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________________ गा० २३३ ] १२९ ९ ३०० एसा अट्ठावीसदिमा मूलगाहाचरितमोहणीयपयडीणं परिवाडीए खवणाविहिं जाणावेदि । तं कधं ? 'संक्रामण' एवं भणिदे अंतरकरणं काढूण जाव छण्णोकसाए खवेदि ताव एदिस्से अवत्थाए संकामणा त्ति ववएसो, णव सयवेदादिपरिवाडीए णवण्हं णोकसायाणमेत्थ संकामयत्तदंसणादो । 'ओवट्टणा' एवं भणिदे अस्सकण्णकरणद्धा किट्टीकरणद्धा च घेत्तव्वा, तत्थ चदुसंजलणाणुभागस्स अस्सकण्णायणोवणदंसणादो । S३०१ 'किट्टीखवणा य' एवं भणिदे किट्टीवेदगद्धा सुहुमसां पराइयगुणट्ठाणपज्जता णिद्दिट्टा त्ति दट्ठव्वा, तत्थ जहाकम कोहादिकिट्टीणं खवणदंसणादो । 'खीणमोहंते' एवं भणिदे खीणकसायगुणट्ठाणमवहिं काढूण तदो हेट्ठा चेव चारित्तमोहणी - यस खवणा पयदि, ण तत्तो परमिदि वृत्तं होइ । एवमेदेसु अवत्थंतरेसु संकामणो कट्टवद्ध सणदेसु खीणकसायद्धापज्जतेषु 'खवणाए' मोहणीयस्स खवणकिरियाए 'आणुपुत्री' परिवाडी बोद्धव्वा सि । एवमेसा संगहण मूलगा हा संखेवेण मोहणीयस्स खवणपरिवादि परूवेदि त्ति घेत्तव्वं । एदिस्से वि णत्थि भासगाहा, सुगमत्थपडि बद्धाए एदिस्से मासगाहाहिं विणा चेव अत्थणिण्णयोववत्तदो । अदो S३०० यह अट्ठाइसवीं मूल सूत्रगाथा चरित्रमोहनीयसम्बन्धी प्रकृतियोंकी परिपाटीक्रमसे क्षपणाविधिक ज्ञान कराती है। शंका- वह कैसे ? " समाधान - कामण' ऐसा कहने पर अन्तरकरण करके जब तक छह नोकषायोंकी क्षपणा करता है तब तक इस अवस्थाको 'संक्रामणा' यह संज्ञा है, क्योंकि नपुंसक वेद आदि परिपाटीक्रमसे नौ नोकषायोंका यहाँ पर अन्य प्रकृतियोंमें संक्रम करानेरूप कार्य देखा जाता है । 'ओवदृणा' ऐसा कहनेपर अश्वकर्णकरणद्धा और कृष्टिकरणद्धा इनको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें चार संज्वलनोंके अनुभागकी अश्वकर्णकरणरूपसे अपवर्तना देखी जाती है । $ ३०१ किट्टीखवणा य' ऐसा कहने पर सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्त तक कृष्टिवेदककाल जानना चाहिये, क्योंकि उस अवस्थामें यथाक्रम क्रोधादि कृष्टियों की क्षपणा देखी जाती है । 'खीणमोहंते' ऐसा कहने पर क्षीणकषाय गुणस्थानको मर्यादा कर उससे पहले ही चारित्रमोहनीकी क्षपणा प्रवृत्त होती है, उससे आगे नहीं, यह उक्त कथनका तात्पर्य है । इस प्रकार इन अवस्थाओं के मध्य संक्रामणा, अपवर्तना और कृष्टिक्षपणद्धा संज्ञक कार्योंके होने पर क्षीणकषायके काल अन्त होनेके पूर्व तक अर्थात् दसवें गुणस्थान तक 'खवणाए' अर्थात् मोहनीय कर्मको क्षपणारूप क्रियाकी 'आणुपुवी' अर्थात् परिपाटो जाननी चाहिये । इस प्रकार यह संग्रहणी मूल गाथा संक्षेपसे मोहनीय कर्मकी क्षपणासम्बन्धी परिपाटीकी प्ररूपणा करती है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिये । इस मूलगा था की भी भाष्यगाथा नहीं है, क्योंकि सुगम अर्थसे सम्बन्ध रखनेवाली इस मूलगाथाका भाष्यगाथा के बिना ही अर्थका निर्णय बन जाता है । और इसीलिये ही चूर्णिसूत्रकारने इन दो मूल १७
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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