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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा वि किट्टीअो जाओ अधहिदिगमुदयं पविसंति ताश्रो उदीरिजमाणियाणं किट्टीणं सरिसायो भवंति । ६ २१३ उदीरणासरूवेणुदयं पत्ताओ मज्झिमकिट्ठीओ चेव सुद्धा भवंति । पुणो उदयढिदि मोत्तूण उवरिमद्विदिप्पहुडि उदयावलियपविट्ठपदेसपिंडो जाव उदयं ण पविसदि ताव सव्यकिट्टी विसेससंजुत्तो होदूण उदयं पविसमाणावत्थाए उवरिमहेडिमासंखेज्जभागकिट्टीणं सरूवमुज्झियणमज्झिमबहुभागसरू वेणविद उदयकिट्टीणं सरूवे परिणमिय विपच्चदि त्ति वृत्तं होदि । एवमेदीए भासगाहाए कमोदयेणुदयं पविसमाणीणुदीरिज्जमाणकिट्टीणमुदीरिज्जमाणमज्झिमकिट्टीआयारेण परिणामो सकारणो णिपिट्ठोदट्ठव्वो । एवं णवमभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता । * एत्तो दसमी भासगाहा । जो एक-एक अधःस्थितिका गलन होकर उदयमें प्रवेश करती हैं; वे उदीर्यमाण कृष्टियोंके सदृश होती हैं। $ २१३ उदीरणारूपसे उदयको प्राप्त हुईं मध्यम कृष्टियाँ ही शुद्ध होती हैं। पुनः उदयस्थितिको छोड़कर उपरिम स्थितिसे लेकर उदयावलिमें प्रविष्ट हुआ प्रदेशपुंज जब तक उदयमें प्रवेश नहीं करता तब तक सब कृष्टिविशेषसे संयुक्त होकर उदयमें प्रवेश करनेकी अवस्थामें उपरिम और अधस्तन कृष्टियोंके स्वरूपको छोड़कर मध्यम बहुभागरूपसे उदयकृष्टियोंके स्वरूपसे परिणमकर फल देती हैं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इस भाष्यगाथाद्वारा क्रमसे उदयरूपसे उदयमें प्रवेश करनेवाली उदीर्यमाण कृष्टियोंके उदीर्यमाण मध्यम कृष्टिरूपसे कारणसहित परिणाम कहा है ऐसा यहाँ जानना चाहिये । इस प्रकार नौवीं गाथाकी अर्थविभाषा समाप्त हुई। विशेषार्थ-२२६ संख्याक भाष्यगाथाके पूर्वाधमें यह सिद्ध करके बतलाया गया है कि जो प्रतिसमय मध्यम कृष्टियाँ उदीरित होती हैं उनमें अधस्तन और उपरिम एक-एक अनुदोर्यमाण कृष्टिसंक्रमण करती है। तथा इसी भाष्यगाथाके उत्तरार्धमें यह बतलाया गया है कि विवक्षित संग्रह कृष्टिके जो अधस्तन असंख्यातवें भागप्रमाण और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियाँ पहले उदयावलिमें प्रविष्ट हुई हैं वे सब वेदी जानेवाली एक-एक मध्यम कृष्टिरूपसे परिणमती हैं अर्थात् वे सब कृष्टियां एक-एक मध्यम कृष्टिरूपसे संक्रमण करती हैं। इसी बातका समर्थन करते हुए समुच्चयरूपमें अगली २२७ वी भाष्यगाथामें यह बतलाया गया है कि जो विवक्षित संग्रहकृष्टिकी अधस्तन और उपरिम असंख्यातवें भागप्रमाण कृष्टियाँ क्रमसे उदयावलिमें पहले प्रविष्ट हुई हैं वे उसी संग्रहकष्टिकी उदोरित होनेवाली मध्यमकृष्टियोंके रूपमें संक्रमित होकर उदयरूपसे परिणत होती हैं। यहाँ इन दोनों भाष्यगाथाओंमें अधस्तन और उपरिम कृष्टियोंके मध्यम बहुभागप्रमाण कृष्टियोंमें संक्रमण करके उदयमें आनेकी जो बात कही गई है उस कथनको थिउक्क संक्रमणकी अपेक्षा जानना चाहिये। * इससे आगे दसवीं भाष्यगाथा आई है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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