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________________ १२ धवलासहिदे कसा पाहुडे * तम्हि ठिदिखंडये उक्किरणे तदोपहुडि ठिदिद्यादो । [ चारितक्खवणा मोहणीयस्स रात्थि $ २५ सुगममेदं सुतं । णाणावरणादिकम्माणं पुण ठिदि - अणुभागघादा तो उरिवि पट्टेति चेव, तत्थ पडिबंधाभावादो । * जत्तियं सुहुमसांपराइयद्धाए सेसं तत्तियं मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्म सेसं । ६ २६ चरिमहिदिखंड पिल्लेविदे सुहुमसांपराइद्धसेसमेत्तं चेव मोहणीयस्स ठिदिसंतकम्ममवसि । तं च जहाकममधट्ठिदीए णिज्जरेदि त्ति एवमेत्तिए अत्थविसेसे परूविय समत्ते तदो सुहुमसांपराइयस्स परूवणा समप्पइति वृत्तं होइ । इसके कथनमें कोई विशेषता नहीं है। इस प्रकार इस स्थितिकाण्डकके निर्लेपित हो जाने पर वहांसे लेकर मोहनीय कर्मकी स्थितिघात आदि क्रियाएँ सम्भव नहीं हैं । केवल प्रथम स्थितिकी ही अन्तप्रमाणस्थितियोंकी निर्जरा होती है। इस प्रकार इस अर्थविशेषका प्ररूपण करते हुए आगे सूत्रको कहते हैं * उस स्थितिकाण्डकके उत्कीर्ण होने पर वहाँसे आगे मोहनीय कर्मका स्थितिघात नहीं होता । $ २५ यह सूत्र सुगम है, परन्तु ज्ञानावरणादि कर्मोंके स्थितिकाण्डकघात और अनुभागकाण्डकघात इससे आगे भी प्रवृत्त रहते ही हैं, क्योंकि उनके वैसा होनेमें प्रतिबन्धका अभाव है । * इस अवस्था में सूक्ष्मसाम्परायिकका जितना काल शेष रहता है उतने ही मोहनीय कर्मका स्थिति - सत्कर्म शेष रहता है । § २६ अन्तिम स्थितिकाण्डकके निर्लेपित हो जाने पर सूक्ष्मसाम्परायिकका जितना क शेष रहता है उतना ही मोहनीय कर्मका स्थिति सत्कर्म-अवशिष्ट रहता है और वह क्रमसे अधःस्थिति के द्वारा निर्जरित होता है। इस प्रकार इतने अर्थ विशेषकी प्ररूपणा करके समाप्त होने पर उसके बाद सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानको प्ररूपणा समाप्त होती है । यह उक्त कथनका तात्पर्य है । विशेषार्थ - - सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपक अपने अन्तिम समयमें चारित्रमोहनीय कर्मका समूल अभाव करके अगले समय में क्षोणमोह गुणस्थानमें प्रवेश करता है, इसलिये वह चारित्रमोहनीय कर्मके अन्तिम स्थिति-काण्डकमें जिन द्रव्योंको सम्मिलित कर उस स्थिति काण्डकका फालिक्रमसे पतन करता है उनका विवरण इस प्रकार है - ( १ ) दसवें गुणस्थानके प्रारम्भमें जिस गुणश्रेणी की रचनाका प्रारम्भ किया था उसका आयाम दसवें गुणस्थानके कालसे कुछ अधिक होता है, इसलिये १. ता० प्रती उवरीव इति पाठः ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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