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________________ केवलिसमुग्धाद] १४९ णाधिक्रियत इति । सा पुनरर्थमार्गणा इत्थमनुगंतव्या इति प्रतिपादयितुकामः सूत्रप्रबंधमुत्तरं प्राह * अंतोमुहुत्ते आउगे सेसे तदो आवज्जिदकरणे कदे तदो केवलिसमुग्घादं करेदि । $ ३२८ केवलणाणमुप्पाइय सत्थाणसजोगिकेवली होदण देसूणपुव्वकोडिमुक्कस्सेण विहरिय तदो अंतोमुहुत्तावसेसे आउगे अधादिकम्माणं ठिदिसमीकरणटुं पुव्वमावज्जिदकरणं णाम किरियंतरमाढवेइ । किमावज्जिदकरण णाम । केवलिसमुग्धादस्स अहिमुहीभावो आवज्जिदकरणमिदि भण्णदे। $ ३२९ तमंतोमुहुत्तमणुपालेदि। अंतोमुहुत्तमावज्जिदकरणेण विणा केवलिसमुग्यादकिरियाए अहिमुहीभावाणुववत्तीओ। ताधेव णामागोदवेदणीयाणं पदेसपिंडमोकड्डियूण उदये पदेसम्गं थोवं देदि, से काले असंखेज्जगुणं । एवं असंखेज्जगुणाए सेढीए णिक्खिमाणो गच्छइ जाव सेससजोगिअद्धादो अजोगिअद्धादो च विसेसाहियभावेण समबट्टिदगुणसेढिसीसयं ति । एदं पुण गुणसेढिसीमयं सत्थाणसजोगिकेवलिणा तदणंतरहेट्ठिमसमये वट्टमाणेण णिक्खित्तगुणसेढिआयामादा संखेज्जगुणहीणमद्धाणं हेट्ठा करेंगे। उसमें यह अर्थमार्गणा अधिकृत है। परन्तु वह अर्थमार्गणा इस प्रकार जाननी चाहिये ऐसा प्रतिपादनकी इच्छा रखनेवाले आचार्य यतिवृषभ इस सूत्रप्रबन्धको कहते हैं * आयुकर्मके अन्तर्मुहूर्त शेष रहनेके बाद आवर्जित करणके किये जानेपर तदनन्तर अरहन्तदेव केवलिसमुद्धात करते हैं । $३२८ केवलज्ञानको उत्पन्न करके तथा स्वस्थानसयोगिकेवली होकर उत्कृष्टसे कुछ कम एक पूर्वकोटि कालतक विहार करके तत्पश्चात् आयुकर्मके अन्तमुहूतं शेष रहनेपर अघातिकर्मोंकी स्थितिको समान करनेकेलिये पहले आवजित-करण नामकी दूसरी क्रियाको आरम्भ करता है। शंका--आवजितकरण क्या है ? समाधान-केवलिसमुद्धातके अभिमुख होना आवर्जितकरण कहा जाता है। १३२९ उसे यह अन्तर्मुहूर्त कालतक पालन करता है, क्योंकि अन्तमुहूर्त कालतक आवजितकरण हुए बिना केवलिसमुद्धातक्रियाका अभिमुखीभाव नहीं बन सकता । उसी कालमें ही नाम, गोत्र और वेदनीय कर्मके प्रदेशपिण्डका अपकर्षण करके उदयमें थोड़े प्रदेशपुंजको देता है। अनन्तर समयमें असंख्यातगुणे प्रदेशपुंजको देता है। इस प्रकार असंख्यातगुणी श्रेणिरूपसे निक्षेप करता हुआ शेष रहे सयोगीके कालसे और अयोगीके कालसे विशेषरूपसे अवस्थित गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होनेतक जाता है। परन्तु यह गुणश्रेणिशीर्ष स्वस्थान सयोगिकेवलीद्वारा उसके अनन्तर अधस्तन समयमें वर्तमान रहते हुए निक्षिप्त किये गये गुणश्रेणि आयामसे संख्यातगुणहीन स्थान जाकर
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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