SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 72
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गा० २१३] 'द्विदिसंतकम्मेणे' त्ति विदिओ वीचारो ट्ठिदिसंतकम्मपमाणावहारणे पडिबद्धो। 'उदयेणे' त्ति तदिओ वीचारो किट्टीणमणुसमयमणंतगुणहाणीए उदयपरूवणमुवेक्खदे । ६८९ उदीरणाए त्ति चउत्थो वीचारो पओगेणोकड्डियूणुदीरिज्जमाणद्विदि-अणुभागाणं परूवणमुवेक्खदे । 'हिदि वंडयेणे' त्ति पंचमो वीचारो द्विदिखंडयायामपमाणमुवेक्खदे । ण च द्विदिघादसण्णिदेण पढमवीचारेणेदस्स पुणरुत्तभावो तस्स द्विदिघादकालविसेसपडिबद्धत्तादो । 'अणुभागघादेणे' त्ति एसो छ8ो वीचारो किट्टीगदाणुभागस्स अणुसमयोवट्टणाविहाणमुवेक्खदे, मोहणीयाणुभागस्स पयदविसये कंडयघादासंभवादो। ६९० 'द्विदिसंतकम्मेणे' त्ति सत्तमो वीचारो किट्टीवेदगस्स सव्वसंधीसु घादिदसेसहिदिसंतकम्मपमाणणिद्द समुवेक्खदे । ण च एदस्स विदियवीचारणिद्दे सेण पुणरुत्तभावो, किट्टीवेदगपढमसमये अपत्तघादविसेसट्ठिदिसंतकम्मपमाणावहारणे तस्स पडिबद्धसादो । अथवा 'द्विदिसंकमेणे' त्ति एसो सत्तमो वीचारो वत्तव्यो, विरोहाभावादो। अणुभागसंतकम्मेणे'त्ति अट्ठमो वीचारो चदुण्हं संजलणाणमणुभागसंतकम्मणिद्देसे पडिबद्धो। एत्थ जो पढमसमयकिट्टीवेदगस्स अणुभागसंतकम्मपरूवणाविधी चंदुसंजलणाणं परूविदो सो णिरवसेसमणुगंतव्वो। 'यंघेण' एवं भणिदे किट्टीवेदगस्स सव्वसंधीसु हिदि-अणु उदय यह तीसरा क्रियाभेद है जो प्रतिसमय कृष्टियोंकी अनन्तगुणहानिद्वारा उदयकी प्ररूपणाको अपेक्षा करता है। ६८९ 'उदीरणाए' उदीरणा यह चौथा क्रियाभेद है जो प्रयोगवश अपवर्तना करके उदीर्यमान स्थिति और अनुभागको अपेक्षा करता है । "द्विदिखंडयेण' स्थितिकाण्डक यह पांचवां क्रियाभेद है जो स्थितिकाण्डक के आयामको अपेक्षा करता है। किन्तु स्थितिघातसंज्ञक प्रथम क्रियाभेदके साथ इसका पुनरुक्तपना नहीं प्राप्त होता, क्योंकि उसका सम्बन्ध स्थितिघातके काल विशेषको सूचित करता है । 'अणुभागेण' अनुभाग यह छठा क्रियाभेद है जो कृष्टिगत अनुभागको प्रतिसमय होने वाली अपवर्तना के विधानको अपेक्षा करता है, क्योंकि संज्वलन मोहनीयके अनुभागका प्रकृत स्थानमें काण्डकघात सम्भव नहीं है। ६९० 'टिदिसंतकम्मेण' स्थितिसत्कर्म यह सातवाँ क्रियाभेद है जो कृष्टिवेदकके सब सन्धियों में घात करने से शेष रहे स्थितिसत्कर्मके प्रमाणके निर्देशकी अपेक्षा करता है। परन्तु इसका दूसरे क्रियाभेदके निर्देशके साथ पुनरुक्तपना नहीं होता, क्योंकि कृष्टिवेदक के प्रथम समयमें घातविशेषको नहीं प्राप्त हुए स्थितिसत्कर्मके प्रमाणके निश्चय करनेमें वह प्रतिबद्ध है । अथवा इसके स्थानमें "द्विदिसंकमेण' पदसे गृहीत स्थितिसंक्रम यह सातवां क्रियाभेद कहना चाहिये क्योंकि इसे स्वीकार करने पर कोई विरोध नहीं आता। 'अणुभागसंतकम्मेण' पदसे गृहीत अनुभागसत्कर्म यह आठवाँ क्रियाभेद है जो चार संज्वलनोंके अनुभागसत्कर्म का निर्देश करने में प्रतिबद्ध है। यहाँ पर प्रथम समयवर्ती कृष्टिवेदकके चार संज्वलनों के अनुभागसत्कर्मकी जो प्ररूपणाविधि कही है वह पूरी जाननी चाहिये। 'बंधेण' इस पदद्वारा 'बंध' ऐसा कहने
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy