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________________ सिरि-जय सहाइरियविरइय-चुण्णिसुत्तसमणिदं सिरि-भगवंतगुणहर भडारओवइट्ठ कसायपाहुडं तस्स सिरि-वीरसेनाइरिय विरइया टीका जयधवला तत्थ चारितखवणा णाम सोड समो अत्थाहियारो $ १ सुगमं । * एस कमो ताव जाव सुहुमसांपराइयम्स पढमट्ठिदिखंडयं चरिमसमय णिवलेविदं ति * १ यह सूत्र सुगम है । विशेषार्थ — सूक्ष्मसाम्परायिक क्षपकके प्रथम समय में जो प्रदेशपुंज दिखाई देता है उसकी श्रेणि प्ररूपणा करनेके प्रसंगसे उदयमें जितना प्रदेशपुंज दिखाई देता है दूसरे समय में उससे असंख्यातगुणा प्रदेशपु ́ज दिखाई देता है, तीसरे समय में उससे असंख्यातगुणा प्रदेशपुरंज दिखाई देता है । इस प्रकार यह क्रम गुणश्रेणिशोर्ष तक प्राप्त होकर उससे ऊपर एक स्थिति के प्राप्त होने तक जानना चाहिये। उसके बाद अन्तिम अन्तरस्थिति के प्राप्त होने तक उत्तरोत्तर विशेष हीन होता हुआ प्रदेशपु ंज दिखाई देता है । उससे आगे एक स्थिति में असंख्यातगुणा प्रदेशपु' दिखाई देकर उससे आगे उत्तरोत्तर विशेष हीन प्रदेशपुंज दिखाई देता है । अन्तमें इसी अर्थ को स्पष्ट करनेवाले सूत्र का उल्लेख करके 'यह चूर्णिसूत्र सुगम है' यह लिखा है उक्त कथन का भाव है। ऐसा यहाँ समझना चाहिये । इस प्रकार यह * इस प्रकार यह क्रम तब तक चलता रहता है जब तक सूक्ष्मसाम्परायिक के प्रथम स्थितिकाण्डक के निर्लेपित ( समाप्त ) होनेका अन्तिम समय नहीं प्राप्त होता है ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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