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________________ गा० २०६] ६ २७ एवमेत्तिएण पबंधेण सहुमसांपराइय-गुणट्ठाणपज्जंत किट्टीवेदगस्स परूवणं समाणिय संपहि एम्हि चेव किट्टीवेदगद्धाए पडिबद्धाणं सुत्तगाहाणं पुव्वमविहासिदाणमेण्हिमवयारं कुणमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ * इदाणिं सेसाणं गाहाणं सुत्तफासो काययो । $ २८ को सुत्तफासो णाम ? सूत्रस्य स्पर्शः सूत्रस्पर्शः । पुव्वमत्थमुहेण विहासिदाणं गाहासुत्ताणमेण्हिमुच्चारणपुरस्सरमवयवत्थपरामरसो सुत्तफासो त्ति भणिदं होदि । मो इदाणिं कायन्वो त्ति सुत्तत्थो । एत्थ सेसग्गहणेण किट्टीसु पडिबद्धाणमेक्कारसण्हं मूलगाहाणं मज्झे जाओ पुत्वं थवणिञ्जभावेण ठविदाओ दो मूलगाहाओ तासिं गहणं कायव्वं, उपर्युक्तादन्यच्छेशः इति वचनात् । * तत्थ ताव दसमी मलगाहा । वह क्षपक उस गुणश्रेणि-निक्षेपके सबसे आगेके भागसे संख्यातवें भागके द्रव्यको उस अन्तिम स्थिति-काण्डकमें सम्मिलित करता है, (२) वह झपक इसके साथ ही उस गुणश्रेणिशीर्षसे मोहनीय कर्मकी जो स्थितियाँ संख्यातगुणी रहती हैं उन्हें भी उस स्थितिकाण्डक रूपसे ग्रहण करता है। इस प्रकार यह क्षपक इस गुणस्थानमें जिस अन्तिम स्थिति-काण्डककी रचना करता है। उसका फालिक्रमसे पतन करके क्रमसे प्रथमस्थितिमें स्थित अन्तर्मुहूर्तप्रमाण स्थितियोंकी अधःस्थितिके द्वारा निर्जरा करके यह क्षीणमोह गुणस्थानको प्राप्त होता है । ६ २७ इस प्रकार इतने प्रबन्धके द्वारा सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थान तक कृष्टिवेदककी प्ररूपणा समाप्त करके अब इसो कृष्टिवेदकके कालसे सम्बन्ध रखने वाली तथा पहले विभाषित नहीं की गई सूत्रगाथाओंका इस समय अवतार करते हुए आगके सूत्रको कहते हैं * इस समय शेष गाथाओंका सूत्ररूपसे स्पश करना चाहिये । ६२८ शंका-सूत्रस्पर्श किसे कहते हैं ? समाधान--सत्रका स्पर्श सत्रस्पर्श है। पहले अर्थ-मखसे विशेषरूपसे व्याख्यात गाथासत्रोके इस समय उच्चारणपूर्वक गाथासूत्रके प्रत्येक पदका परामर्श (स्पष्टोकरण) करना सत्रस्पर्श कहलाता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है । उसे इस समय करना चाहिये । यह उक्त सूत्रका अथ है। यहाँ पर उक्त सूत्रमें 'शेष' पदके ग्रहण करनेसे कृष्टियोंके विषयमें सम्बन्ध रखनवाली ग्यारह मूलगाथाओंके मध्य स्थगित करनेके अभिप्रायसे जो दो मूल गाथाएं स्थगित की गई थीं उनको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि पूर्वाक्तसे अन्य शेष कहलाता है। ऐसा नीतिका वचन है । * उनमें सर्वप्रथम यह दसवीं मूल-गाथा है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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