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________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा ___* एवमेदेसिं तिएहं घादिकम्माणं जासिं पयडीणं खोवसमो गदो तोसिं पयडीणं देसघादिउदयो । जासिं पयडीणं खोवसमो ण गदो तासिं पयडीणं सव्वघादिउदो । ६५ गयत्थमेदं सूत्तं । एवमेत्तिएण पबंधेण चउत्थभासगाहाए अत्थविहासणं समाणिय संपहि जहावसरपत्ताए पंचमभासगाहाए अत्थविहासणडमुवरिमं सुत्तपबंधमाह * इस प्रकार इन तीन पातिकर्मसम्बन्धी जिन प्रकृतियोंका क्षयोपशम हो गया है उन प्रकृतियोंका देशघातिरूपसे उदय होता है तथा जिन प्रकृतियोंका क्षयोपशम नहीं हुआ है उन प्रकृतियोंका सर्वघातिरूपसे उदय होता है । ६५ यह सूत्र गतार्थ है। विशेषार्थे--यह सामान्य वचन है कि क्षपकश्रोणिपर आरोहण करनेवाला श्रुतकेवली होता है, पर इस वचनका अपवाद भी पाया जाता है। इसका उल्लेख चूणिसूत्रके आधारपर वोरसेन स्वामीने किया है । चूर्णिसूत्रमें यह वचन उपलब्ध होता है कि श्रुतज्ञानके एक भी अक्षरका आवरणकर्म यदि शेष है और आवरणका यदि क्षयोपशम नहीं हुआ है तो उतने अंशमें वह श्रुतज्ञानावरणके सर्वघातिपनेका वेदन करता है । यही बात मतिज्ञानावरणके सम्बन्धमें भी समझ लेनी चाहिए । जिस जीवके श्रुतज्ञानावरणका पूरा क्षयोपशम होता है उसके मतिज्ञानावरणका भी पूरा क्षयोपशमं होता है। श्रुतज्ञानावरणके पूरे क्षयोपशमके पाये जाने से जहाँ यह क्षपकजीव श्रुतकेवली होता है वहीं मतिज्ञानावरणके पूरे क्षयोपशमके पाये जाने से उसके कोष्ठबुद्धि, बीजबुद्धि, संभिन्नसंधोत्रबुद्धि और पदानुसारित्वबुद्धि ये चार बुद्धियाँ अवश्य पाई जाती हैं। ऐसे जीव मतिज्ञान और श्रुतज्ञानकी अपेक्षा पूरे लब्धिसम्पन्न होते हैं, क्योंकि उनके मात्र देशघाति अनुभाग का उदय पाया जाता है । किन्तु जिनके श्रुतज्ञानमें एक अक्षरकी भी कमी पायी जाति है उनके मतिज्ञान भी उतने अंशमें कम होता है, क्योंकि उनके उतने अंश में सर्वघाति अनुभाग कर्म का उदय नियम से पाया जाता है । यह मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके सम्बन्धको व्यवस्था है। उक्त भाष्य गाथामें आगे हुए 'च' पदसे यह भी ज्ञात होता है कि जो व्यवस्था मतिज्ञान और श्रुतज्ञानके सम्बन्धमें है वही व्यवस्था चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शनके सम्बन्धमें भी जान लेना चाहिये । अर्थात जिन जीवोंके चक्षदर्शनावरण और अचक्षदर्शनावरणका पूरा क्षयोपशम हुआ है, वे लब्धिसम्पन्न होते हैं तथा जिन जीवोंके इन दोनों कर्मोंका पूरा क्षयोपशम नहीं हुआ है वह जितने अंशमें कम होता है वे उतने अंशमें लब्धिसम्पन्न नहीं होते हैं। यहाँ मात्र देशघाति कर्मके उदयकी अर्थात् क्षयोपशमको लब्धि संज्ञा है और जिस कर्मका जितने अंशमें क्षयोपशम न होकर सर्वघाति अनुभागका उदय शेष है उसकी अलब्धि संज्ञा है। ___इसी प्रकार क्षपकश्रेणिसे जिन जीवोंको अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और अवधिदर्शन पूरा पाया जाता है उनके मात्र देशघाति कमका उदय होने से वे लब्धिसम्पन्न होते हैं और जिनके उक्त कर्मोका अंशतः या समग्ररूपसे सर्वघाति अनुभागका उदय पाया जाता है वे अंशतः या पूरी तरहसे अलब्धिसम्पन्न होते हैं। इस प्रकार इतने प्रबन्ध द्वारा चौथी भाष्य गाथा के अर्थ की विभाषा समाप्त करके अब यथावसर प्राप्त पांचवीं भाष्य गाथा के अर्थ की विभाषा करने के लिए आगे के सूत्रप्रबन्ध को कहते है
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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