितिको बाँधता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। "णियमा दु' निश्चयसे हो 'सेसगे अंसे' मोहनीयकर्मको छोड़कर तोन घातिकर्मोकी [दस वर्षों के भीतर स्थितिको बाँधता है ] यह उक कथनका तात्पर्य है। मोहनीयकर्मके भी स्थितिबन्धके प्रमाणका निर्देश इसी वचनसे सूचित किया गया जानना चाहिये । तीन घातिकर्मों के भी स्थितिबन्धके प्रमाणका निर्देश इसी वचनसे ही सूचित हो गया, ऐसा ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि यह भाष्य-गाथासूत्र देशामर्षक है। ६ ३५ अब इस भाष्यगाथाके उत्तरार्धका कथन करते हैं । यथा-'देसावरणीयाई देशघातियोंको ही बाँधता है । 'जेसिमोवट्ठणा अत्थि' ऐसा कहनेपर घातिकर्मो में जिन कर्मोकी अपवर्तना सम्भव है उन घातिकर्मों में देशघातियोंका ही बन्धक होता है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है। परन्तु जिन घातिकर्मोंकी अपवर्तनाका होना सम्भव नहीं है उन्हें सर्वघाति रूपसे हो बांधता है । इस प्रकार यह अर्थ भी इसी भाष्यगाथामें ही भित है ऐसा व्याख्यान करना चाहिये । अपवर्तना संज्ञाका पहले ही कथन कर आये हैं, इसलिये यहाँ उसका पुनः कथन नहीं किया जाता है। अब इसो भाष्यगाथा सूत्रका स्पष्टीकरण करनेके लिये आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं * अब इस भाष्यगाथाकी विभाषा करते हैं। १. ओवट्टणा प्रे० का ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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