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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा ६१५३ एसा तदियभासगाहा पुव्वद्धण द्विदीहिं अणुभागेहिं वा ओकडिदाणं कम्मपदेमाणमोकड्डिदाणंतरसमये चेव किमुदीरणाए अस्थि संभवो आहो णत्थि त्ति एवंविहस्स अत्थविसेसस्स पुच्छादुवारेण णिण्णयविहाणट्ठमोइण्णा। पच्छद्धेण च तहोदीरिज्जमाणाणं तेसिं पदेसग्गाणं किमेयवग्गणायारेण परिणमिय सव्वेसि सरिसभावेणुदीरणा पयदि त्ति आहो णाणावग्गणसरूवेण विसरिसभावेणदीरणापरिणामो त्ति एदस्स अत्थविसेसस्स फुडीकरणट्ठमोइण्णा त्ति दट्ठव्या । एत्थ गाहापुव्वद्ध अवयवत्थपरूवणा सुगमा। पच्छद्ध एवं पुच्छाहिसंबंधो कायव्यो-'ओकहिदे च पुत्वं' अणंतरपुविल्लसमये ओकडिदे पदेसग्गे पुणो से काले उदीरेमाणो कि सरिसं पवेसेदि आहो असरिसभावेण पवेसेदि त्ति । १५४ एत्थ सरिसासरिसपदाणमत्थविणिण्णयमुवरि चुण्णिसुत्तसंबंधेणेव कस्सामो । तदो किट्टीखवगो जाणि कम्माणि द्विदीहिं वा अणुभागेहिं वा ओकडदि से काले किं पुण ताणि ओकट्टियूण उदयं पवेसेदि आहोण पवेसेदि ? पवेसेमाणो च अणंतरपुन्विल्लसमयम्मि ओकड्डिदाणि ताणि किमणुभागेण सरिसाणि पवेसेदि आहो विसरिसाणि त्ति एसो एत्थ सुत्तत्थसंगहो । संपहि एवमेदीए गाहाए पुच्छिदत्थविसये णिच्छयजणण मुवरिमं विहासागंथमाढवेइ-- ६१५३ यह तीसरी भाष्यगाथा अपने पूर्वार्धके द्वारा स्थितियों और अनुभागोंकी अपेक्षा कर्मप्रदेशोंको अनन्तर समयमें ही क्या उदीरणा सम्भव है या उदीरणा सम्भव नहीं है ? इस प्रकारके अर्थविशेषका पृच्छा द्वारा निर्णयका कथन करनेके लिये अवतरित हुई है तथा उत्तरार्ध द्वारा उस प्रकार से उदीरित होनेवाले उन प्रदेशोंका क्या एक वर्गणारूपसे परिणमन करके सभी की सदृशरूपसे उदीरणा प्रवृत्त होती है या नाना वर्गणारूपसे (परिणमन करके) विसदृशरूपसे उदोरणापरिणाम होता है ? इस प्रकार इस अर्थविशेषका स्पष्टीकरण करनेके लिये [यह गाथा] अवतरित हुई है, ऐसा यहाँ जानना चाहिये । यहाँ इस गाथाके पूर्वार्धमें आये हुए अवयवोंके अर्थको प्ररूपणा सुगम है। उत्तरा, में पृच्छाका इस प्रकार सम्बन्ध करना चाहिये-'ओकड्डिदे च पुव्वं' अर्थात् जिन प्रदेशोंका अनन्तर पूर्व समयमें अपकर्षण किया था उन अपकर्षित कर्मप्रदेशोंकी पुनः तदनन्तर समयमें उदीरणा करनेवाला जीव उनको क्या सदृशरूपसे प्रवेश कराता है या असदृशरूपसे प्रवेश कराता है ? ६१५४ यहाँपर सदृश और असदश पदोंका निर्णय आगे चूणिसूत्रके सम्बन्धसे ही करेंगे। इसलिये कृष्टियोंकी क्षपणा करनेवाला जीव जिन कर्मोंको स्थितियों और अनुभागोंके द्वारा अपकर्षित करता है क्या तदनन्तर समयमें पुनः उनका अपकर्षण करके उनको उदयमें प्रवेश करता है या प्रवेश नहीं करता है ? और प्रवेश कराता हुआ अनन्तर पूर्व समयमें क्या अपकर्षित किये गये उन कर्मपरमाणुओंको क्या अनुभागके द्वारा सदृश हो प्रवेश कराता है या क्या विसदृश उन कर्म परमाणुओंको प्रवेश कराता है यह यहाँ सूत्रका समुच्चयरूप अर्थ है । इस प्रकार इस गाथा द्वारा पूछे गये अर्थके विषयमें निर्णय करनेके लिये आगेके विभाषाग्रन्थको आरम्भ करते हैं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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