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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे चारित्तक्खवणां $ २९ तत्थ ताव दसमी मूलगाहा समुक्कितियव्वा त्ति वृत्तं होइ । * (१५४) किट्टीकदम्मि कम्मे के बंधदि के व वेदयदि अंसे । संकामेदि च के के केसु असंकामगो होदि ॥२०७।। ६ ३० एसा दसमी मूलगाहा पुन्वद्धेण किट्टीवेदगस्स पडिणियदुद्दे से वट्टमाणस्स ट्ठिदिअणुभागबंधपमाणावहारणटुं, तस्सेव तदवत्थाए अणुभागोदयविसेसगवेसणटुं च समोइण्णा । पुणो पच्छद्धेण वि तदवत्थाए तस्स पयडि-द्विदिअणुभाग-पदेससंकमो केरिसो होदण पयदि, किमविसेसेण, आहो अस्थि को वि विसेसो त्ति इममत्थविसेसं पदुप्पाएदुमोइण्णा । ३१ तं जहा 'किट्टीकदम्मि कम्मे पुवमकिट्टीसरूवे मोहणीयकम्मे गिरवसेसं किट्टीसरूवेण परिण मिदे, तदो किट्टीवेदगभावे पयट्टमाणो 'के बंधदि के व वेदयदि अंसे' केसि कम्माणं, किं पमाणाओ द्विदीओ अणुभागे वा बंधदि बेदेदि त्ति वा पुच्छिदं होदि । एवं विहाणं पुच्छाणं विसेसणिण्णयमुवरि भासगाहासंबंधेण वत्तइस्सामो गाहापच्छद्धे “के के' कम्मसे पयडिआदिमेयभिण्णे संकामेदि । 'केस वा अंसेस $ २९ उन दो गाथाओंमें सर्वप्रथम दसवीं मूलगाथाकी समुत्कीर्तना करनी चाहिये यह उक्त कथनका तात्पर्य है। * (१५४) मोहनीय कर्मके कृष्टिरूपसे परिणमा देनेपर किन-किन कर्मों को कितने प्रमाणमें बांधता है, किन-किन कर्मोंको कितने प्रमाणमें वेदता है, किन-किन कर्मोंका संक्रमण करता है और किन-किन कर्मों के विषयमें असंक्रामक होता है ॥२०७॥ ३० यह दसवीं मूलगाथा है जो अपने पूर्वाद्ध द्वारा प्रतिनियत स्थानमें विद्यमान कृष्टिवेदकके स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके प्रमाणका अवधारण करनेके लिये तथा उसीके उस अवस्थामें अनुभागके उदय-विशेषका अनुसंधान करनेके लिये अवतरित हुई है। पुनः पश्चिमाद्वारा भी उस अवस्थामें उसके प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेशोंका संक्रम किस प्रकारका होकर प्रवत्त होता है ? क्या विशेषताके बिना प्रवत्त होता है या किसी प्रकारको विशेषता भी है, इस प्रकार इस अर्थविशेषका प्रतिपादन करनेके लिये अवतरित हुई है। ६३१ यथा-'किट्टीकदम्मि कम्मे' पहले आकृष्टिस्वरूप मोहनीय कर्मके कुछ शेष छोड़े बिना पूरेके पूरे कृष्टिस्वरूपसे परिणमित होने पर, तदनन्तर कृष्टियोंके वेदकपनेसे प्रवृत्तमान यह क्षपक जीव 'के बन्धदि के व वेदयदि अंसे' किन कर्मोके कितने प्रमाणवाली स्थितियों और अनुभागोंको बाँधता है और वेदता है, यह पच्छा की गई है। इस प्रकारकी पच्छाओंका विशेष निर्णय आगे भाष्यगाथाओंके सम्बन्धसे बतलावेंगे तथा गाथाके उत्तराद्ध में 'के के' किन किन कर्मों के प्रकृति आदिके भेदसे १. परिणामिदे प्रे० का० ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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