Book Title: Jain Kriya Kosh
Author(s): Daulatram Pandit
Publisher: ZZZ Unknown
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Page #2 --------------------------------------------------------------------------  Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवर्धमानाय नमः । स्वर्गीय पण्डित दौलतरामजी विरचितः जैन - क्रियाकोष -∞∞∞∞∞∞∞∞∞~~ मंगल । दोहा -- प्रणमि जिनंद मुनिंदको, नमि जिनवर मुखवानि । क्रियाकोष भाषा कहूं, जिन आगम परवानि ॥१॥ मोक्ष न आतम ज्ञान बिन, क्रिया ज्ञान बिन नाहिं । ज्ञान विवेक बिना नहीं, गुन विवेकके माहिं ॥२॥ नहि विवेक जिनमत बिना, जिनमत जिन बिन नाहिं । मोक्षमूल निर्मल महां, जिनवर त्रिभुवन माहिं ॥३॥ तातें जिनको बंदना, हमरी बारं बार । जिनतें आपा पाइये, तीन मुवनमें सार ||४|| दीप अढ़ाईके विषै सौ ऊपर सत्तार सबै जिनमें उपजे जिनवरा, व्रत विधान 1 आरज क्षेत्र वृत्तभूमि अनूप शुभरूप ||५|| निरूप | वे जिनभूप ॥ ६ ॥ भुवनेस । फाइ इक इक क्षेत्रमें, इक इक उतकृष्टे सब सन्तरि सौ ऊपरें, तिनमें महा विदेहमें, अस्सी दूण असेस 4 " Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोषा भरतरावत छेत्र दस तिनके दस जिनराय। ए दस अर वे सर्व ही, सौ सत्तरि सुखदाय ॥ ८॥ घटि है तो जिन बीसते, कटे न काहू काल । पंच बिदेह विर्षे महा, केवल रूप बिशाल ॥६॥ चले धर्म द्वय सासता, यति प्रावक ब्रत रूप । टले पाप हिंसादिका, उपजें पुरुष अनूप ॥१०॥ कालचक्रकी फिरणि बिन, कुलकर तहा न होय । नाहि कुलिंगम वरति है, ताते रुद्र न जोय ।। तीर्थाधिप चक्री हली, हरि प्रतिहरि उपजंत । इन्द्रादिक आवें जहा, करें भक्ति भगवंत॥ तीर्थकर अर केवली, गणधर मुनि बिहरंत । जहा न मिथ्या मारगी, एक धर्म अरहंत ।। तात मात जिनराजके, मर नारद फुनि काम । परघट पुरुष पुनीत बहु शिवगामी गुण धाम ।। है विदेह मुनिवर जहा, पंच महाव्रत धार । सातें महा विदेहमें, सत्यारथ सुखकार ।। भरत रावत दस विर्षे, कालचक्र है दोय । अवसप्पिणी उतसर्पिणी,, षटर काला सोय । तिनमें चौथे काल ही, उपजें जिन चौबीस । द्वादश चक्री नव हली, हरि प्रतिहरि अवनीसा ।। त्रिसठि सलाका पुरुषए, जिन मारग धरधीर। *शरीर हित । २ स्वामी । Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल। इनमें तीर्थकर प्रभू, और भक्ति वर वीर । वात माव जिनदेवके, चौबीसा चौबीस । नौ नारद चौदा मन्, कामदेव चौबीस ॥ एकादश रुद्रा महा, इत्यादिक पद धारि । उपजे चौथे काल ही, ए निश्चे उर धार ॥२०॥ या विध भये अनन्त जिन, होसी देव अनंत । सबको मारग एक ही, ज्ञान क्रिया बुधिवंत ।। सबही शान्ति प्रदायका सब ही केवल रूप। सवही धर्म निरूपका, हिंसा-रहित सरूप ।। सबही आगम भासका, सब अध्यातम मूल । मुक्ति-मुक्ति-दायक सवै, ज्ञायक सूक्ष्म थूल ॥ बरननमें आवें नहीं, तीन कालके नाथ । सर्व क्षत्रक जिनवरा, नमो जोरि युग हाथ ॥ भरतक्षेत्र यह आपनो, जम्बूदीप मझारि । ताके मैं चौबीमिका, बन्दु श्रुति अनुसारि ॥ निर्वाणादि भये प्रभू निर्वाणी चौबीस । तेअतीत जिन जानिये, नमो नाय निजशीश ॥ जिन भाष्यौद्व बिधि धरम, परमधामकोमूल ! यति श्रावकके भेद करि, इक सुक्ष्म इकथूल । बहुरि वर्तमाना जिना, रिषभादिक चौबीस । नमों तिनें निजभाव करि जिनके रागनरीस ॥ तिनहू सोही भाषियौ, द्वै विधि धर्म विलास । महानत मणुननमय, जीवदया प्रतिपाल । Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। बहुरि अनागत कालमें, बैंगे तीरथनाथ । महापद्म प्रमुख प्रभु, चौबीसा बडहाथ ॥३०॥ तातें सोही भासि है, जै जोऽनादि प्रबन्ध । सबको मेरी बन्दना, सबको एक निबन्ध ।। चौबीसी तीन नमू नमो तीस चौबीस । श्रीमंधर आदि प्रभु नमन करो फुनि बीस ।। पंद्रा कर्म धरा सर्वे, तिनमे जे जिनराय । अर सामान्य जु केवली, वर्तं निर्मल काय ॥ तिन सबको परनाम करि, प्रणमो सिद्धअनंत । आचारिज उपाध्यायको, बिनऊंसाधु महन्त ।। तीन कालके जिनवरा, तीन कालके सिद्ध । तीन कालके मुनिवरा बन्दो लोक प्रसिद्ध । पंच परमपद-पदप्रणमि बन्दों केवलवानि । बंदों तत्वारथ महा, जैनधर्म गुणखानि ॥ सिद्धचक्र बंदिके सिद्ध जन्त्रकू बन्दि । नमि सिद्धान्त-निबंधकों, समयसार अभिनंदि ॥ बंदि समाधि सुतंत्रा, नमि समभाव-सरूप । नमोकारकू करि प्रणति, भाषोंबत अनूप ॥ चउ अनुयोगहिं वदिके, चउ सरणा ले शुद्ध । बउ उत्तम मंगल प्रणमि, कहू क्रिया अविरुद्ध ॥ वेद-धर्म गुरु प्रणति करि, स्यादवाद अवलोकि । कियाकोष-भाषा कहू, कुन्दकुन्द मुनि ढोकि ॥४०॥ भरचों चरचा जैनकी, चरचों चरचा जैन । Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मंगल। क्रोध लोभ छल मोह मद, त्यागि गहू गुन नैंन । कर्तृम और अकर्तृ मा जिन प्रतिमा जिनगेह । तिन सबकूपरणाम करि, घारू धर्म सनेह ।। गाऊ चउविधि दान शुभ, गाऊं दशधा धर्म । गाऊ षोडस भावना, नमि रतनत्रय धर्म ॥ सतऊ सर्व यतीसुरा, बिनऊ आर्या सर्व । सब श्रावक अर प्राविका, नमन करों तजि गर्व ॥ करों बीनती मना घर, समदृष्टिनसों एह। अपनोंसौं धीरज मुझे, देहु, धर्ममें लेह ॥ लोकशिखरपर थान जो, मुक्तिक्षेत्र सुखधाम । जहां सिद्ध शुद्धातमा, “तिष्टें केवलराम ॥ नमो नमों ता क्षेत्रको, जहा न कोई उपाधि । आदि ब्याधि असमाधि नहिं बरतै परम समाधि । प्रणमि झान कैवल्यकों, केवल दर्शन ध्यान। यथाख्यात चारित्रा, बन्दों सीस नवाय ॥ प्रणमि संयोग सथानको, नमि अजोग गुणयान । क्षायक सम्यक बंदिके, वरणों ब्रत बिधान ।। बन्दों चउ आराधना, बंदों उपशम भाव । जाकरि क्षायक भाव है, होय जीव जिनराय ॥५०॥ मूलोत्तर गुण साधुके, व्है जिनकरि जनसिद्ध । तिन बंदि कहू क्रिया, त्रेपन परम प्रसिद्ध। जहा मुनि निज ध्यान करि, पावें केवलज्ञान । बंदो ठौर प्रशस्त ओ, तीरथ महा निधान । Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। जा थानकसों केवली, पहुंचे पुर निर्वाण । बंदो थान पुनीत जो, जा सम थानन आन । तीर्थकर भगवानके, बंदो पंच कल्याण । और केवलीको नमों, केवल अर निर्वाण ॥ नमों उभैविधि धर्मको, सुनि श्रावक निरधार। धर्म मुनिनको मोक्ष दे, काटै कर्म अपार ॥ तातें मुनि मत अति प्रबल, बार बार थुति योग । भन्य धन्य मुनिराज ते, तजें समस्त अजोग। पर परणति जे परिहरें, रमें ध्यानमें घोर । ते यमकू निज दास करि, हरो महा भव पीर ॥ मुनिकी क्रिया विलोकिकै, हम बरनि न जाय । लौकिक क्रिया गृहस्थकी, बरनू मुनि गुण ध्याय । यतिब्रत ज्ञान बिना नहीं, श्रावक ज्ञान बिना न । बुद्धिवंत नर ज्ञान बिन, खोवें बादि दितान ॥ मोक्षमारगी मुनिवरा, जिनकी सेव करेय । सो श्रावक धनि धन्य है, जिनमारग चित देय ॥६॥ जिन मंदिर जो शुभ रचे, अरचै जिनवर देव । जिनपूजा नितप्रति कर, करे साधुकी सेव ।। करे प्रतिष्ठा परम जो, जात्रा करे सुजान । जिन शामनके प्रन्थ शुभ, लिखवावै मतिवान ॥ घरविधि संघतणो सदा, सेवा धारे वीर । पर उपगारी सर्वकी, पीड़ा हरे जु वीर । अपनी शक्ति प्रणाम जो, धारै तप अर दान। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पन किया। जीवमात्रको मित्र जो, शीलवंत गुणवान ।। भाव शुद्ध जाके सदा, नहिं प्रपंचको लेस । परधन पाहन सम गिने, तृष्णा तजी विशेष ॥ तारै गृहपनि हू प्रवल, ताकी क्रिया अनेक । जिनमें त्रेपन मुख्य हैं, तिनमें मुख्य विवेक ।। नमस्कार गुरुदेवको, जे सब रीति कहेय । जिनवानी हिरदै धरी, ज्ञानवन्त ब्रत लेय ॥ क्रियाकाडकों करि प्रणति भाषों किरिया कोष । जिनशासन अनुसार शुभ, दयारूप निरदोष ॥ प्रथमहिं त्रेपनजे क्रिया, तिनके वरनों नाम । झान-विराग-सरूपजे, भविजनकू विश्राम ।। त्रेपन क्रिया । गाथा-गुण-वय सम-पडिमा, दाणं जलगालणं च मणस्थामियं । दसणणण चरित्तकिरिया तवण्ण सावया भणिया । चौपाई। गुण कहिये अटमूल जु गुणा, वय कहिये व्रत द्वादस गुणा। तव कहिये सप बारह भेद, सम कहिये समदृष्टि अभेद ॥७॥ पडिमा नाम प्रतिज्ञा सही, ते एकादस भेद जुलही। दाण कहिये दान जु चार, अर जलगालण रीति बिचार ।। निसिको खानपान नहिं भला, मन्न औषधी दूध न अला। रात्रि विय कछु लेवौ नाहि, अति हिंसा निसिभोजन माहिं ॥ Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। कहो 'अणत्यमिय' शब्द जु अर्थ निसिभोजन सम नाहिं अनर्थ बंसण गण चरित्र जू तीन ए त्रेपन किरिया गिणि लीन । प्रथमहिं आठ मूलगुण कहो, गुण परसाद विषाद न कहो।। मद्य मास मधु मोटे पाप, इन करि पावे अतुलित पाप ।। बर पीपर पाकर नहिं लीन, ऊमर और कठूमर हीन । तीन पाच ए माठोवस्तु, इनको त्यागे सकल परशस्त । मन-बच-काय तजौ नरनारि, कृत-कारित अनुमोद विचारी। जिनमें इनको दोष जु लौ, तिन वस्तुनतें वुधजन भगे॥ अमल जाति सवही नहिं भक्ष, लगे मक्षको दोष प्रत्यक्ष । रस चलितादिक सड़िय जु वस्तु, ते सब मदिरा तुल्यउ वस्तु ।। जा खाये मन ठीक न रहै, सो सब मदिरा दृषण लहै। अर्क अनेक भातिके जेह, खहवेमें आवत है तेह ॥ आली १ वस्तु रहै दिन धना, तामें दोष लगे मदतना २ । सब सुनि मामिष ३ दीप जु भया, चर्मादिक धृत तेल न लया। हींग कदापि न खावन बुधा, बींधौ सीधौ भखिवौ मुधा। चून चालियौ चलनी चाम, नीच जाति पीस्यौहुन काम ॥८॥ फूली आयो धान अखान, फूल्यो साग तजौ मतिवान । कंद अथाणा माखन त्याग, हाट मिठाई तज बड़ भाग॥ निसि भोजन अणछाण्यूनीर, आमिष तुल्य गिर्ने बरबीर । निसि पीस्यौ निसि राध्यौ होय, हाड चामको परस्यौ जोय ॥ मास महारीके घर तनो, सो सब मास समानहिं गिनो। विकलत्रय भर तिर नर जेह, तिनको मास रुधिरमय नह ।। १गीली । २ मदिराका । ३ मांस । Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रेपन किया। man mano a manana तजौ सबै आमिष अधखानि, या सम पाप न और प्रमानि । त्यागौ सहत जु मदिरा शमा, मधू दोउको नाम निरभृमा । अर जिन वस्तुनिमें मधूदोष, सो सब तजहु पापगण पोष । काकिब- और मुरब्बा आदि, इनहिं खाहिं तिनको प्रतवादि । मधु मदिरा पल जे नर गहे, ते शुभगतिने दूरहिं रहें। नर्कनिगोद माहिं दुख सहें, अतुल अपार त्रासना ३ लहें । साः तीन मकार धिकार, मद्य मास मधु आप अपार । ये तीनोंमो पञ्च कुफला, तीन पाच ये आठों मला ।। इन आठोंमें अगणित प्रसा, उपजे मरण करें परबसा। जीव अनन्ता बहुत निगोद, तातें कृत कारित अनुमोद ।। इनको त्याग किये वसु मूल, गुणा होहिं अघतें प्रतिकूल । पांच उदम्बर तीन मकार, इनसें पाप न और प्रकार ।। बार बार इनकों विकार, जो त्यागै सो धन्य विवार । इन आठनसें चौदा और, भखै सु पावै अति दुख-ठौर 1800 बहुत अभक्षन में बाईस, मुख्य कहे त्यागें प्रतईस । मोला नाम बड़ा जु बखानि,जीवरासि भरिया दुखखानि ॥ अणछाण्यां जलके बंधाण, दोष करे जैसे संघाण । भलै पाप लागे अधिकाय, तातें त्याग करौ सुखदाय ।। पोक बड़ामे दूषण बड़ा, खाहिं तिके आणे मति जड़ा। दही महीमें बिदल जु वस्तु खाये सुक्रत जाय समस्त ।। तुरत पवेन्द्री उपजे तहा, बिदल दही मुखमें ले जहां। अन्न मसर मूंग चणकादि, मोठ उड़द मदर तूरादि । भर मेवा पिस्ताजु बिदाम, चारोली मादिक अति नाम । Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । जिन बस्तुनिकी है द्वे दाल,सोसो सब दधि मेला टालि ।। जानि निसाचर जे निसि अरें, निसभोजन करि भव दुख करें। ताते निसिभोजन तजि भया, जो चाहे जिनमारग लया । दोय महूरत दिन जब रहै, तबतें चउविहार बुध गहै। मौलौं जुगल महरत दिना, चढि है तौलौं अनसन गिना ।। रात-बसौं अर रातहिं कियो,रात-पिस्यौ कबहूं नहिं लियौ । अहा होय अंधेरो बीर, तहा दिवसहू असन न बीर ॥ दृष्टि देखि भोजन करि शुद्ध, दृष्टि देखि पग धरहु प्रबुद्ध, बहुबीजा जामें कण घणा, ते फल कुफल जिनेसुर भणा ।। प्रगट निजारा आदिक जेह, बहुबीजा त्यागौ सब तेह । बेंगण जाति सकल अघखानि, त्याग करौ जिन आज्ञा मानि १००॥ संधाणा दोषीक विसेस, सो भन्या छाडौ जु असेस । ताके भेद सुनो मनलाय, सुनि यामें उपजै अधिकाय ।। उत्थाणा संधाण मथाण, तीन जाति इनकी जुबखानि । राई लणी कलूजी आदि, अम्बादिकमें डारहिं बादि । नाखि तेलमे करहिं अथाण, या सम दोष न सूत्र प्रमाण । त्रसजीवा तामें उपजन्त, मखिया आमिष-दोष लहन्त ।। नीबू आम्रादिक जे फला, लूण माहि डारै नहिं भला । याको नाम होय संघाण, त्यागें पण्डित पुरुष सुजाण ॥ अथवा चलित रसा सब बस्त, संधाणा जाणो अप्रशस्त । बहुरि जलेबी आदिक जोहि, डोहा राव मथाणा होय ।। लण छाछि माहीं फल डारि, केर्यादिक जे खाहि संचारि। तेहि बिगारे जन्म सुकीय, जैसे पापी मदिरा पीय ।। Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ त्रेपण क्रिया । अब सुनि चून तनी मरजाद, भाषै श्रीगुरु जो व्यविवाद | शीतकाल में सातहि दिना, भीषममें दिन पांचहिं गिना ॥ बरषारितु माहीं दिन तीन, आगे संघाणा गणलीन । मरजादा बीतें पकवान, सो नहिं भक्ष कहें भगवान ।। ताहि भखें जु असूत्री लोक, पावें दुरगतिमें दुख-शोक । मर्यादाकी विधि सुनि धीर, जो भाषी गौतम प्रति वीर ॥ जामें अन्न जलादिक नाहिं, कछु सरदा जामाही नाहि । बूरा और बतासा व्यादि, बहुरि गिदौडादिक जु अनादि ॥११०॥ ताकी मर्यादा दिन तीम, शीतकालमें भाषी ईश । भीषम पंदरा वर्षा आठ, यह धारौ जिनवाणी पाठ ॥ पर जो अन्नतणों पकवान, जलको लेश जु माई जान । - आठ पहर मरजादा जाम, भार्षे श्रीगुरु धर्म प्रकाश || अल-बरजित जो चूनहिं तनों, घृत-मीठी मिलिकं जो बनों । ताकी चून समानहिं जनि, मरजादा जिन आज्ञा मानि ॥ भुजिहा बड़ा कचौरी पुवा, मालपुवा घृत- तेलहिं हुवा । इत्यादिक है अनरहु जेह, लुचई सीरा पूरी एह ॥ ते सब गिना रसोई समा, यह उपदेश कहे पति रमा । दारि भात कड़ही तरकारि, खिचड़ी आदि समस्त विचारि ॥ दोय पहर इनकी मरजाद, आगें श्रीगुरु कहें अखाद । ई नर संधारक त्यागि, ल्यूं भी खाय सवादहिं लागि || केरी नींबू आदि उकालि, नाना विधि सामग्री घालि । सरस्यूँ केरी तेल तपाय तामें तलें सकल समुदाय ॥ जिह्वालंपट बहु दिन राख, स्वाय तिके मतिमन्द जु भाख । Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। तरकारी सम ल्यूजी एह, आगे संधाणा समुह ।। भणजाण्यू फल त्यागहु मित्र ! अणछाण्यो जल ज्यों अपवित्र । त्यागौ कंदमूल बुधिवंत, कन्दमूलमें जीव अनन्त ।। गारिन कबहु भखहु गुणवन्त गारी कबहु न काढउ संत । डरी गारिमें जीव असंख, निन्दै साधु अशंक अकंख ॥१२०॥ जा खाये छूटे निज प्राण, सो विषजाति अभक्ष प्रवान । माफू और महोरा आदि, तो सकल सुनि सूत्र अनादि । काचौ माखण अति हि सदोष, भखिया करै सबै सुभ सोख। पहले आमिष दूषण माहिं, फुनि फुनि निन्द्यौ संसै नाहिं ।। फल अति तुच्छ खाहु मति वीर, निन्दे महावीर जगधीर । पालौ रानि जमावै कोय, ताहि भखत दुरगति फल होय ॥ निज सवाद तजि ह विपरीत, सो रसचलित तजा भवभीत। आगें मदिरा दूषण महै, नियो ताहि सुबुध नहिं गहै। ए बाईस अभख तजि सखा, जो चाही अनुभव रस चखा। अवर अनेक दोषके भरे, तजो अभख भन्यनि परिहरे ॥ फूल आति सब ही दोषीक, जीव अनन्त फरे तहकीक। कबहु न इनको सपरस करौ,इह जिन माझा हिरदै धरौ।। खावौ और सूधिवौ सदा इनकू तजहु न ढाकहु कदा। साक-पत्र सब निंद बखानि, त्याग करौ जिन आज्ञा मानि ।। नेम धर्म प्रत राख्यौ चहै, तो इन सबकू कबहु न गहै। साड़ सनें बड बोरि जु तने, सजो बौर त्रस जीव जु पर्ने । पेठा और कोहला तजौ, तजितरबूज जिनेसुर भनौ। जावू और करोंदा जेहु, दूध परै त्यागौ सहु तेह ।। Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेपण किया। - ~ - m - कन्द शाकदल फूल जु त्यागि, साधारण फलतें दुर भागि। जो प्रत्येकहु छाडे वीर ता सम और न कोई धीर ॥१३०॥ जो प्रत्येक न त्यागे जाय, तो परमाण करे सुखदाय । सेतु मलपहो कबहुक खाय, नहिं तौड़े न तुड़ावन जाय ।। ताजा ले बासी नहिं भखै, रसचलतादिक कबहु न चखै । हरितकायसो त्यागै प्रोति, सो जानें जिनमारग-रीति ।। जे अनन्तकाया सुखदाय, सब साधारण त्यागौ राय। तजि केदार तूं बडी सदा, खाहु मनालीढिस तुम कदा ।। कचनारादिक डौंडी तजौ, तजि अणफोड्यो फल जिन भजौ। पहली विदलतनू अति दोष,-भाख्यौ भेद सुनहु तजि रोष ।। अन्न मसूर मूंग चणकादि, तिनकी दालि जुहोय अनादि । भर मेवा पिस्ता जु बिदाम, चारौली आदिक अतिनाम ।। जिन जिन वस्तुनको है दालि, सो सो सब दधि मेला टालि। भर जो दधि मेलो मिष्टान, तुरतहि खावौ सूत्र प्रमान ।। अंतमहूरत पीछे जीव,-उपमे इह गावें जगपीव । तातै मीठाजुत जो दही, अंतमहरत पहले गही।। दधि-गुड़ खावौ कबहु न जोग, बरजे श्रीगुरु वस्तु अजोग । कुनि सुनहु ! मित्र इक बात, राईलण मिलें उतपात ।। ।। सातै वही महीमें करें, तो रायता कांजी वरै। पी ताजा गहिबौ भविलोय, सूदनको घृत जोगि न होय ।। स्वादचलित जो खावै धीव, सो कहिये अविवेकी जीव । पिरत सोधिको लेवौ मल्प, भजिवौ जिनवर त्यागि विकल्प १४. वृत हू छाड़े वौ अति सपा, नीरस तप धरि श्रीजिन अपा। Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष | धीर । गिना ॥ सिंघवलोंन प्रतिनिको लेन, कर्तृम लोन सबै तजिदेन ॥ जो सिंधबहू त्यागे भया, महा तपस्वी श्रुतमें लया । ere तुम गोरसकी विधि सुनों, जिनवरकी आशा उरमुनो || दोहत जब महिषी अर गाय, तबसें इह मरजाद गहाय काचो दूध न राखौ सुधी, द्वै घटिका राखै तौ कुधी ॥ काचौ दूध न लेवौ वीर, अणछाण्यं पय नजिबो अंतर एक महूरत बसा, उपजै जीव असंखित सा ॥ जाको पय है तैसे जीव, प्रगटे इह भाषें जगपीव । पंचेन्द्री सन्मूर्छन प्राणि, भैया तू जिनवचन प्रवाणि || इह तो दूध तणी विधि कही, अब सुनि दहो महाची सही । जामण दीयो है जिंह दिना, ताके दूजो दिन शुभ पीछे दधि खावो नहिं जोगि, इह भाषे जिनराज अरागि । afant मथियौ पानी डारि ताको नाम जु छाछि विचारि ॥ ताही दिवस होय सो भक्ष, यह जिन आज्ञा है परतक्ष । मता हीजा माहीं तोय, बहुरयौ वारि न डारौ होय ॥ मथिया पाछे काचौ वारि, नाख्यौ सो लेवौ जु विचारि जेत काचा जलको काल, तेतौ ही ताको जु बिचारि ॥ छाण्यू जलसो काचौ रहै, एक महूरत जिनवर कहै । आगें सजीवा उपजंत, अणछान्या को दोष लगत ॥ १५० ॥ तिक्तकषाय मिल्यौ जो नीर, सो प्राशुक भाख्यौ जिन वीर । दोय पहर पहिली हो गहौ, यह जिन आज्ञा हिरदे बहो । तातौ जलजो भात उकाल, आठ पहर मरजादा काल | आगे सनमूर्छन उपजाहिं, पीवत धर्मध्यान सब जाहिं ॥ 1 કે Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपन क्रिया। दोहा-अप-तरवरको मूल इह, मोह मिण्यात जु होय। राग दोष कामादिका, ए सकंध बहु जाय । अशुभ क्रिया शाखा धनी, पल्लव चंचल भाव । पत्र असंजम अनता, छाया नाहिं लखाव ।। - इह भव दुख भादं पहुप, फल निगोद नरकादि । इह अघ-तरुको रूप है भववन माहि मनादि । चौपाई-क्रिया कुठार गहै कर कोय, अघतर वरक काटै सोय । जे बेंच दधि और मठा, उदर भरण के कारणशठा । तिनकें माल लेय जो खाहिं ते नर अपनों जन्म नसाहिं । तारौं मोलतनो दधि तजौ, यह गुरु आज्ञा हिरदै मजौ ॥ दधी जमावै जा विधि व्रती, सो बिधि धारहु भाषहिं जती। दूध दुहाकर ल्यावै जबै, ततछिन अगनि चढावै तबै ।। रूपौ गरम करे पयमाहि, जामण देइ जु संसै नाहिं। जमे दही या विधिकर जोह्र बाघे कपरा माही सोहु । जूद रहे नहिं जलकी एक, तबहिं सुकाय धरे सुविवेक। दहीवड़ी इह भाषी सही, गृही जमावै सासों दही ।। १६० अथवा दधिमें रूई भेय, कपरा मेय सुकाय धरेय । राखै इक द्वे दिन ही जाहि, बहुत दिना राखै नहि ताहि ।। जलमें घोलिर जामण देय, दधि ले तो या विधिकरि लेय। और भाति लेवौ नहि जोगि, भालों जिनवर देव अरोगि।। शीतकालकी इह विधि कही, उष्णरु बरषा रासै नहीं। जाहि सर्वथा छाडै दधी, तासम और न कोई सुधी। सूदन पात्रनिको दुग्ध, दधि-कृत-अछि भलों से मुग्ध । Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। उत्तम कुल हू जे मतिहीन, क्रियाहीन जु कुविसन अधीन ॥ तिनके घरको कछह न जोगि, तिनको किरिया बहुत अजोगि। दूध ऊँटणी मेडिन तनो, नियौ जिनमत माही घनों ।। गो महिषी विन और न भया, कमहु न लेनों नाही पया। महिषी दूध प्रमाद करेय, ताते गायनिको पय लेय ॥ नीरसन्नत धर दूधहिं तजै, तातें सकल दोष ही भजे । हाट बिकते चूनरु दालि, बुधजन इनको खावौ टालि ।। बींधौ घोट पीस दलै, जीवदया कैसे पलै । धूलो संखतणों कसतुरि, इनको निंद कहें जिनसूरि ।। दोहा-चरमसपरसी वस्तुको, खाते दोष जु होय । ताको संक्षेपहिं कथन, कहों सुनो भविलोय ।। मूके पसूके चर्मको; चीरे जो चण्डार । तो चण्डालहिं परसिकै, छोति गिनें संसार ॥१७॥ तौ कैसे पावन भयौ, मिल्यौ चर्म सों जोहि । आमिष तुल्य प्रभू कहे, याहि तजौ बुध सोहि ॥ उपजै जीव अपार सुनि, जिनवानी उर थारि । जा पसुको है चर्म जो, तैसे ही निरधारि ।। सन्मूर्छन उपमें जिया, तातै जल :घृत तेल । धर्म सपरसे त्यागिवे, भाषे साधु अचेल ।। जैसे सूरज काचके, रुई बीचि धरेय। प्रगटै अगनि तहा सही, कई भस्म करेय ।। वैसे रस और धर्मके जोगै, जिय उपजन्त । खानेवारेके सकल, धर्मप्रत लुपिजन्त । Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई आदि क्रियाओंका वर्णन । १६ माज धोय पर पूँछ जु राछा, राखौ उज्जल निर्मल आछा । दया सहित करणी सुखदाई, करुणा बिन करणी दुखदाई ॥ २०॥ जीवनकू सन्ताप न देवै, तब आचार तणी विधि लेवें । बिन जिनधर्मा उत्तम वंसा, देइन लेयसु राछनि संसा ॥ श्रावक कुल-किरिया करि युक्ता, तिनके करको भोजन युक्ता । अथवा अपने करको कीयो, आरम्भी श्रावकने लीयौ || अन्यमती अथवा कुलहीना, तिनके करको कबहु न लीना । अन्य जाति जो भीं कोई, तौ भोजन तजवौ है सोई ॥ नीली हरी तजै जो सारी, तासम और नहीं आचारी । जो न सर्वथा छाडी जाई, नौ प्रत्येक फला अलपाई || हरी सुकाव योग्य न भाई, जामे दोष लगे अधिकाई । सूके अन्न औषधी लेवा, भाजी सूकी सब तजि देवा ॥ पत्र - फूल - कन्दादि भखें जे, साधारण फल मूढ चो जे । ते नहिं जानों जैनी भाई, जीभलंपटी दुरगति जाई ॥ पत्र फूल कन्दादि सबै ही, साधारण फल सर्व तजै ही । पर तुम सुनहु विवेकी भैय्या, भेलै भोजन कबहुं न लैया ॥ मात तात सुत बाधव मित्रा, भेले भोजन अति अपवित्रा । महा दोष लागे या माहीं, आमिषको सो संशय नाहीं ॥ अपने भोजनके जे पात्रा, काहूकू नहिं देय सुपात्रा । सो भेले जीमें कहो कैसे, भाषें श्रीजिन नायक ऐसे ॥ माहि सराय न भोजन भाई, जब श्रावकको व्रत रहाई । खन्ति नीचनके घर माही, कबहुं रसोई करणी नाहीं ||३०|| मांस त्यागि व्रत जो दिढ़ धारै, नीचनको संसर्ग न कारें । Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। असम कुल है परमन धारी, तिनहूके भोजन नहिं कारी॥ जैन धर्म जिनके घट नाहीं, आनदेव पूजा घर माहीं। तिनको छूयौ अथवा करको, कबहू न खावै तिनके घरको ।। कुल किरिया करि आप समाना,अथवा आप थकी अधिकाना । तिनको छुयो अथवा करको,भोजन पावन तिनके घरको ।। अर जे छाणि न जाणे पाणी, अन्न वीणकी रीति न जाणी। भक्षाभक्ष भेद नहि जाने, कुगुरु कुदेव मिश्यामत मानें ।। तिनते कैसी पाति जु मित्रा, तिनको छूयौ है अपवित्रा । चर्म रोम मल हाथीदन्ता, जेहिं कचकडा विकल कहन्ता ।। तिन” नहिं भोजन सम्बन्धा,यह किरियाको कयौ प्रबन्धा । जङ्गम जीवनके जु शरीरा, अस्थि चर्म रोमादिक बीरा॥ सब अपवित्रा जानि मलीना, थावर दल भोजनमे लीना। रोमादिकको सपरस होवै,सो भोजन श्रावक नहिं जोवै॥ नीला वस्त्र न भीट सोई, नाहि रेशमी वस्त्रहु कोई । बिना धोया है कपरा नाहीं, इह आचार जैनमत माहीं॥ दया लिया है किरिया धारी, भोजन करै सोधि आचारी। पाच ठावसू भोजन नाही, धोति डुपट्टा बिमल धराही ।। बिन उजलता भई रसोई, त्याग करै ताळू विधि जोई। पंचेन्द्री पसुहूको छ्यौ, भोजन तजे अविधिते हूयौ ।। सौधतनी सब बस्तु जुलेई, बस्तु असोधी त्यागै तेई। अन्तराय जो परे कदापी, तजै रसोई जीव निपापी ॥४॥ दया क्रिया बिन श्रावक कैसें ,बुद्धि पराक्रम बिन नृप जैसें । मास रुधिर मल अस्थिजु चामा, तथा मृतक प्राणी लखिरामा।। Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई आदि क्रियाका वर्णन । २१ अर जो बस्तु तजी है भाई, सो कबह जो थाल धराई । तौ उठि बैठे होउ पवित्रा, यह आज्ञा गावै जगमित्रा ॥ दान बिना जीमा मति बीरा, इह आज्ञा धारौ उर धीरा । बिना दान भोजन अपवित्रा, शक्तिप्रमाण दान दो चित्रा || मुनी अर्जिका श्रावक कोई, कै सुश्राविका उत्तम होई । अथवा अत सम्यकदृष्टी, जिंह उर अमृतधारा वृष्टी || इन महाभक्ति करि देहो, तिनके गुण हिरदामें लेहो । अथवा दुखित भुखित नरनारी, पसु-पंखी दुखिया संसारी ॥ अन्न वस्त्र जल सबकों देना, नर भव पाधेका फल लेना । तिर्यचनिकू तृण हू देना, दान तणे गुण उरमे लेना ॥ भोजन करत ओंठ जिन छाडौ, ओठि खाय देही मति भाड़ौ । काहूकू उच्छिष्ट न देनी, यही बात हिरदै धरि लेनी ॥ अन्तराय जो परैं कदापी, अथवा छीवें खलजल पापी । तब उच्छिष्ट तजन नहिं दोषा, इह भाषे बुधजनन्नत पोषा ॥ घृत दधि दूध मिठाई मेवा, जोहि रमोई माहिं जु लेवा । सो सब तुल्य रसोई जानों, यह गुरु आज्ञा हिरदै मानों ॥५०॥ जहा वापर अन्न रसोई, तातें न्यारे राख जोई। जेतौ चहिये तेतौ ल्यावे, आठौ सो बर्तनमें आवै । पाकावस्तुरु भोजन भाई, एक भये बाहिर नहिं जाई । जल पर अन्न तणों पकवाना, सो भोजन ही सादृश जाना || व्यसन रसोई बाहर जायें, सो बढ़वापा नाम कहावै । मौन बिना भोजन बरज्या है, मौन सात श्रुत माहिं को है । भोजन भजन वनान करन्ता, मैथुन वमन मलादि करन्ता । Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२ जैन-क्रियाकोष। मूत्र करन्ता मौन जु होई, इह आज्ञा धारै बुध सोई ।। अन्तराय अर मौन ज सप्ता, पावै श्रावक पाप अलिप्ता । अब जलकी किरिया सुनि धर्मी,जे नहिं धारें तेहि अधर्मी ॥ नदी तीर जो होय ममाणा, सो तजि घाट ज निन्य बखाणा। और घाटको पाणी आणो, इह जिन आज्ञा हिरदे जाणो ॥ लोक भरन जे निजस्या आवै, तिनके ऊपरलौ जल ल्यावै । सरवर माहिं गावको पानी, आवै सो मरवर तजि जानी ॥ गांबथकी जो दूरि तलावा, ताको जल ल्यावौ सुभ भावा । तजे अपावन निन्दक नीरा,अब वापीकी विधि सुनि वीरा ।। जा माहीं न्हावै नरनारी, कपरा धावहिं दातनिकारी । ता वापीको जल मति आनों, नहा न निर्मलताई जानों ।। कूपतणी बिधि सुनहु प्रबीना, जहा भरें पानी कुल हीना। तहा जाहि मनि भरवा भाई, तबै ऊंचकौ धर्म रहाई ॥६०॥ उत्तम नीच यहै मरजादा, यामे है कछह न विवादा । यवन अन्तिजा सबसे हीना, इनको कूप मदा नजिदीना ॥ अब तुम बात सुनो इक और, शंका छाडि बखानौ और। धर्मरहितके पानी घरको, त्यागौ वारि अधर्मी नरको ।। बिन माधर्मी उत्तम बंमा, पर घरको छाड़ो जल अंसा ।। दोहा-जलके भाजन धातुके, जो होवें घर माहिं। पूंछमाजि नित धोयवा, यामे संसै नाहि ।। अर जे वासण गारके, गागर घट मटकादि । तेहि अल्पदिन राखिवौ, इह आज्ञाजु अनादि ।। राति सुकाया वा धरा, माटी बासण बीर । Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई आदि क्रियाओंका वर्णन । तिममें प्रातहि छाणिवौ,आछी बिधिसों नीर ।। जो नहिं राखै गारके, जलभाजन बुधिवान । राखै बासण धातु ही,सो अति ही शुचिवान ।। चौपाई। इह तो जलको क्रिया बताई, अब सुनि जलगालन विधि भाई । रंगे वस्त्र नहिं छानों नीरा, पहरे वस्त्र न गाली वीरा ।। नाहिं पातरे कपड़े गालौ, गाढे वस्त्र छाड़ि अघ टालौ। रेजा दिढ आगुल छत्तीसा,-लंबा, अर चौरा चौबीसा ।। ताको दो पुड़ता करि छानो, यही नातणाकी विधि जानों। जल छाणत इक बूंदहु धरती, मति डारहु भाषे महावरती ।। एक बदमें अगणित प्राणी, इह आज्ञा गावै जिनवाणी। गलना चिउंटीधरि मतिदाबौ, जीयदयाको जतन धरावौ ।।७।। छाणे पाणी बहुते भाई, जल गलणा धोवै चिनलाई । जीवाणीको जतन करो तुम, सावधान है, बिनवें क्या हम ।। राखहु जलकी किरिया शुद्धा, तब श्रावक व्रत लहौ प्रबुद्धा । जा निवाणको ल्यावौ वारी, ताही ठौर जिवाणी डारी ।। नदी तलाब बावडी माही, जलमें जल डारौ सक नाही। कूप माहिं नाखौ जु जिवाणी, तौ इति बात हिये परवाणी।। ऊपरसू डारौ मति भाई, दयाधर्म धारौ अधिकाई । भंवरकलीको डोल मङ्गावौ, ऊपर नीचे डौरि लगायौ। व गुण डोल जतन करि वीरा, जीवाणी पधरावौ धारा। छाण्या जलको इह निरधारा, थावरकाय कहें गणधारा ।। हैपटिका बीते जो जाकों, अणछाण्याको दोष जु साकों। Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ जैन-क्रियाकोष। तिक्त कषाय मेलि किय फासू,ताहि अचित्त कहें श्रुतभासू ।। पहर दोय बीते जो भाई, अगणित त्रस जीवा उपजाई । ड्योढ़ तथा पौणा दो पहरा,आगे मनि वरतौ बुधि-गहरा ॥ भात उकाल उष्णजल जो है, सात पहर ही लीनू सो है ! बीतें बसू जाम जल उष्णा,त्रस भरिया इह कहै जु विष्णा ।। विष्णु कहावें जिनवर स्वामी, सर्व बातके अन्तर यामी। या विधि पाणी दिवसें पीवी, निसिफूजल छाडौ मविजीवौ ।। बसन पान अर खादिम स्वादी,निस त्यागे बिन ब्रत सब बादी। क्या बिना नहिं ब्रत जु कोई, निस भोजनमें दया न होई ॥८॥ छाण्यूाय न निसको नीरा, बीण्यूंजाय न धानहु बीरा। छाण बीण बिन हिंमा होवे, हिंसाः नारक पद जोवै॥ अवर कथन इक सुनने योगा, सुनकर धारहु सुबुधि लोगा। नारिनको लागै बड रोगा, मास मास प्रति होहि भजोगा। ताकी किरिया सुनि गुणवन्ता,जा विधि भाषे श्रीभगवन्ता। दिवस पाच बीतें सुचि होई, पाच दिनालौं मलिन जु सोई॥ सकं च श्लोक-त्रिपक्षे शुद्धयते सूती, रजसापंचवासर । अन्यशक्ता च या नारी, यावज्जीवं न शुद्धयते ।। अर्थ-प्रसुता स्त्री डेढ़ महीनेमें शुद्ध होय है, रजस्वला पांच दिवस गये पवित्र होय है अर जो स्त्री परपुरुष सो रत भई सो जन्म पर्यन्त शुद्ध नाही, सदा अशुचि ही है। बेसरी छन्द पाच दिवसलौं सगरे कामा, तजिकर, रहिवौ एके ठामा। कछु धंधा करवौ नहिं आको, भई अजोग भवस्था ताको । Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई आदि क्रियायोंका वर्णन । २५ निज भर्ताहूको नहिं देखें, नीची दृष्टि धर्मको पेर्ने । दिवस पांचौं न्हावौ उचिता, नितप्रति कपड़ा धोवौ सुचिता ॥ काहूंसों सपरस नहिं करिवौ, न्यारे आसन बासन धरिवौ । जो कबहू ताके बासनसो, छुयौ राछ अथवा हाथनसों ॥ तो वह बासन ही तजि देवौ, या विधि शुद्ध जिनाज्ञा लेवौ । व्यन्न वस्त्र जल आदि सबैही, ताकौ छुऔ कछु नहिं लेही ॥ कोरो पीस्यौ कछु नहिं गहिबौ, नाकौ ताके ठामहिं रहिवौ । ठौर त्याग फिरवौ न कितैही, इह जिनवरकी आज्ञा है ही । real नाही असन गरिष्ठा नाहीं दिवसे शयन वरिष्ठा । ह्रास कुतुहल तैल फुलेला, इक दिन माहिं न गीत न हेला ॥ काजल तिलक न जाको करिवौ, नाहिं बराबर मेहदी धरिवौ । नख - केशादि सुधार न करनों, या बिधि भगवत मारग धरनों ॥ और त्रियनमें मिलवौ जाकों, पंच दिवस है बर्जित ताकों । चंडाल अति निया, भाषै जिनवर मुनिवर वंधा ॥ पंच दिवस पति ढिग नहिं जावौ, अर नहिं वाके सज्या रचावौ ! भूमिसयन है जोग्य जु ताकों, सिंगारादि न करनो जाकों ॥ छट्टो दिवस न्हाय गुणवन्ती, शुभ कपडा पहरे बुधिवन्ती । पवित्र पतित जिन अर्चा, करवावे, धारै शुभ चर्चा ॥ पूजा दान करें विधि सेती, शुभ मारग माहीं चित देती । forest अपने पति ढिग जावै, तौ उत्तम बालक उपजावै ॥ सुबुधि विवेकी सुव्रत धारी, शीलवन्त सुन्दर अविकारी । दाता सूर तपस्वी श्रुतधर, परम पुनीत पराक्रम भर नर ॥ जिनवर भरत बाहुबल सगरा, रामहणू पांडव भर बिदरा । Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ॲन-क्रियाकोष | लव अंकुश प्रद्युम्न सरीसा, बृषभसेन गौतम स्वामीसा ॥ सेठ सुदर्शन जम्बूस्वामी, गज सुकुमार आदि गुणधामी । पत्र होय तौ या बिधिका है, अर कबहूं पुत्रो हो जो है ॥ तो सुसील सौभाग्यवती अति, नेम-धरम परवीन हंसगति । बाल सुब्रह्मचारिणी शुद्धा, ब्राह्मी सुन्दरिसी प्रतिबुद्धा ॥ चन्दनबाला अनन्तमतीसी, तथा भगवती राजमनीसी । अथवा पतित्रता जु पवित्रा है मुशील सीतासी चित्रा ॥ के सुलोचना कौशल्यासी, शिवा रुकमनी बीशल्यासी । नीली तथा अंजना जैमी, रोहणि द्रौपद सुभद्रा सैंसी ॥१००॥ अर जो कोऊ पापाचारी, पंच दिवस बीते बिन नारी । से विकल अन्ध अविवेकी, ते चंडालनिहूते एकी । अतिहिं घृणा उपजै ता समये, ताते कबहु न ऐसे रमिये । फल लागे तौ निपट हि बिकला, उपजै मंतति सठ बेअकला || सुन जन्मे तौ कामी क्रोधी, लापर लपट धर्म विरोधी । राजबिक बसु से अति मूढ़ा, मन्थनि माहि अजस आरूढा ।। सत्यघोष द्विज पर्वत दुष्टा, धवलसेठसे पाप सपुष्टा । पुत्री जन्मे तोहि कुशीली, पर-पुरुषा- रत अति अवहीली । राव जसाधरको पटरानी, नाम अमृतादेवि कहानि । गई नरक छ पति मारे, किये कुत्रजसो कर्म असारे || रात्रि विषै कपरा हवे नारी, सौ इह बात हियेमे धारी । पंच दिवसमे सो निसि नाहीं, ता बिन पंच दिवस श्रुतमाहीं ॥ इद आज्ञा धारौ तजि पापा, तब पावौ आचार निपापा । अब सुनि गृहपतिके पट कर्मा, जो भाषै जिनवरको धर्मा || Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई आदि क्रियाओं का वर्णन । जिन पूजा अर गुरुकी सेवा, फुनि स्वाध्याय महासुख देवा । संजम तप अर दान करौ नित, ए षट कर्म धरौ अपने चित | इम कर्मनि करि पाप जु कर्मा, नासें भविजन सुनि जिनधर्मा । चाकी उखरी और बुहारी, चूला बहुरि परंडा धारी ॥ हिंसा पाच तथा घर धंधा, इन पापनि करि पाप हि बंधा । तिनके नासनको पट कर्मा, सुभ भाषै जिनवरको धर्मा ॥ १०॥ ए सब रीति मूलगुण माहीं, भाषें श्रीगुरु संसें नाहीं । आठ मूलगुण अंगीकारा, करौ भव्य तुम पाप निवारा ॥ अर तजि सात विसन दुखकारी, पापमूल दुरगति दातारी । जूवा आमिष मदिरादारी, आखेटक चोरी परनारी ॥ जूवा सम्म नहिं पाप जु कोई, सब पापनिको इह गुरु होई । जूवारीको संग जु त्यागौ, दूतकर्मके रंग न लागौ ॥ पासा सारि आदि बहु खेला, सब खेलनिमें पाप हि भेला । सकल खेल तजि जिन भजि प्रानी, जाकर होय निजातमज्ञानी । ठौर ठौर मद मास जु निंदै, तात तजिये प्रभुको बंदै । तज वेश्या जो रजक - शिलासम, गनिकाको घर देखहु मति तुम | त्यागि अहेरा दुष्ट जु कर्मा, हृ दयाल सेवौ जिनधर्मा । करें अहेराते जु अहेरी, लहै नर्कमें आपद ढेरी ॥ क्षत्रीको इह होय न कर्मा, क्षत्रीको है उत्तम घर्मा । क्षत् कहिये पीराको नामा, पर- पीरा हर जिनको कामा । क्षत्री दुर्बलको किमि मारे, क्षत्री तौ पर पीरा टारें । मास खाय सो क्षत्री कैसो, वह तो दुष्ट अहेरो जैसो ॥ अर जु अहेरी तर्जे महेरा, दयापाल है जिनमत हेरा । Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। तो वह पावै उत्तमलोका, सबकों जीवदया सुखथोका ॥ त्यागौ चोरी जो सुख चाहौ, ठग विद्या तजि ल्यो भविलाहो। परधन भूले बिसरे आयौ, राखौ मति यह जिन श्रुत गायौ ॥२० लूटि लेहु मनि काहूको धन, परधन हरबेंको न धरौ मन । चुगली करन, लुटावौ काकों, छाड़ों भाई अन्यरमाकों। काहूकी न धरोहरि दाबौ, सूधो गखौ मित्र हिसाबो । तौल माहिं घटि-बधि मति कारौ, इह जिन आज्ञा हिरदेधारौ। दोहा-तजौ चोरकी संगती, तासू नहिं व्यवहार । चोरयो माल गृहौ मती, जो चाहो सुख सार ॥ परदारा सेवन तजौ, या सम दोष न और । याको निदें जिनवराजा त्रिभुवनके मौर ।। पापी सेवें पर तिया, परे नर्कमे जाय। तेतीसा-सागर तहा दुख देखें अधिकाय ।। तातें माता बहन अर, पुत्री सम परनारि । गिनो भव्य तुम भावसों, शीलवृत्त उरधारि । जे जेठी ते मात सम, समवय बहन समान। आप थकि छोटि उमरि, सोनिज सुता समान । निन्दे बिसन जु सात ए, सात नरक दुखदाय । मन-वच-तनए परिहरौ, भजो जिनेसुर पाय ।। इन विसननि करि बहु दुखी, भयो अनन्ते जीव । तिनको को बर्णन करै, ए निदं जगपीव ।। कैयकके भाषू भया नाम, सूत्र अनुसार । राव युधिष्ठिर सारिखे, धर्मोत्तम अविकार ॥