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________________ गा० २११] आवरणं च देसघादि वेदयदि। अध एकस्स वि अक्खरस्स ण गदो खोवसमो तदो सुद-मदि-आवरणाणि सव्वघादीणि वेदयदि । $ ६२ एत्थ 'जई वि सव्वेसिमक्ख राणं खओवसमो गदो त्ति भणिदे सयलसुदणाणदव्व-भावक्खराणं चदुसट्ठिअक्खरसंजोगजणिदसरूवेणेगट्ठिवग्गपमाणाणं सव्वेसिमेव जइ खओवसमो जादो तो सयलसुदधारओ खवगो चदुरमलबुद्धिविसेससंपण्णो सुदणाणावरणीयं मदिणाणावरणीयं च देसघादिसरूवं वेदेदि, तत्थ तदुत्तरपयडीणं णिरवसेसमेव देसघादिसरूवेण परिणदत्तादो त्ति वुत्तं होइ। $ ६३ 'अध एक्कस्स वि अक्खरस्स०' एवं भणिदे जइ सम्वेसिमेव सुदणाणक्खराणमेगक्खरेणूणाणं खओवसमो संजादो तो वि दोण्हमेदासि पयडीणमणुभागं सव्वघादिं चैव वेदेदि ति भणिदं होदि, तत्थ चरिमक्खरावरणस्स खओवसमाभावेण सव्वधादित्तदसणादो। __६ ६४ एवमंतराइयस्स वि जइ अधिओ खओवसमो जादो तो उक्कस्समणबलादिलद्धिपरिणदो तदणुभागं देसघादिसरूवं वेदेदि चेव । जइ बहुगो खओवसमो ण संपत्ते तो तं सव्वघादिं चैव वेदेदि त्ति वत्तव्वं । संपहि इममेवत्थमुवसंहारमुहेण परूवेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ। * अब यदि एक भी अक्षरका क्षयोपशम नहीं हुआ है तब यह क्षपक मतिज्ञानावरण और श्रुतज्ञानावरण को सर्वघातिरूप वेदन करता है। ६६२ यहाँ पर यद्यपि सब अक्षरोंका क्षयोपशम हो गया है ऐसा कहने पर चौसठ अक्षरों के संयोग से उत्पन्नस्वरूप होने से एक ही वर्गप्रमाण सम्पूर्ण श्रुतज्ञानके समस्त द्रव्यभावरूप अक्षरोंका यदि क्षयोपशम हो गया है तो वह सकल श्रतधारक क्षपक तथा चार अमल बुद्धिविशेषसे सम्पन्न वह क्षपक श्रुतज्ञानावरणीय और मतिज्ञानावरणीय प्रकृतियोंको देशघातीरूप वेदता है, क्योंकि वहाँ उस जीवके उन दोनों कर्मोंकी उत्तरप्रकृतियोंका पूरी तरह से देशघातीरूप से परिणमन हो गया है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। ६६३ 'अध एक्कस्स वि अक्खरस्स०' ऐसा कहने पर यदि एक भी अक्षर से कम सभी श्रुतज्ञानसम्बन्धी अक्षरोंका क्षयोपशम हो गया है तो भी इन दोनों प्रकृतियों के अनुभाग को सर्वघातिरूपसे हो वेदता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है, क्योंकि उप जीवके अन्तिम अक्षरावरणके क्षयोपशमका अभाव होने से उसके सर्वघातिपना उदयमें देखा जाता है। ६६४ इसी प्रकार अन्तराय कर्म का भी यदि सबसे अधिक क्षयोपशम हो गया है तो उत्कृष्ट मनोबल आदि लब्धिसे परिणत वह क्षपक जीव उसके अनुभागको देशघातिरूप हो वेदता है । यदि बहुत क्षयोपशम नहीं प्राप्त हुआ है तो वह उस अन्तराय कर्मको सर्वघातिरूप से ही वेदता है ऐसा यहां कहना चाहिये । अब इसी अर्थका उपसंहार द्वारा प्ररूपण करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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