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श्री बालब्रह्मचारी हीरालाल खुशालचन्द्र दोशी
भा० दि० जैन संघ के संस्थापक प्रधानमंत्री स्व० शार्दूल पंडित राजेन्द्र 'कुमार जी द्वारा आरब्ध जयधवला प्रकाशन की पूर्णता (अर्थात् सोलहवें खण्ड में हमारे आर्थिक सहयोगी बालब्रह्मचारी श्री हीरालाल खुशालचन्द्र दोशी का जन्म वारबरी ( फलटन ) के श्रीमान् सेठ रामचन्द्र रेवाजी दोशी के धार्मिक एवं उदार परिवार में २३-८-१९२८ को सेठ खुशालचन्द्र के पुत्र रूप से हुआ था । यह परिवार दि० जैन मूलसंधी, सरस्वती गच्छी एवं बलात्कार गणी बीसाहूमड़ कुलीन मंत्रेश्वर गोत्री था । फलतः हीरालाल जी को बालहिते व्रत-शील से चाव था । इनके सहोदर फूलचन्द तथा सहोदराएं सो० सोनूबाई कान्तिलाल गांधी (लसुर्डे) तथा सौ० मथुराबाई रतनचन्द दोशी (मांडवी) को भी श्रावक के रत्नत्रय ( देवदर्शन, जलगालन तथा निशिभोजनत्याग ) माता माणिकबाई दूध के साथ मिले थे ।
तत्कालीन वाणिज्य प्रधान कुलों की परम्परा के अनुसार हीरालाल जी की लौकिक शिक्षा सातवीं कक्षा तक ही हुई थी किन्तु फलटन की पाठशाला की धार्मिक शिक्षा का ओंकार ऐसा हुआ था कि वह कभी समाप्त ही नहीं हुई । स्वाध्याय इनका स्वभाव बन गया । तथा 'णाणं पयासयं' भावना का ही यह सुफल है कि उन्होंने पेज्जदोसपाहुड़ की पूर्णता के लिए सानन्द अर्थभार उठाया है । ज्ञानाराधक एवं निसर्गज विरत हीरालाल जी ने सोलह वर्ष की वयमें ही श्री १०८ नेमिसागर महाराज का समागम प्राप्त होते ही विधिवत् अष्ट मूलगुण ग्रहण किये थे तथा ६ वर्ष बाद (वि० नि० २४७६) धर्मसागर महासागर से दर्शन प्रतिमा की प्रतिज्ञा की थी । पूर्ण वयस्क हो जाने पर पितरों के आग्रह करने पर भी आपने विवाह को टाला और अपने आपको पुंवेदके आक्रमणों से बचा कर चलते रहे । तथा दो वर्ष बाद ( वी० नि० २४७८) युगाचार्य श्री १०८ शान्तिसागर महाराज का समागम होते ही गुरू आज्ञा को मानते हुए ५ वर्ष के लिए ब्रह्मचर्य व्रत धारण किया। तथा इसकी समाप्ति पर २९ वर्ष की वयमें आजीवन ब्रह्मचर्य प्रतिमा धारण की ।
बालब्रह्मचारी जी ने किशोर अवस्था से ही अपने जीवन को तीर्थबन्दना, सद्गुरु-समागम और अन्तर्मुखता की ओर मोड़ दिया था । तीथंबंदना के क्रम में १९६५ ई० में माता-पिता के साथ पूरे भारत की तीर्थयात्रा में तीन मास तक रहे । १६-६-१९६६ को माताजी का स्वर्गवास हो जाने के बाद इन्होंने पैत्रिक तथा स्वोपार्जित सम्पत्ति का दान आ० शान्तिसागर जिनवाणी प्रकाशक संस्थान, सन्मतिनसिंग होम, बाढ़पीडित सहायक संस्थान (माढ़ा), गोरक्षकमंडल ( करमाल), महावीर ज्ञानोपासना समिति (कारंजा) आदि १६ धार्मिक संस्थानों को लगभग आधा लाख रुपया देकर गृहस्थ के आवश्यक दान का उत्तम पालन किया ।
इनकी दानधारा का अधिक प्रवाह जिनवाणी- प्रकाशन में ही हुआ । और पिताश्री के चिरवियोग (२४-६-८८) तक इनकी आर्थिक प्रेरणा से वर्तमान मुनिसंघ आहार विचार सम्बन्धी दो हिन्दी पुस्तकें; तथा बालक बालिका, प्रौढ़ आदि साधर्मी लोगों के आदर्श जीवन निर्माण के लिए त्रिकाल देवबंदना, प्रायश्चित्त, व्यन्तराराधाना पसूते नुकसान, माताका पुत्रीको उपदेश पुस्तिकाएँ तथा आसादन, पाण्यामध्ये जीव, भक्ष्याभक्ष्य, आत्मचिंतन, इष्ट ग्रन्थ आदि के सात चार्ट लिखलिखाकर प्रकाशित किये हैं । तथा अपने इस जिनवाणी- प्रतिष्ठा के भव्य मन्दिर पर जयधवला के अन्ति खण्ड का प्रकाशन कराके मणिमयी उन्नत कलश रखा है ।