SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयधवलासहिदे कसायपाहुडे [ चारित्तक्खवणा $ २२२ सुगमं । * (१७६) किट्टीदो किटिं पुण संकमदि खएण किं पयोगण । कि सेसगम्हि किट्टीय संकमो होदि अण्णिस्से ॥ २२९॥ $ २२३ एसा चउत्थमूलगाहा एगसंगहकिट्टि वेदेदूण पुणो अण्णसंगहकिट्टिमोकड्डियण वेदेमाणस्स किट्टीखवगस्म तम्मि संधिविसये जो परूवणाभेदो तण्णिण्णयविहाणट्ठमोइण्णा । तं जहा-'किट्टीदो किट्टि पुण०' एवं भणिदे एगसंगहकिट्टि वेदेदूण पुणो तत्तो अण्णसंगहकिट्टि वेदेमाणो तिस्से पुव्ववेदिदकिट्टीए सेसगं कधं खवेदि ? किं तिस्से उदएण आहो पओगेणेत्ति एवविहा पुच्छा गाहापुम्बद्धे णिवद्धा । एदस्स भावत्थो-किं वेदेमाणो खवेदि । आहो परपयडिसंकमेण संकामेंतो खवेदि ति मणिदं होदि । कधं ? एत्थ क्खएणे त्ति भणिदे उदयस्स गहणं होदि त्ति णासंकणिज्जं, खयाहिमुहस्स उदयस्सेव खयव्ववएससिद्धीए णाइयत्तादो। 'कि सेसगम्हि किट्टीय' एवं ६ २२२ यह सूत्र सुगम है। * (१७६) विवक्षित संग्रहकृष्टिका वेदन करनेके बाद अन्य संग्रहकृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करता हुआ क्षपक उस पूर्ववेदित् संग्रहकृष्टिके शेष रहे भागको वेदन करता हुआ क्षय करता है या अन्य प्रकृतिरूप संक्रमण करके क्षय करता है ।।२२९।। ६२२३ यह चौथी मूलगाथा एक संग्रह कृष्टिका वेदन करके पुनः अन्य संग्रह कृष्टिका अपकर्षण करके वेदन करनेवाले कृष्टिक्षपकके उस सन्धिस्थानमें जो प्ररूपणा भेद होता है उसका निर्णय करनेके लिये अवतीर्ण हुई है। यथा-'किट्रीदो किट्टि पुण' ऐसा कहने पर एक संग्रह कृष्टिका वेदन करके पुनः उससे अन्य संग्रह कृष्टिका वेदन करता हआ उसे पूर्व में वेदनको गई कृष्टिके शेष भागको किस प्रकार क्षय करता है? क्या उदयसे क्षय करता है या प्रयोगसे क्षय करता है ? इस प्रकार यह पृच्छा गाथाके पूर्वार्धमें निबद्ध है। अब इसका भावार्थ इस प्रकार है कि क्या वेदन करता हुआ क्षय करता है या परप्रकृति संक्रम के द्वारा संक्रम करता हुआ क्षय करता है यह उक्त कथनका तात्पर्य है। शंका-यहाँ गाथामें 'क्खएण' ऐसा कहने पर क्या उससे उदयका ग्रहण होता है ? समाधान-ऐसी आशंका नहीं करनी चाहिये, क्योंकि क्षयके सन्मुख हुए उदयकी ही क्षय संज्ञा है, यह बात न्यायसे सिद्ध है। ___कि सेसगम्हि किट्टीय' ऐसा कहने पर पहले वेदो गई संग्रहकृष्टिके कितने ही भागके अवशिष्ट रहने पर अन्य कृष्टिमें संक्रम होता है, इस प्रकार गाथाके उत्तरार्धमें सूत्रका अर्थके साथ सम्बन्ध करना चाहिये । परन्तु यह पृच्छा दो समय कम दो आवलिप्रमाण नवकबन्ध और उच्छिष्टा १. भणिदो आ० ।
SR No.090228
Book TitleKasaypahudam Part 16
Original Sutra AuthorGundharacharya
AuthorFulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
PublisherBharatvarshiya Digambar Jain Sangh
Publication Year2000
Total Pages282
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Karma, & Religion
File Size25 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy