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________________ गा० २२०-२२१ ] ६३ * किं सव्वे ट्ठिदिविसेसे संकामेदि उदीरेदि वा, आहो ए वत्तव्वं । $ १४८ सुगमं । * आवलियपविद्धं मोत्तृण सेसा सव्वाओ हिदी संकामेदि उदीरेदि च । १४९ सुगमं । * जं किहिं वेदेदि तिस्से मज्झिमकिट्टीओ उदीरेदि । $ १५० यत्थमेदं पित्तं । एवं विदियभासगाहाए अत्थविहासा समत्ता | * एतो तदियार भासगाहाए समुत्तिणा । $ १५१ सुगमं । * जहाँ । $ १५२ सुगमं । * (१६८) ओकड्डदि जे अंसे से काले किष्णु ते पवेसेदि । कट्टिदे च पुव्वं सरिसमसरिसे पवेसेदि ॥ २२१ ॥ * क्या सभी स्थितिविशेषको संक्रमित और उदीरित करता है अथवा नहीं ? इसे कहना चाहिये । १४८ यह सूत्र सुगम है । * उदयावलिमें प्रविष्ट हुई स्थितिको छोड़कर शेष सब स्थितियोंको संक्रमित करता है और उदीरित करता है । $ १४९ यह सूत्र सुगम है । * तथा वह क्षपक जिस संग्रह कृष्टिका वेदन करता है उसकी मध्यम कृष्टियोंको उदीरित करता है । $ १५० यह सूत्र गतार्थ है । इस प्रकार दूसरी भाष्यगाथाको अर्थविभाषा समाप्त हुई । * यहाँ से आगे अब तीसरी भाष्यगाथाकी समुत्कीर्तना करते हैं । $ १५१ यह सूत्र सुगम है । * जैसे । $ १५२ यह सूत्र सुगम है । * (१६८ ) यह क्षपक जिन कर्मप्रदेशोंका अपकर्षण करता है वह क्या उन कर्मप्रदेशोंको तदनन्तर समय में उदीरणाद्वारा प्रवेशक होता है ? जिन कर्मप्रदेशोंका पहले समय में अपकर्षण किया है उनका सदृश अथवा असदृशरूपसे उदीरणा द्वारा प्रवेशक होता है || २२१॥
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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