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________________ ४८ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [चारित्तक्खवणा ६११० मंपहि सेसाणमेक्कारसण्हं संगहकिट्टीणं दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबंधकिट्टीओ संछुहतो चेव खवेदि त्ति इममत्थविसेसं पुवणिाईलु पि पुणो वि फुडीकरेमाणो सुत्तमुत्तरं भणइ___ * सेसाणं किट्टीणं दो दो श्रावलियबंधे दुसमयणे चरिमे संछहंतो चेव खवेदि, ण वेदेंतो। ___१११ सहुमसांपराइयकिट्टि मोत्तण सेसाणमेक्कारसण्हं पि संगहकिट्टीणं चरिमे दुसमयणदोआवलियमेत्तणवकबंधसमयपबद्ध संछ्हमाणो चेव खवेदि, ण वेदेमाणो, तासिमुदयसंबंधाणुवलंभादो त्ति वुत्तं होदि । एवमेदेहिं दोहिं सुत्तेहिं जाओ वेदिज्जमाणीओ चेव खवेज्जति, ण संछब्भमाणीओ, जाओ च संछन्भमाणीओ चेव खवेदिज्जेति, ण वेदिज्जमाणीओ; तासिं दुविहाणं पि किट्टीणं सरूवणिद्दे सं कादण संपहि तव्वदिरित्ताओ जाओ सेसासेसकिट्टीओ ताओ उभयेण वि पयारेण खवेदि त्ति इममत्थविसेसं पदुप्पाएमाणो उवरिमं सुत्तपबंधमाढवेइ * चरिमकिटिं वज्ज दो श्रावलियदुसमयणबंधे च वज्ज जं सेसकिट्टीणं तमुभयेण खवेदि। . ६११० अब शेष रही ग्यारह संग्रह कृष्टियोंकी जो दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध कृष्टियाँ हैं उनका संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है इस प्रकार इस अर्थ विशेष को यद्यपि पहले प्ररूपणा कर आये हैं फिर भी उसका पुनः स्पष्टीकरण करते हुए आगेके सूत्रको कहते हैं * शेष ग्यारह संग्रह कृष्टियोंमें प्रत्येकके अन्तमें जो दो समय कम दो-दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध शेष रहते हैं उनका संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, वेदन करता हुआ क्षय नहीं करता। ६ १११ सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़कर शेष ग्यारह संग्रहकृष्टियोंके अन्तमें जो दो समय कम दो आवलिप्रमोण नवकबन्ध समयप्रबन्ध शेष रहते हैं उन्हें संक्रमण करता हुआ ही क्षय करता है, वेदन करता हुआ क्षय नहीं करता, क्योंकि उनका स्वमुखसे उदयका सम्बन्ध नहीं उपलब्ध होता, यह उक्त कथनका तात्पर्य है। इस प्रकार इन दो सूत्रों द्वारा जो वेदी जाकर ही क्षपणाको प्राप्त होती हैं, संक्रमण होकर नहीं, तथा जो संक्रमण होकर ही क्षपणाको प्राप्त होती हैं, वेदी जाकर नहीं, उन दोनों प्रकारको कृष्टियोंका स्वरूपनिर्देश करके अब उनसे अतिरिक्त जो शेष सपूर्ण कृष्टियाँ हैं वे दोनों ही प्रकारसे क्षयको प्राप्त होती हैं इस प्रकार इस अर्थविशेषका प्रतिपादन करते हुए आगेके सूत्रप्रबन्धको कहते हैं। * अन्तिम सूक्ष्मसाम्परायिक कृष्टिको छोड़ कर तथा प्रथमादि ग्यारह संग्रह कृष्टियोंके दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवक समयप्रबद्धोंको छोड़कर उन शेष रही ग्यारह संग्रहकष्टियोंकी जो कृष्टियां शेष रहती हैं उन्हें दोनों प्रकारसे क्षय करता है।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
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