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________________ गा० २३३ ] ___६३०४ तत्र केवलज्ञानादीनां स्वरूपमुच्यते । तद्यथा-केवलमसहायमिन्द्रियालोकमनस्कारनिरपेक्षमित्यर्थः । केवलं च तत् ज्ञानं च केवलज्ञानम्, अतीन्द्रियेष्वर्थेषु सूक्ष्मव्यवहितविप्रकृष्टेष्वप्रतिहतप्रसरं करणक्रमव्यवधानातिवति ज्ञानावरणीयकर्मणो निरवशेषप्रक्षयादुद्भूतवृत्ति निरतिशयमनुत्तरं ज्योतिः केवलज्ञानमित्युक्तं भवति । तस्य पुनरानन्त्यविशेषणमविनश्वरत्वख्यापनार्थम्, क्षायिकस्य भावस्प घटस्य प्रध्वंसाभाववत्साद्यपर्यवसितस्वरूपेणावस्थाननियमोपलम्भात् । सर्वद्रव्यपर्यायविषयस्य तस्य परमोत्कृष्टानन्तपरिणामत्वख्यापनार्थ वा तद्विशेषणं प्रतिपत्तव्यम्, प्रमेयानन्त्यैतत्परिच्छेदकज्ञानशक्तीनामप्यानन्त्यसिद्धरविप्रतिषेधान्नोपचारमात्रमेवैतत् परमार्थत एव तदविभागपरिच्छेदसामर्थ्यानां सकलप्रमेयराशेरनंतगुणानामागमसमधिगम्यानामुपलंभात् यथोक्तमत्थितं भायणं णत्थि तं दवमिति ततोऽस्यानुपचरितमेवानन्त्यमिति निश्चेतव्यम् । उक्तं च क्षायिकमेकमनन्तं त्रिकालसर्वार्थयुगपदवभासि । निरतिशयमन्त्यमच्युतमव्यवधानं च केवलं ज्ञानम् ॥ ६३०४ यहाँ केवलज्ञानादिके स्वरूपका कथन करते हैं । यथा-केवलज्ञानमें केवल शब्दका अर्थ है जो ज्ञान असहाय है अर्थात् इन्द्रिय, आलोक और मनको अपेक्षाके बिना होता है। इस प्रकार केवल जो ज्ञान वह केवलज्ञान है। जो सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट अर्थों में अप्रतिहत. प्रसारवाला है, जो करण, क्रम और व्यवधानसे रहित है तथा जिसकी वृत्ति ज्ञानावरण कर्मके पूरा क्षय होनेसे प्रगट हुई है ऐसा निरतिशय और अनुत्तर ज्योतिस्वरूप केवलज्ञान है; यह उक्त कथनका लात्पर्य है। फिर भी उसको जो आनन्त्य विशेषण दिया है वह उसके अविनश्वरपनेकी प्रसिद्धिकेलिये दिया है, क्योंकि जैसे घटका प्रध्वंसाभाव सादि-अनन्त होता है उसी प्रकार क्षायिक भावके सादिअनन्तस्वरूपसे अवस्थानका नियम उपलब्ध होता है। अथवा केवलज्ञानका 'अनन्त' यह विशेषण समस्त द्रव्य और उनकी अनन्त पर्यायोंको विषय करनेवाले उस केवलज्ञानके परमोत्कृष्ट अनन्त परिणामपनेकी प्रसिद्धकेलिये जानना चाहिये । कारण कि प्रमेय अनन्त हैं, अतः उनको परिच्छेदक ज्ञानशक्तियोंको भी अनन्त सिद्ध होनेमें प्रतिषेधका अभाव है। यह सब कथन केवल उपचार मात्र ही नहीं है किन्तु परमार्थसे ही सकल प्रमेयराशिके अनन्त गुणरूप और आगमप्रमाणसे जानने में आनेवाली ऐसी केवलज्ञानसम्बन्धी अविभागप्रतिच्छेदसामर्थ्य उपलब्ध होती है। इस प्रकार यथोक्त अविभागप्रतिच्छेदोंका अस्तित्व केवल कल्पनारूप नहीं है, वस्तुतः वह द्रव्य है। इसलिये इसकी अनन्तता अनुपचरित ही है ऐसा निश्चय करना चाहिये । कहा भी है जो क्षायिक है, एक है, अनन्तस्वरूप है, तीनों कालोंके समस्त पदार्थोंको एक साथ जाननेवाला है, निरतिशय है, क्षायोपशमिकज्ञानोंके अन्तमें प्राप्त होनेवाला है, कभी च्युत होनेवाला नहीं है और सूक्ष्म, व्यवहित तथा विप्रकृष्ट पदार्थों के व्यवधानसे रहित है वह केवलज्ञान है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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