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________________ १०२ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे . [ चारित्तक्खवणा द्विदीए विणा तव्विसयाणमावासयाणं संपुण्णभावाणुववत्तीदो । एवं पढमद्विदिपमाणविसये दोण्हं खवगाणं णाणत्तमेदं पदुप्पाइय संपहि एदिस्से पढ मट्ठिदीए अभंतरे कीरमाणाणं आवासयाणं णाणत्तगवेसणट्ठमुवरिमं पबंधमाह * जम्हि कोहेण उवढिदो अस्सकण्णकरणं करेदि, माणेण उवट्टिदो तम्हि काले कोहं खवेदि । __$ २४६ कोहोदएण चडिदो खवगो जम्मि उद्देसे चउण्हं संजलणाणमस्सकण्णकरणमपुव्वफद्दयविहाणं च करेदि तम्हि उद्देसे एसो माणोदयक्खवगो कोहसंजलणं फद्दयसरूवेणेव खवेदि; तत्थ पयारंतरासंभवादो त्ति वृत्तं होदि । कुदो एवमेत्थ किरियाविवज्जासो जादो त्ति णासंकणिज्जं, माणोदयक्खवगम्मि कोहसंजलणस्स उदयाभावेण फद्दयगदस्सेव विणाससिद्धीए विरोहाभावादो। ण चाणियट्टिगुणट्ठाणे परिणामभेदासंभवमस्सियूण पयदणाणत्तविहाणं' समंजसं करणपरिणामाणमभिण्णसहावत्ते वि संज्वलनके उदयसे क्षपकश्रेणिपर चढ़े हुए क्षपक जीवको मानसंज्वलनकी प्रथम स्थिति जानना चाहिये, क्योंकि इतनी बड़ी प्रथम स्थितिके बिना तद्विविषयक आवश्यकोंका पूरा होना नहीं बन सकता। इस प्रकार प्रथम स्थितिसम्बन्धी प्रमाणके विषयमें दोनों क्षपकोंके मध्य जो विभिन्नता है उसका कथन करके अब इस प्रथम स्थितिके भीतर किये जाने वाले आवश्यकोंकी विभिन्नताका कथन करनेकेलिये आगेके प्रबन्धको कहते हैं___* क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणि पर चढ़ा हुआ लपक जिस काल में अश्वकर्णकरण करता है, मानसंज्वलनसे क्षपकश्रेणिपर चढ़ा हुआ क्षपक उस कालमें क्रोधसंज्वलनकी क्षपणा करता है। ६ २४६ क्रोधसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणीपर चढ़ा हुआ क्षपक जिस स्थानपर चारों संज्वलनोंकी अश्वकर्णकरणक्रिया और अपूर्वस्पर्धकविधिको सम्पन्न करता है उस स्थान पर मानसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़ा हुआ यह क्षपक क्रोधसंज्वलनको स्पर्धकरूपसे मात्र क्षय करता है, क्योंकि वहाँ पर अन्य कोई प्रकार सम्भव नहीं है, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । शंका-यहाँ पर इस प्रकारका क्रिया-विपर्यास कैसे हो गया है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये; क्योंकि मानसंज्वलनके उदयसे क्षपक श्रेणिपर चढ़नेवाले क्षपकके क्रोधसंज्वलनका उदय न होनेके कारण स्पर्धक अवस्थामें रहते हुए हो क्रोध संज्वलनका विनाश सिद्ध होता है, इसलिए इसमें कोई विरोध नहीं है। और अनिवृत्तिकरण गुणस्थानमें परिणामोंका भेद सम्भव नहीं है, इसलिये इस अपेक्षा प्रकृतमें भेदका कथन करना ठीक नहीं है, क्योंकि इस गुणस्थानके करणपरिणामोंके अभिन्न स्वभाव होने पर भी भिन्न कषायोंके उदयके १. आता प्रत्योः विहदावणं इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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