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________________ २३ आयुके अन्तर्मुहूर्त शेष रहने पर आवर्जितकरण करता है। केवलिसमुद्धातके सन्मुख होनेका नाम ही आवजितकरण है । इसका फल अघातिकर्मोंकी स्थितिको एकसमान करना है। इसो समय नामकर्म, गोत्रकर्म और वेदनीयकर्मके प्रदेशपिण्डका क्रमसे अपकर्षण कर यह जीव सयोगकेवलोके शेष बचे काल और अयोगीकेवलोके कालसे कुछ अधिक कालके बराबर गुणश्रेणिशीर्षके प्राप्त होने तक जाता है। परन्तु वह गुणश्रेणिशीर्ष स्वस्थान सयोगकेवलीकेद्वारा अनन्तर अधस्तन समयमें विद्यमान रहते हुए निक्षिप्त किये गए गुणश्रेणियामसे संख्यातगुणहोन स्थान जाकर अवस्थित है, ऐसा यहाँ समझना चाहिए। इतना अवश्य है कि प्रदेशपुंजकी अपेक्षा उससे यह असंख्यातगुण प्रदेशविन्याससे अवस्थित रहता है । इसका ज्ञान ग्यारह गुणश्रेणिके निरूपण करनेवाले गाथासूत्रसे जाना जाता है। उस गुणश्रेणिशीर्षसे उपरिम अनन्तर स्थितिमें असंख्यातगणे प्रदेशपूजको निक्षिप्त करता है। उसके बाद ऊपर सर्वत्र विशेषहीन प्रदेशपजको ही निक्षिप्त करता है। इस प्रकार आजितकरणके कालके भीतर सर्वत्र गुणश्रेणिनिक्षेप जानना चाहिये। इतना अवश्य है कि यह अवस्थित आयामवाला होता है। स्वस्थान केवलीके यह आवर्जितकरणके अभिमुख हुए केवलोके वे अन्तरंग परिणामविशेष अन्तमुहूर्तप्रमाण आयुकर्मकी अपेक्षासहित होते हैं, इसलिये यहाँ पर गुणश्रेणिनिक्षेपके विसदृश होनेमें कोई बाधा नहीं आती। __ इस प्रकार आवजित करणके कालके समाप्त होनेपर अनन्तर समयमें केवलिसमद्धात करता है। उसमें जीवके प्रदेश फैलते हैं । उसका फल अघाति कर्मोकी स्थितिको समान करना है । इस समुद्धातमें लोकपूरण करने में चार समय लगते हैं और चार समय जीवप्रदेशोंके शरीरप्रमाण होनेमें लगते हैं। प्रथम चार समय तक इस जीवके अप्रशस्त कर्मप्रदेशोंके अनुभागकी अनुसमय अपवर्तना और एक समयवाला स्थितिकाण्डकघात होता है। यहाँ जो कार्यविशेष होता है वह आगमसे जान लेना चाहिये ।। ___ इतना विशेष है कि लोकपूरण समुद्धातके बाद स्थितिकाण्डकका और अनुभागकाण्डकका उत्कीरणकाल अन्तमुहूर्तप्रमाण होता है। इसके बाद योगनिरोध करता है। पहले बादर काययोगद्वारा बादर मनोयोग, वचनयोग, उच्छवास-निश्वास और काययोगका निरोध करके इसी विधिसे सूक्ष्म काययोगद्वारा सूक्ष्म मनोयोग, वचनयोग, उच्छ्वास-निश्वास और काययोगका निरोध करता हुआ इन करणोंको करता है। प्रथम समयमें पूर्व स्पर्धकोंके नीचे अपूर्व स्पर्धकोंको करता है । उस कालमें जीवप्रदेशोंका भी अपकर्षण करता है। इसके बाद अन्तमुहर्त काल तक कृष्टियोंको करता है। उनको करनेका काल अन्तमुहूर्त प्रमाण है। उस कालमें जीवप्रदेशोंका भी अपकर्षण करता जाता है। उसके बाद पूर्वस्पर्धकों और अपूर्वस्पर्धकोंका नाशकर अन्तमुहूर्तकाल तक कृष्टिगत योगवाला होता है। उस कालमें सूक्ष्म क्रिया-अप्रतिपाती ध्यानका अधिकारी होता है । उसके बाद योगका निरोध करके अन्तमुहूर्तकाल तक शैलेश पदको प्राप्त करता है। तेरहवें गुणस्थान तक शुक्ल लेश्याका व्यवहार होता है। चौदहवें गुणस्थानमें लेश्याका व्यवहार समाप्त हो जाता है। इसके समुच्छिन्नक्रिया अनिवृत्तिरूप चौथा शुक्लध्यान होता है। यहाँ ध्यानके व्यवहार करनेका कारण कर्मोंका क्षय करना है। इस पदके पूरे होने पर यह जीव सब कर्मोंसे मुक्त होकर एक समयमें सिद्ध पदका अधिकारी होता है। इस प्रकार कर्मोंके क्षय करनेकी विधि समाप्त होती है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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