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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा गोवुच्छदव्वमियरगोवुच्छदव्वं वा असंखेज्जगुणमेव होइ; परिप्फुडमेव तत्थ नहामावोवलंभादो । एवं च समुवलब्भमाणे किं कारणमेत्येव विसेसियण उदीरणादव्वादो उदयं पविसमाणदव्वस्सासंखेज्जगुणतपरूवणमाढविज्जदि त्ति आसंकाए गिरारेगीकरणट्ठमत्तरसुत्तमोइण्णं * असंखेज्जलोगभागे उदीरणा अणुत्तसिद्धी।। ६१८४ एतदुक्तं भवति-जम्मि विसये उदीरिज्जमाणदव्वमृदयं पविसमाणदव्वं च असंखेज्जसमयपबद्ध मेत्तं चेव होइ, तत्थ किं थोवं, किं वा बहुगमिदि जाणावणटुं थोवन हुत्तारूवणं कायन्वं, अण्णहा तविसयविसेसणिण्णयाणुप्पत्तीदो। हेट्ठा पुण असंखेज्जलोगपडिभागेण उदीरिज्जमाणदव्वादो कम्मोदएण उदयं पविसमाणदवास्वायंखेज्जगु गत्तमविप्पडिवत्तिसिद्धं, तत्थ मंदबुद्धीणं पि संदेहाभावादो । तम्हा असंखेज्जलोगपडिभागेण उदीरिज्जमाणदव्वादो जा उदीरणा मा अणुत्तसिद्धा त्ति ण तचिसयं परूवणंतरमाढवेयवमिदि । अत्रेदमाशंक्यते-बिदियद्विदीदो णिरुद्धसंगहकिट्टीए पदेसग्गमोकड्डियूण पढमट्ठिदिं करेमाणो उदयढिदिमादि कादण जाव कर कर्मोदयसे प्रवेश करनेवाला गुणश्रेणिसम्बन्धो गोपुच्छा-द्रव्य तथा इतर गोपुच्छा-द्रव्य असं. ख्यातगणा ही होता है, क्योंकि वहाँ पर स्पष्टरूपसे उस प्रकारके द्रव्यकी उपलब्धि होती है । और इस प्रकारसे उपलब्धि होनेपर इसका क्या कारण है कि इसी स्थान पर ही विशेषरूपसे उदीरणाद्रव्यसे उदयमें प्रविष्ट होने वाला द्रव्य असंख्यातगुणा होता है ऐसी प्ररूपणाको यहाँ आरम्भ किया जा रहा है ऐसी आशंका होनेपर निःशंक करनेके लिए आगेका सूत्र अवतीर्ण हुआ है * उक्त स्थान से पूर्व मी असंख्यात लोक के प्रतिभागसे उदीरणा होती है, यह अनुक्त सिद्ध है। १८४ इसका यह तात्पर्य है कि जिस स्थानमें उदोर्यमाण द्रव्य और उदयमें प्रवेश करनेदव्य असंख्यात समयप्रबद्धप्रमाण होता है वहाँ क्या वह अल्प है और क्या बहत है ? इस बातका ज्ञान करानेके लिये अल्पबहुत्वको प्ररूपणा करनी चाहिये, अन्यथा तद्विषयक विशेषका अर्थात् इन दोनों में क्या अन्तर है इस बातका निर्णय नहीं हो पाता। परन्तु इसके पूर्व असंख्यात लोकके प्रतिभागके अनुसार उदोर्यमाण द्रव्यसे कर्मोदयद्वारा उदयमें प्रवेश करनेवाला द्रव्य असंख्यातगुणा होला है यह बिना विवादके सिद्ध है, क्योंकि उसमें मन्दबुद्धि जीवोंको भी सन्देह नहीं होता, इसलिये असंख्यात लोकके प्रतिभागके अनुसार उदीर्यमाण द्रव्यमेंसे जो उदीरणा होती है वह अनुक्तसिद्ध है, इसलिये तद्विषयक दूसरी प्ररूपणाके आरम्भ करनेको आवश्यकता नहीं है । शंका--यहाँ पर कोई ऐसी आशंका करता है कि द्वितीय स्थितिमेंसे विवक्षित संग्रह कृष्टिके लिये प्रदेशपुजका अपकर्षण करके प्रथम स्थितिको करनेवाला क्षपक उसे उदयस्थितिसे लेकर प्रथम स्थितिकी अन्तिम स्थिति तक असंख्यात श्रेणिरूपसे निक्षिप्त करता है । अब प्रथम समयमें गुणश्रेणिरूपसे निक्षिप्त किए गए प्रदेशपिण्डसे दूसरे समयमें अपकर्षण करके गुणश्रेणीरूपसे निक्षिप्त किया
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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