३०॥ Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई मादि क्रियाओंका वर्णन । दुर्बोधनके हठ थकी, एक बार ही छत रमिकर अति आपद लही, जात्यौ कौरवधूत ॥ हारि गये पांडव प्रगट, राज सम्पदा मान । दुखो भये जो दीन जन, प्रन्थनि माहिं बखान । पीछे सब तजि जगतकों, अगदीश्वर उरध्याय ।। श्रीजिनवरके लोककों, गये जुधिष्ठिर राय ॥ मास भखनतें बक नृपति, गये सातवें नर्क । तीस तीन सागर महा पायौ दुख संपर्क ।। अमल थकी जदुनन्दना, रिषिको रिस उपजाय । भये भस्मभावा सबै, पाप करम फल पाय ॥ कैकय उबरे जिनजती भये मुनीसुर जेह । येह कथा जिन सूत्रमे, तुम परहट सुन लेह ।। चारुदत्त इक सेठ हौ, करि गनिकासों प्रीति । लही आपदा जिह घनी गई सम्पदा बीति ॥ ब्रह्मदत्त पापी महा, राजा हौं मृग मार । आखेटक र पराघतें, बूडयौ नरक मंझार ।। चोरी करि शिवभूति शठ, लहै बहुत दुख दोष । साकी कथा प्रसिद्ध है, कहिलेको सत घोष ॥ परदारा पर चित धरी, रावणसे बलवन्त । अपजस लहि दुरगति गये, जे प्रतिहरि गुणवन्त ॥४०॥ बिसन बुरे बिसनी बुरे, सजौं इनोंते प्रीति । व्रत क्रियाके शत्रु ये, इनमे एक न नीति ।। अब सुनि भैया बात इक, गुण इकबीसा जेह । Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८० जैन-क्रियाकोप। इनहीं मूलगुणानिकों, परिवारो गनि लेह ॥ लज्जा दया प्रमासता, जिनमारग परतीति । पर औगुनको ढाकिबो, पर उपगार सुरीति ।। सोमदृष्टि गुणगृहणता, अर गरिष्ठता जानि । सबसों मित्राई सदा, बैरभाव नहिं मानि ॥ पक्ष पुनीत पुमानकी, दीरघदरसी सोय । मिष्ट बचन बोले सदा, अर बहुज्ञाता होय ॥ अति रसज्ञ धर्मज्ञ जो, है कृतज्ञ फुनि तज्ञ । कहै तज्ञ जाकू दुधा, जो होवै तत्वज्ञ ॥ नहीं दीनता भाव कछु नहिं अभिमान धरेय । सबमों समता भाव है, गुणको बिनो करेय ॥ पाप क्रिया सब परिहरौ, ए गुण होय इकोस । इनको धारे सो सुधी, लहै धर्म जगदीश ।। इन गुण बाहिर जीव जो, श्रावक नाहिं गनेय । श्रावक प्रतके मूलये, श्रीजिनराज कहेय ।। श्रावक ब्रत सब जातिको, जतिव्रत, द्विज, नृपवानि । और जाति नहिं है जती, इह जिन आज्ञा जानि ॥५०॥ अर एते बिणज न करे, श्रावक प्रतिमा धार। धान पान मिष्टान्न अर, मोम हींग हरतार ।। मादिक लवण जु तेल घृत, लोह लाख लकड़ादि। दल फल कन्दादिक सबै, फूल फूल सीसादि । चीट चाबका जेबड़ा, मूज डाम सिण आदि। पसु पंखी नहिं बिणजवो, सावन मधु नीलादि । Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई आदि क्रियाओंका वर्णन। अस्थि चर्म रोमादि मल, मिनख बेचवौ नाहिं । बन्दिपकड़नी नाहि कछु, इह आज्ञा श्रुतिमाहिं ।। पशु-भाड़े मति चौ मया, त्यागि शस्त्र व्यापार । बध बंधन विवहार तजि जो चाहो भवपार ।। जहा निरन्तर अगिनिको, उपजे पापारम्भ । सब न्यौहार तजौ सुधी, तजौ लोभथल दम्भ ॥ कन्दोई लोहार अति, सुवर्णकार शिल्पादि। सिकलोगर बाटीप्रमुख, अवर लोरा आदि । छीपी रङ्गराषिका, अथवा कुम्भजुकार । ब्रत धारि नर नहिं करे उद्यम हिंसाकार ॥ रग्यो नीलथकी जिको, जो कपरा तजि बीर । अनि हिमा कर नीपनों, है अजोगि वह चीर ॥ कूप तडाग न मोखिये, करिये नहिं अनर्थ । हिंसक जीव न पालिये, यह धारौ श्रुति अर्थ ॥ ६ ॥ विष न विणजवौ है भला, रसा बिणजके माहि । बिणज करौ तो रतनको, के कंचन रूपादि । के रूई कपडा तनों, मति खोवौ भवबादि । जिनमें हिंसा अल्प है, ते व्यापार करेय ॥ अति हिंसाके बिजणजे, ते सबही सज देय । ए सब रीति कही बुधा, मूल गुणनिमें लीक ।। ते धारौ सरपा करी, त्यागौ बात अलीक। जैसे तरुके जड गिनी, अह मन्दिरके नींव ।। तैसें ए सब मल गुण तप जप व्रतकी सीम। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-क्रियाकोष। man annowwwwwwwww noon muwww वेसरी छन्द। ए दुरगति दाता न कदेही, शिव कारण है देह विदेही ।। सम्यक सहित महाफल दाता, सब गुननिको सम्यक ताता। समकितसों नहिं और जूधर्मा, सकल क्रिया सम्यक पर्मा । आके भेद सुनो मन लाए, जाकरि आतम तत्व लखाए । भेद बहुत पर द्वै बड़ भेदा, निश्चै अर विवहार सुबेदा ॥ निश्चय सरधा निज आतमकी, रुचि परतीति जु अध्यातमकी सिद्ध समान लखौ निज रूपा, अतुल अनंत अखाड अनूपा । अनुभव-रसमें भीग्यो भाई, धोई मिथ्यामारग काई। अपनो भाव अपुनमे देखौ, परमानन्द परम रस पेखो। तीन मिन्यात चौकड़ी पहली, तिन करि जीवनिकी मति गहली मोह प्रकृति है अट्ठाबीमा, सात प्रबल भाणे जगदीसा ॥७॥ सात गये सबहि नमि जावें सर्व गये केवल पद पावें ॥ उपशम क्षय-उपशम अथवा क्षय, सात तनों कीयो तनि सब भय ये निश्चय समकितको रूपा, उपजै उपशम प्रथम अनुपा ।। सुनि सम्यक व्यवहार प्रतीता, देव अठारह दोष बितीता। गुरु निरग्रन्थ दिगम्बर साधू, धर्म दयामय तत्व अराधू ।। तिनकी सब दिढ़ करि धारे, कुगुरु कुदेव कुधर्म निवारे । सबनि तत्वको निश्चय करिबौ, यह विवहार सुसम्यक धरिबौ गीव अजीबा आस्रव बंधा, संवर निर्जर मोक्ष प्रबन्धा ।। पुण्य पाप मिलि नव ए होई, लखें जथारथ सम्यक सोई ।। ये हि पदारथ नाम कहावै, एई तत्व जिनागम गावै । नव पदार्थमे जीव अनन्ता, जीवन माहि आप गुणवंता ।। Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई मादि क्रियाओंका वर्णन । ६ कले आपको आपहि माही, सो सम्यकदृष्टी शक नाही। ए दोय भेद कहै समकितके, ते धारौ कारण निज हितके ।। सम्यकदृष्टी जे गुण धारे, ते सुनि जे भव-भाव विडारे। मठ मद त्यागै निर्मद होई, मार्दव धर्म धरै गुन सोई॥ राजगर्व अरु कुलको गर्वा, जाति मान बल मान जु सर्वा । रूप तनूमद तपको माना, संपत्ति अर विद्या अभिमाना। ए आठो मद कबहु न धार, जगमाया तृण-तुल्य निहारे। अपनी निधि लखि अतुल अनन्ती, जो पर-पंचनमे न बसंती ।। अविनश्वर सत्ता विकसंती, ज्ञान-गोत्तम शु ति उलसंती। तामे मगन रहै अति रङ्गा, भव-माया जाने क्षण भंगा ।। तीन मूढता दूरी नाखै, देव धर्म गुरु निश्चै राखे । कुगुरु कुदेव कुधर्म न पूजा, जैन बिना मत गहै न दूजा ।। छह जु अनायतनी बुधि त्यागै,त्याग मिथ्यामत जिनमत लागे। मुगुरु कुदेव कुधर्म बडाई, अर उनके दासनिकी भाई ।। कबहुं कर नहिं सम्यकदृष्टी, जे करिहैं ते मिथ्यादृष्टी। शंका आदि आठ मळ भाडै, करि परपञ्च न आयौ छाड़े। जिनवचमें शंका नहिं ल्यावै, जिनवाणी उर धरि दिढ़ भावै । नगकी बाछा सब छिटकावे, निसप्रह भाव अचल ठहरावै॥ जिनके अशुभ उदै दुख पीरा, तिनकी पीर हर वर वीरा। नाहिं गलानि धरै मन माहीं, साची दृष्टि धरै शक नाही। कबहूं परको दोष न भाखै, पर उपगार दृष्टि नित राखे । अपनों अथवा परको चित्ता, चल्यौ देखि यांमै गुणरत्ता । थिरीकरण समकितको अंगा, धारै समकित धार अभङ्गा । Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ जैन-क्रियाकोष | जिन धर्मी अति हित राखे, सो जिनमारग अमृत चले ॥ तुरत जात बछरा परि जैसे, गाय जीव देय है जैसे 1 साधर्मी पर तन धन बारे, गुनवतसल्य घरे अघ टारे ॥ मन बच काय करै वह ज्ञानी, जिनदासनिको दासा जानी । जिनमारगकी करें प्रभावन, भावे ज्ञानी व विधि भावन ॥६०॥ सब जीवनिमें मैत्रीभावा, गुणवंतनिक्कू लखि हरसाना । दुखी देखि करुणा उर आनें, लखि वापराता राग न छानें ॥ दोष नाहीं है मध्यस्था, ए चर भावन भावे स्वस्था । जित्याले चैत्य करावे, पूजा अर परतिष्ठा भावै ॥ तीरथजात्रा सूत्र जु भक्ती, चडबिधि संघसेव है युक्ती । ए है सप्त क्षेत्र परिसिद्धा, इनमे खरचं धन प्रतिबुद्धा ॥ जीरण चैत्यालयकी मरमती, -करवावे, पुस्तककी प्रति । साधर्मीकू बहु धन देवे, या विधि परभावन गुन लेवे ॥ कहे अङ्ग ए अष्ट प्रतक्षा, नहि धरवौ सोई मल लक्षा । इन अनि करि सीझै प्रानी, तिनको सुजस करें जिनवानी ॥ जीव अनन्त भये भवपारा, कौलग कहिगे नाम अपारा। कैयकके शुभ नाम बखानों, श्रुत अनुसार हिएमे आनो ॥ अंजन और अनंतमती जो, राव डढ़ायन कर्म हतीजो। रेवति राणी धर्म- गढासा, सेठ जिनेन्द्रभक्त अघ नासा ॥ पर औगुन ढाके जिह भाई, जिनवरकी आज्ञा उर लाई । वारिषेण ओ विष्णुकुमारा, वत्रकुमार भवाद्धि तारा अष्ट अङ्ग करि अष्ट प्रसिद्धा, और बहुत हुए नर सिद्धा । मठ मद त्यागि मष्ट मल त्यागा, तीन मूढ़ता त्यागि सभागा ॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रसोई आदि क्रियामोंका वर्णन। ५ षट अ अनायतनाको तजिवी, ए पचास महागुण भजियो। पर सनिवौ तिन भय सप्ता, निरभै रहिवौ दोष अलिमा १०० इह भव पर भवको भय नाहीं मरद वेदना भय न धराही । हमरौ रक्षक कोऊ नाहीं, इह संस नाहीं घट माहीं। सबको रक्षक आयु जु कर्मा, कै जिनवर जिनवरको धर्मा। और न रक्षक कोई काको, इह गुरु गायौ गाढ जु ताकों । अर नहिं चोर तनो भय जाकों, अपनो निजधन पायौ ताकों। चिदधन धन चोरयौ नहिं जावे, तातें चित्त अडोल रहावै ॥ अर नहिं अकस्मान भय कोई,जिन सम लखियौ निजतन जोड़ी चेतन तत्व लब्यौ अविनासी, ताले ज्ञानी है सुखरासी॥ काहूको भय तिनकों नाहीं, भय रहिता निरबैर रहाही। सप्त भया त्यागे गुण होई, सप्त विसन तजियो शुभ जोई॥ सप्त सप्त मिलि चौदा गुन ए,मिले पचीसा गुणता जु लए। पञ्च प्रतीचारनकों टारौ, शका काक्षा कबहू न धारौ। नहिं दुरगंछा भाव कही, नहिं मिथ्यात सराह करही। नहीं स्तवन मिथ्यादृष्टीको, यह लक्षण सम्यकदृष्टीको॥ पञ्च अतीचारनकू त्यागा, सो है पञ्च गुणा बडभागा। मिलि गुणसाली चौवालीमा, गुणा होहिं भार्षे जगदीसा।। इनकूधारै सम्यकती सो, भवभय तजि पावे मुक्ती सो। ए गुन मिथ्यातीके नाही, आतमज्ञान न मिथ्या माहीं॥ उक्तञ्च गाथा । मयमूढमणायदणं, सकाइवसण्णमयमईया। एसिं चउदालेदे, प संति ते हुंति सट्टिी ॥ ११॥ Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन - क्रियाकोष | अर्थ -- जिनके अष्ट मद नाहीं, तीन मूढता नाहीं, पट मनाय वननाहीं, शंकादि अष्ट मल नाहीं, सप्त व्यसन नाहीं, सप्त भय नाहीं, पंच अतीचार नाहीं, ए चवालीस नाहीं ते सम्यक दृष्टी कहे । दोहा-तके मल जु मल गुण, सम्यक सबको मूल । कयौ मूलगुणको सुजस, सुनिव्रत विधि अनुकूल । इति क्रियाको मूलगुणनिरूपण । ३६ बारह व्रत वर्णन दोहा - द्वादस प्रतनिकी सुविधि, जा विधि भाषी वीर । सो भाषो जिनगुन जपी, जे धारें ते धीर ॥ द्वादस प्रत माहे प्रथम, पंच अणुव्रतसार । तीन अणुव्रत चारि फुनि, शिक्षावृत आचार । हिंसा मृषा अदलधन, मैथुन परिग्रह साज । एक देश त्यागी गृही, सब त्यागी रिषिराज ॥ सब व्रतनिके आदिही, जीवदया - व्रतसार । दया सारिसौ लोकमें, नहिं दूजौ उपगार || सिद्ध समान लख्यौ जिने, निश्चय आतमराम । सकल मतमा आपसे, लख चेतना -धाम ॥ ते सब जीवनकी दया, करें विवेकी जीव । मन वच तन करि सर्वको शुभ वाछे जु सदीव ॥ सुखसो जीवौ जीव सहु, क्लेश कष्ट मति होह । तजौ पापको सर्वही, तजौ परस्पर द्रोह ॥ काहूको हु पराभवा, कबहु करौ मति कोइ । Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६७ AamaAN बारह ब्रत वर्णन। इह हमरी बाछा फलौ, सुख पावौ सहु लोइ ॥ सबके हितकी भावना राखे परम दयाल । दयाधर्म उरमें धरो, पावै पद ज, विशाल ॥ थावर पंच प्रकारके, चउबिधि उस परवानि । मबसो मैत्री भावना, सो करुणा उर आनि ॥१०॥ प्रथीकाय जलकायका, अगनिकाय अर वाय । काय बहुरि है बनस्पति, ए थावर अधिकाय ॥ वे इन्द्री ते इन्द्रिया, चउ इन्द्रिय पंचेन्द्रि। ए त्रस जीवा जानिये, भाषे साधु जिनेन्द्रि ।। कृत-कारित-अनुमोद करि, धरै अहिंसा जेह । ते निर्वाण पुरी लहै, चउ गति पाणी देह ॥ निरारम्भ मुनिकी दशा, सहा न हिंसा लेस। छहू काय पीराइरा, मुनिवर रहित कलेश॥ गृहपतिके गृहजोगते, कछु आरम्भ जु होइ । तातें थावरकाय को, दोष लगै अघ सोइ ॥ पै न करे त्रस घात वह मन वच तन करि धीर। त्रस काननको पीहरा जाने परकी पीर ॥ बिना प्रयोजन वह बुधी, थावर हू पे रैन । जो निशंक थावर हने जिनके जिन नीरन । हिंसाको फल दुरगती, दया सुर्ग-सुख देइ । पहुंचाव फुनि शिवपुरे, अविनाशी न करेइ ॥ दया मूल जिन धर्मको, दया समान न और। एक अहिन्सा अन्त ही, सब प्रत्तनिको मौर।। Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । यमनियमादिक बहुत जे, भाचे श्रीजिनराय । ते सहु करुणा कारणे, और न कोई उपाय ॥२०॥ बिना जैन मत यह दया, दूजे मत दीखै न । दया मई जिनदास है, हिंसा विधि सीखै न ।। दया दया सब कोउ कहै, मर्म न जाने मूर । अणछान्यू पाणी पिवै, तेहि दयातें दूर ॥ दया भली सबही रटै, भेद न पावै कोय । बरते अणगाल्यौ उदक, दया कहा ते होय ।। दया बिना करणी वृथा यह भाषे सब लोक । न्हावै अणगाले जलहि बाधै अपके थोक ।। छाण्यूजल घटिका जुगल पाछे अगल्यौ होय । बिना जैन यह बारता और न जाने कोय । दया समान न धर्म कोउ इह गावे नरनारि । निशा माहि भोजन करें, जाहि जमारो हारि ।। दया जहां ही धर्म है, इह जाने संसार । पै नहिं पावै भेदकों, भक्ष अभक्ष विचार ॥ दया बडी सब जगतमे, धागे नाहिं तथापि । परदारा परधन हरै परै नरकमें पापि ।। दया होय तौ धर्म ह, प्रगट बात है एह । तजै न तौहू द्रौह पर, धरै न धर्म सनेह ।। प्रत्त करै फुनि मूढधी, अन्न त्यागि फल खाय । कंद मूलभक्षण करै, सो व्रत निह फल जाय ॥३०॥ दया धर्म कीजे सदा, इह अर्षे जग सर्व। Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Aanav बारह नव वर्णन। नहिं तथापि सब सम गिने, हनै न आढू गर्व परम धरम है यह दया, कथै सकल जन पह। चुगली-चाटी नहिं तजै, दया कहाते लेह ।। दया वृत्तके कारणे, जे न सजें आरम्भ । तिनके करुणा होय नहिं, इह भाये परना॥ दया धर्मको छाडिक, जे पशुधात करेय । ते भव भव पीडा लहै, मिथ्या मारग सेय ।। दया बतावें सब मता, समझ न काहू माहि । धर्म गिने हिंसा विर्षे, जतन जीवको नाहिं॥ दया नहीं परमत विषे, दया जैनमत माहिं । बिना फैन यह जैन है यामें संषय नाहिं। दया न मिथ्या मत विषे, कही कहा है वीर । करुणा सम्यक भाव है,यह निश्चय धरि धीर ।। काहेके वे देवता, करें जु मास महार। ते चिंडाल बखानिये, तथा श्वान मंजार ॥ देवनिको आहार है-अमृत और न कोय । मासासी देवानिकू, कहै सु मूरखि होय ॥ मंगल कारण जे जड़ा जीवनिको जु निपात । करें अमङ्गल ते लहें होय महा उतपात ॥४०॥ ने अपने जीवे निमित, करें औरको नास । ते लहि कुमरण बेगही, गहे नरककों वास ॥ मध मास मधु खाय करि, जे बांधे अधकर्म । ते काहेके मिनख हैं, वह भावे जिनधर्म ॥ Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । कंदमूल फल खाय करि, करै जु वनको वास । तिनको वनवासो वृथा, होय दयाको नास ।। बिना दया तप है कुतप,जाकरि कर्म न जाय। हिंसक मिथ्यामत धरा नरक निगोद लहाय ।। सो अपनों आतमा, तैसे सबही जीव । यह लखि करुणा आदरौ भाखें त्रिभुवन पीव ।। छन्द जोगीरासा काहेके ते तापस दुष्टा, करुणा नाहिं धरावें। कर अपनी आरम्भ सपष्टा, जीव अनेक जरावें। ते तजि कपडा तपके कारण, धारें शठमति चर्मा। ते न तपस्वी भवदधि तारण, बाधे अशुभ जु कर्मा । रिषि तौ ते जे जिनवर भक्ता,नगन दिगम्बर साधा। भव तनु भोगथकी जु विरक्ता, करै न थिर चर बाधा ॥ मैत्री मुदिता करुणा भावा, अर मध्यस्थ जु धारै । राग दोष मोहादि अभावा, ते भवसागर तारै ॥ बिना दया नहिं मुनिव्रत होई,दया बिना न गृही है। उभय धर्मको सरवस करुणा,जा बिन धर्म नहीं है। दया करौ मुख सब भाखें भेद न पावें पूरा। बासी भोजन भखि करि भोंदू रहे धर्म दूरा ।। बासी भोजन माहि जीव बहु, भखें दया नहिं होई। दया बिना नहिं धर्म न व्रत्ता, पावें दुरगति सोई॥ अत्याणा मंधाण मधाणा, कांजी मादि महारा। करें विवेक बाहिरा कुखुधी, निनके दया न धारा ।। Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। मासासीके घरको भोजन करें कुमतिके धारी। तिनके घट करुणा कहु कैसें, कहा शोध आचारी॥ तासौ पाणी आठ हि पहरा, आगे त्रस उपजाही। ताकी तिनकों सुधि बुधि नाही, दया कहां तिनमाही । निसिको पीस्यौनिसिको राध्यौ बींधौ सीधौ खावे। हरितकाय राधी सब स्वादै, दया कहाते पावै ।। चर्म-पतित घृत तेल जलादिक, तिनमें दोष न माने। गिर्ने न दोष हींगमें मूढा, दया कहातें आने ।। हाटें बिकते चून मिठाई, कहे तिनें निरदोषा। भखे अजोगि अहार सबैही दया कहाते पोषा ॥ दूध दही अरु छाछि नीरको, जिनके कछ न विचारा। दया कहां है तिनके भाई, नहीं शुद्ध आचारा ॥ सूग नहीं मलमूत्रादिककी, ढोर समाना तेई । तिनजे नर जैनी जाने, ते नहिं शुभमति लेई ।। बाधक जिन शासन सरधाके, माधकता कछु नाही। साधु गिर्ने तिनक्जे कोई, ते मूरख जग माहीं।। एक मारको नियम न कोई, बार बार जलपाना। बार बार भोजनको करिवौ, तिनके व्रत न जाना । प्रसकायाको दूषण जामे, सो नहिं प्रासुक कोई। भखै असूत्री शठमति जोई, नाहिं व्रतधर होई ।। दयाधर्मको परकाशक है, जिन मन्दिर जग माहीं। ताहि न पूजें पापी जीवा, तिनके समकित नाहीं॥ कारण मातम ध्यान तणी है, श्रीजिनप्रतिमा शुद्धा। Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ जैन-क्रियाकोष। ताहि न बन्दे निन्द जु तेई, जानहु महा अबुद्धा॥ बूडें नरक मंझार महा शठ, जे जिन प्रतिमा निंदें। जाहिं निगोद विवेक-वितीता जे जनगृह नहिं बढ़ें। अज्ञानी मिथ्याती मूढा, नहीं दयाको लेशा । दयावन्त तिन जे भाषे, ते न लहे निजदेशा ।। दोहा-सुर नर नारक पशुगती, ए चारो परदेश । पंचमगति निज देश है, यामे भ्राति न लेश ।। पंचम गतिको कारणा, जीवदया जग माहिं । दया सारिखौ लोकमे, और दूसरौ नाहिं ।। दया दोय विधि है भया,स्व-पर दया श्रुति माहिं । सो धारौ दृढ चितमे, जाकरि भव-भ्रम जाहि ॥ स्वदया कहिये सो सुधी,रागादिक अरि जेह । हनें जीवकी शुद्धता, टारि तिन्हे शिव लेह ॥६॥ प्रगट कर निज सुद्धता, रागादिक मदमोरि । निज आतम रक्षा करे,डार कर्म जु तोरि ।। सो स्वदया भाषे गुरु, हरे कर्म-बिस्तार । निज हि बचावै कालते, करें जीव निस्तार ।। षट कायाके जीव सहु, तिनत हेत रहाय । वैरभाव नहिं कोयसू, सो पर दया कहाय ।। दया मात सब जगतकी, दया धर्मको मूल । दया उधारै जगततें, हरै जीवकी भूल । दया सुगुनकी बेलरी, दया सुखनकी खान । जीव अनन्ता सीजिया, दयाभाव पर आन ।। Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वणन। - ~ स्व-पर दया दो विधि कही,जिनवाणीमें सार । दयावन्त जे जीव है, ते पार्वे भवपार ॥ सवैया इकतीसा। सुकृतकी खानि इन्द्रपुरीकी नर्सेनी जानि, पापरज खंडनको पौनरासि पेखिये। भवदुख-पावक बुझायवेकू मेघमाला, कमला मिलायवेकों दूती ज्यूं बिसेखिये ॥ मुकति-बघूसों प्रीति पालिवेको आली सम, कुगतिके द्वार दिढ़ आगलसी देखिये। ऐसी दया कीजे चित्त तिहू लोक प्राणी हित, ___ और करतूति काहू लेखेमे न लेखिये ॥ दोहा-जो कबहूं पाषाण जल, माहिं तिरै अरभान । ऊगै पश्चिमकी तरफ, दैवयोग परवान ॥ शीतल गुन हे अगनिमें, धरा पीठ उलटेय । सौहू हिंसाकर्मते, नाहीं शुभमति लेय ॥ जो चाहै हिंसा करी, धर्म मुकतिको मूल । सा अगनीसूकमलवन, अभिलाषै मतिभूल ॥७॥ प्राणघात करि जो कुधा, बाछै अपनी गृद्धि । सो सूरजके अस्तते, चाहे वासर शुद्धि । जो चाहे व्रत-धर्मको, करै जीवको नास । सो शठ अहिके बदनतेः, करै सुधाकी आस । धर्मबुद्धि करि जो अबुध, हने आपसे जीव । सो विवाद करि अस चहै, मल-मथनतें धीव ।। Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ जैन-क्रियाकोष। जैसें कुमती नर महा, कालकूटकू पीय । जीवौ चाहै जीव हति, तैसें श्रेय स्वकीय ॥ करि अजीर्ण दुरबुद्धि जो, इच्छै रोग-निवृत्ति । तैसें शठ परघात करि, चाहै धर्म प्रवृत्ति । दयाथकी इह भव सुखी, परभव सब सुख होय । सुरग मुकति दायक दया, धारै उधरै सोय ॥ इंद नरिन्द फणिन्द अर, चंद सूर अहमिंद । दयाथकी 'इह पद लहै होवै देव जिणे द ॥ भव सागरके पार है, पहुगै पुर निर्वान । दया तणों फल मुख्य सो, भाषे श्रीभगवान ॥ हिंसा करिके राजसुत, सुबल नाम मतिहीन । इह भव पर भव दुख लहे, हिंसा तो प्रवीन ॥ चौदसिके इक दिवसकी, दया धारि चिंडार । इह भव वृष पूजित भयौ, लयौ सुरग सुख सार ॥८॥ जे सीझे जे सीझि है, ते सब करुणा धार । जे बूढे जे बूढ़ि है, ते सब हिंसाकार ॥ अतीवार तजि व्रत भजि करुणा तिन जाय । बध बंधन छेदन बहुरि, बोझ धरन अधिकाय ॥ अन्न पानको रोकिबो, अतीचार ए पंच। त्यागौ करुणा धारिके इनमें दया न रंच ॥ हिंसा तुल्य न पाप है, दया समान न धर्म । हिंसक बूडै नरकमे, बाधै अशुभ जु कर्म । हुती धनश्री पापिनी, बणिकनारि विभचारि । Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन । गई नरकमे पुत्र हति, मानुष अन्म विगारि ॥ हिंसाके अपराधतें, पापी जीव अनन्त । गये नरक पाये दुखा, कहत न आवे अन्त ।। मे निकसै भव कूपते, ते करुणा उर धार । जे बूडै भव कूपमे ते सब हिंसाकार ॥ महिमा जीव दया यनी, जानें श्रीजगदीश। गण धरहू कथि ना सके,जे चउ ज्ञान अधीश ।। कहि न सके इन्द्रादिका, कहि न सकें अहमिंद्र। कहि न सके लोकातिका, कहि न सके जोगिन्द्र ॥ कहि न सकें पातालपति. अगणित जीभ बनाय। सो महिमा करुणा तणी हम पै बरनिन जाय ॥॥ दया मालको आसरो, और सहाय न कोय । करि प्रणाम करुणा व्रते, भाषो सत्य जु सोय ॥ इति दयाबत निरूपण। हिंसा है परमादते, अर प्रमादतें झूठ। ताते तजी प्रमादकू, देय पापसों पूठ ॥ चौपाई-श्री पुरुषारथ सिद्धि उपाय, प्रन्थ सुन्या सब पाप लुभाय । अहं द्वादस व्रत कहे अनूप, सम दम यम नियमादि स्वरूप ।। सम जु कहावे समता भाव, सम्यकरूप भवोदधि नाव । दम कम मन इन्द्रिय रोध, जाकर लहिये केवल बोध ।। आवो जीव बरत यम कयो, अवधिरूपसों नियम जु लयो। ऐसे भेद जिनागम कहै, निकट भव्य है सो ही गहै ॥ वामें सत्य कयौ घउ मेद, सो सुनि करि तुम घरहु अछेद । Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष | विधि झूठ तनों परिहार सो है सत्य महागुणसार ॥ प्रथम असत्य तजौ बुध है, वस्तु छतीकू मछती कहै। दूजे अछतीकों जो छती, भाषै अविवेकी हतमती ॥ तीजे कहै और सों और विरथा मूढ़ करें झकझौर । चौथे झूठ तर्ने त्रय मेद, गर्हित साबद प्रीन उच्छेद || ए सब कृत कारित, अनुमंत, मन वच तन करि तज गुनवंत । चुगला-चाटी परकी हासि, कर्कश बचन महा दुखराशि || विपरीत न भाषौ बुधिवान सबद तजौ अन्याय सुमान । बचन प्रलाप विलाप न बोलि, भजि जिन नायक तजि सहुभोलि भाषौ मत उतसूत्र कदेह, मिथ्यातमसो तजौ सनेह । ये सब गर्हित बचन तजेह, जिनसामनकी सरघा लेह ॥ बहुरि सबै सावद्य अजोग, बचन न बोलौ सुबुधी लोग । छेदन भेदन मारण आदि, त्यागौ अशुभ बवन इत्यादि ॥ चोरी जोरी डाका दौर, उपदेश पाप सिरमौर । हिंसा मृषा कुशील विकार, पाप बचन त्यागौ व्रतधार ॥ खेती विणज विवाह जुआदि, वचन न बोलै बूती अनादि । तजहु दोषजुत बानी भया, बोलहु जामे उपजै दया || ए सावध वचन तजि धीर, तजि अप्रीति वचन वर वीर । સદ रवि करन भय करन न बोल, शोक करन त्यागौ तजि भोल कलह करन अघ करन तजेह बैर करन वाणी न भजेह । ताप करन पर पाप प्रधान, त्यागे वचन महा मतिवान || मर्मछेको बचन न कहौ, जो अपने जियको शुभ वहौ । इत्यादिक जे व्यप्रिय चैन, त्यागहु सुन करि मारग जैन ॥ 2 Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ m बारह व्रत वर्णन बोलौ हिय मित बानीसदा, संसय बानि बोलि न कदा। सत्य प्रशस्त दया-रस भरी, पर उपगार करन शुभ करी।। अधिरुष अव्याकुलता लिये, बोलहु करुणा धरिके हिथे। कबहु ग्रामणी बचन न लपौ, सदा सर्वदा श्रीजिन जपो।। अपनी महिमा कबहु न करो, महिमा जिनवरकी उर घरौ। जो शठ अपनी कीरति करै, सो मिथ्यात सरूपजु धरै ।। १०॥ निन्दा परकी त्यागहु भया, जो चाहो जिनमारग लया। अपनी निन्दा गहरी करौ, श्रीगुरुपै तप बूत आदरौ॥ पापनिको प्रायश्चित्त लेह, माया मच्छर मान तजेह । होवे जहा धर्मको लोप, शुभ किरिया हौवै फुनि गोप ॥ अर्थ शास्त्रको है विपरीत, मिथ्यानमकी है परतीति । तहां छाडि शंका प्रतिबुद्ध, भाषे सुत्र बचन अविरुद्ध । इनमें शंका कबहुन करहू, यही बुद्धि निश्चय उर धरहू । सत्य मूल यह आगम जैन, जैनी बोले अमृत बैन । चार्वाक वोधा विपरीत, तिनके नाहिं सत्य परतीति । कौलिक पातालिक जे जानि, इनमें सत्य लेश मति मानि ।। सत्य समान न धर्म जुकोय, बडो धर्म इह सत्य जु होय । सत्यथकी पावै भव पार, सत्यरूप जिन मारग सार ।। सत्य प्रभाव शत्रु हूं मित्र, सत्य समान न और पवित्र । सत्य प्रसाद अगनि ह शीत, सत्य प्रसाद होय जगजीत ।। सत्य प्रभाव भृत्य है राव, अल है थल धरिया सत भाव । सुर हे किंकर बनपुर होय, गिरि है घर सम सतकार जोय ।। सर्व माखरहरि मृग रूप, बिल समपाताल विरूप Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैन-क्रियाकोष । कोऊ करै शस्त्रकी घात, शस्त्र होई सो अंबुन पात ॥ हाथी दुष्ट होय सब स्याल, विष हूँ अमृतरूप रसाल । कठिन मुगम है सत्य प्रभाव, दानव दीन होय निरदाव ॥२०॥ सत्य प्रभाव लहै निज ज्ञान, मत्य धरै पावै वर ध्यान । सत्य प्रमाद होय निरवाण, सत्य बिना न पुरुप परवाण ॥ सत्य प्रसाद वणिक धन देव, राजा करि पाई बहु सेव । इह भव पर भव सुखमय भयौ, जाको पाप करम सब गयो । झूठ थकी वसु राजा आदि, पर्वत विप्र सत्यघोषादि । जग देवादिक वाणिज घने, गये दुरगनि जाय न गिनें ।। सत्य दयाको रूप न दोय, दया बिना नहिं सत्यजु होय। सत्य तने द्वय भेद अछेद, विवहारो निश्चय निरखेद ॥ निश्चै सत्य निजातम बोध, विवहारो जिन बचन प्रबोध । सत्य बिना सब बूत नप बादि, सत्य सकल सूत्रनमे आदि ।। सत्य प्रतिज्ञा बिन यह जीव, दुरगति लहै कहे जगपीव । सूकर कूकर वृक चडार, घू घू स्याल काग मार्जार ।। ताग आदि जे जीव विरूप, लापर सबते निर्दय रूप। सब बुरा महा असपर्म, लापरका लखिये नहिं दर्श ।। चुगली-साचहु झूठहि जानि, चुगल महा चंडाल समान । चुगली उगलि मुखते जबै, इह भवपर भव खोये तबै ।। सत्य हेत धारौ भवि मौन, सत्य बिना सब संजम गौन। थोरा कालहु कारण सत्य, मन बच तन करि तजौ असत्य। मुनिके सत्य महाबूत होय, गृहिके सत्य अणुबूत होय। मुनिके सत्य गहें के जैन, बचन निरूपें अमृत पेन ॥३०॥ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वर्णन। लौकिक बचन कहें नहिं साधु, सब जीवनिके मित्र अगाय । मृषाबाद नहिं बोले रती, सो जिनमारग साचे अती। श्रावककों किंचित आरम्भ, त्यागे कुविसन पापारम्भ । लौकिक बचन कहन जो परै, तो फिर पाप बचन परिहरे। पर उपगार दयाके हेत, कबहुंक किंचित झूठा लेत। जेतौ आटे माहे लोन, ते सौ बोले अथवा मौन । झूठ थकी उबर पर प्रान, तो वह सत्य झूठ परमान । अपने मतलब कारिज झुठ, कबहु न बोले अमृत बूठ ।। प्राण तजै पर सत्य न तौ, यदवा तदवा बचन न भजे। यह देह अर भोगुपभोग, सब ही झूठ गिर्ने जग रोप। परिगृहकी तृष्णा नहिं करै, करि प्रमाण लालच परिहरै। बाप झठको है यह लोभ, याहि तजै पावै बूत शोभ ।। सत्य प्रभाव सुजस अति बधै, सत्य धरै जिन आज्ञा सधै। राजद्वार पंचायति माहि, सत्यवन्त पूजत सक नाहि ।। इन्द्र चन्द्र रबि सुर धरणेंद्र, सत्य बचे अहमिन्द्र मणिन्द्र । करे प्रसंसा उत्तम जानि, इहे सत्य शिवदायक मानि । क्या सत्यमें रच न भेद, ए दोऊ इकरूप अमेद । विपति हरन सुखकरन अपार, याहि धरे ते है भवपार ।। याहि प्रसंसें श्रीजिनराय, सत्य समान न और कहाय । मुक्ति मुक्ति दाता यह धर्म, सत्य बिना सब गनिये मर्म ॥४०॥ अतीचार पाचों सजि सखा, जातें जिन क्व अमृत चखा। तजि मिथ्योपदेश मतिवान, मजि तन मन करि श्रीभगवान ।। देहि मूढ़ मिथ्याउपदेश, तिनमें नाहिं सुगतिको लेश। Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। बहुरि तजौ जु रहो भ्याख्यान,ताको व्यक्त सुनो व्याख्यान । गुपत बारता परको कोइ, मति परकासौ मरमी होइ । कूट कुलेख क्रिया तजि वीर, कपट कालिमा त्यागहु धीर ।। करि न्यासापहार परिहार, ताको भेद सुनू प्रतधार । पेलो आय धरोहरि धरै, अर कबहु विसरन वह करै।। तौ वाको चित एम जु भया, देहु परायो माल जु लया। भूलिर थोरो मागै वहै, तो वाको समझायर कहै ।। तुमरो देनो इतनों ठीक, अलप बतावन बात अलीक । ले जावो तुमरो यह माल, लेखामे चूको मति लाल । घटि देवेको जो परणाम, सा न्यामापहार दुख थाम । अथवा धरी पराई वस्तु, जाकी बुद्धि भई विध्वस्त ।। और ठौरकी और जु ठौर, करै सोइ पापनि सिरमौर । पुन साकारमंत्र है भेद, तजौ सुबुद्धी सुनि जिनयेद ।। दुष्ट जीव परको आकार, लखता रहै दुष्टताकार। लखि करि जानै परको भेद, सो पावै भव बनमें खेद ॥ परमंत्रिनको करइ विकाश, सो खल लहै नरकको वास । जो परद्रोह धरै चितमाहि,इह भव दुखलहि नरकहि जाहिं ।।५।। अतीचार ए पाचों त्यागि, सत्य धरमके मारग लागि। परदारा परद्रव्य समान, और न दोष कहे भगवान् ।। परद्रोह सो पाप न और, निधौ श्रुतमें ठौर जु ठौर । जिन जान्यूनिज आतमराम,तिनके परधन सों नहिंकाम ।। सत्य कहें चोरी पर नारि, त्यागी जाइ यहै उरघारि। झंठ बकें तें जैनी नाहिं, परधन हरन न या मत माहिं ।। Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। दोहा-सत्यप्रभावै धर्मसुत, गये मोक्ष गुणकोश । लहे झूठ अर कपटते, दुर्बोधन दुख दोष ।। जे सुरझें ते सत्य करि, और न मारग कोय । जे उरझें ते झूठ करि, यह निश्च उर लोय ॥ सत्यरूप जिनदेव है, सत्यरूप जिनधर्म । सत्यरूप निम्रन्थ गुरु, सत्य समान न पर्म ।। सत्यारथ आतम धरम, सत्यरूप निर्वाण । सत्यरूप तप संयमा, सत्य सदा परवाण ॥ महिमा सत्य सुबत्तकी,कहि न सके मुनिराय । सत्य वचन परभावतें, सेवें सुरनर पाय ।। जैसो जस है सत्यको, तैसौ श्रीजिनराय । जानें केवल ज्ञानमे, परमरूप सुखदाय ॥ और न पूरण लखि सके,कीरति सुर नरनाग। या प्रत धारे सदा, तेहि पुरुष बडभाग ॥६॥ नमस्कार या वृत्तको, जो प्रत शिव-सुख देय । अर याके धारीनको, जे जिनशरण गहेय ।। दया सत्यकों कर प्रणति, भाषा तीजों व्रत्त । जो इन द्वय बिन ना हुवै, चोरी त्याग प्रवृत्त ।। चोरी छाड़ो अड भाई, चोरी है अति दुखदाई। चोरी अपजस उपजावै, चोरीते जस नहि, पावै॥' . घोरीते गुणगण नाशा, चोरी दुबुद्धी प्रकाशा। चोरीतें धर्म नशावै, यह आशा श्रीगुरु गावे ॥ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। चोरीसों माता साता, त्याग लखि अपनो घाता। चोरीसे भाई-बँधा, कबहुं न राखे संबन्धा॥ चोरी ते नारि न नीर, चोरीते पुत्र न तीरै। चोरी ते मित्र बिडारे, चोरी सों स्वामि न धारै ॥ चोरी सो न्याति न पाती,चोरीसों कबहु न साती। चोरी ते राजा दण्डै चोरी ते सीस बिहँडै ।। चोरी ते कुमरण होई, चोरीमे सिद्धि न कोई। चोरी ते नरक निवामा, चोरी ते कष्ट प्रकाशा।। चोरी ते लहै निगोदी, चोरी तेजोनि जु बोदी। चोरीमे सुमति न आवै, चोरीते सुगति न पावै ।। चोरी ते नासे करुणा, चोरीमें सत्य न धरणा । चोरी ते शील पलाई, चोरोमे लोभ धगई ॥७॥ चोरी ते पाप न छूटे, चोरी में तलवर कूटै । चोरी ते ईजति भगा, त्यागा चारनिको संगा। चोरी करि दोष उपावै, चोरी करि मोक्ष न पावै । चोरीको भेद अनेका, त्यागौ सब धारि विवेका ।। परको धन भूले-बिसरे, राखौ मति ज्यो गुण पसरे । परको धन गिरियो परियो, दाबौ मति कबहु न धरियौ। तोला घटिबधि जिन राखे, बोलौ मनि कूडी साखै । कबहू जिन ऐंडा देहो, डाका दे धन मति लेहो । मति दगड़ा लूटौ भाई, दौडाई है दुखदाई । ठगविद्या त्यागौ मित्रा, परधन है अति अपवित्रा ।। काहूकू यो मति तापा, छाडौ तन मन वच पापा । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वणन । पासीगर सम नहि पापी, पर प्राण हरे संतापी ॥ सो महानरकमे जावै, भव-भवमें अति दुख पावै । हाकिम है धन मति चोरी, ले सूंक न्याव मति बोरौ ॥ लेखामें चूक न कारें, इहि नरभव मूढ़ ! न हारें । हरियो परको वित्ता ते पापी दुष्ट जु चित्ता ॥ रुलिहे भव माहिं अनंता, जा परधन प्राण हरंता । चुगली करि मति हि लुटाव, काहूकू नाहिं कुटावौ ॥ परको ईजति मति हरि हो, परको उपगार अ करिहो । धन धान नारि पसु बाला, हरिये काहुके नहिं लाला ॥८०॥ काहूको मन नहिं हरिये हिरदामें श्रीजिन धरिये । तिर नर जीवनकी जीवी मेटौ मति करुणा कीवी ॥ तुम शल्य न राखौ बोरा, करि शुद्ध चित्त गुणधीरा । राका बाधी मति करिहो, काहूकी सोंपि न हरिहो ॥ बोलो मति दुष्ट जु बाके, तुम दोष गहौ मति काके । काहूको मर्म न छेदौ, काहूको छेत्र न भेदौ ॥ काहूको कछू नहिं बस्ता, मति हरहु होय शुभ अस्ता । sewa धारौ वर वीरा, पावौ भवसागर तीरा ॥ जाकरि कर्म विध्वस्ता, सो भाव धरौ परशस्ता । तृण आदि रत्न परजंता, पर धन त्यागौ बुधिवंता ।। afrat रागादिक दोषा, करवौ कर्मनको सोषा । धरि भर्म, धर्म धरि भाई, हुजे त्रिभुवनके राई ॥ अपनो अर परको पापा, हरिये जिनवन्वन प्रतापा । छाड़े जु बदता दाना, करि अनुभव अमृत पाना ॥ Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। चोरी त्यागें शिव होई, चोरी लागे शठ सोई। चोरीके दोय विमेदा, निश्चै ब्यौहार विछेदा ।। निश्चै चोरी इह भाई, तजि आतम जड लवलाई । पर परणति प्रणमन चोरी, छाडे ते जिनमत धोरी ।। तनिकै पर परणति जीवा, त्यागौ सब भाव अजीवा । यह देह आदि पर बस्ता, तिनमो नहिं प्रीति प्रशस्ता ॥१०॥ बिन चेतन जे परपंचा, तिनमे सुख ज्ञान न रंचा। इनमे नहिं अपनो कोई, अपनो निज चेतन होई ।। तातें सुनिके अध्यातम, छाडौ ममता मब आतम । अपनो चेतन धन लेहो, परकी आमा तजि देहो। जे ममता पथ न लागे, निश्चै चोरी ते त्यागे । जब निश्चै चोरी छुटै, तब काल भूपाल न कूटै ॥ इह निउचै वृत्त बखाना, या मम और न कोई जाना। शिव पद दायक यह प्रत्ता, करिये भविजीव प्रवृत्ता ।। जिन त्यागी परकी ममत्ता, तिन पाई आतम सत्ता । अब सुनि व्यवहार सरूपा, जो विधि खिनराज परूपा ॥ इक देव जिनेसुर पूजौ, सेवौ मति जिन विन दूजौ। बिन गुरु निरग्रन्थ दयाला, सेवौ मति औरहि लाला ॥ सुनि श्रीजिनजूके ग्रन्था, मति सुनहु और अघपंथा। मिथ्यात समान न चोरी--धारे तिनकी मति भोरी॥ इह अंतर बाहिज त्यागें, तब ब्रत विधान हिं लागें। सम्यक है आतम भावा, मिथ्यात अशुद्ध विभावा ।। सम्यक निश्चै व्यवहारा, सो धारौ तजि उरझारा । Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वणन । वर प्रत आचारज धारें, ते सर्व दोषकों टारे । या बिन नहिं साघू गनिया, या बिन नहिं श्रावक भनिया। श्रावक मुनि द्वय विध धर्मा, यह प्रत दुहुनको मर्मा ॥१०॥ मुनिके सब ममता छूटी ममतातें दुरमति टूटी। मुनि अवधि न एक घराही, काछु छाने नाहिं कराही॥ देहादिक सों नहिं नेहा, बरसै घट आनन्द मेहा । मुनिके सब दोष जु नासे, तातेसु महाव्रत भासे ॥ मुनिके कछु हरनो नाही, चित लागै चेतन माहीं। श्रावकके भोजन लेई, नहिं स्वाद विर्षे चित देई ।। काम न क्रोध न छल माना, नहिं लोभ महा बलवाना। जे दोष छियालिस टालें, जिनवरकी आज्ञा पालें। ते मुनिवर ज्ञानसरूपा, शुभ पंच महाव्रत रूपा । गृह पतिके कछु इक धंधा, कछु ममता मोह प्रबन्धा ॥ छाने कछ करनो आबे, साते अणुबत कहानै। कूपादिकको जल हरवौ, इह किंचित दोषहु धरवौ। मोटे सब त्यागे दोषा, काइको हरय न कोषा। त्यागौ परधनको हरवौ, छाडौ पापनिको करवौ ॥ संक्षेप कही यह बाता, आगे जु सुनहु अब भ्राता। इह अणुबूतका जु सरूपा, जिनश्रुत अनुसार परूपा ।। अब अतीचार सुनि भाई, त्यागौ पंचहि दुखदाई। है चोरीको जु प्रयोगा, सो पहलो दोष अजोगा ।। चोरीको माल जु लेनों, इह दूजो अघ तजि देनों। थोरे मोले बड़ बस्ता, लेवौ नहिं कबहुं प्रशस्ता ॥१०॥ Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जंन क्रियाकोष। राजाकों हासिल गोपै, राजाकी आणि जु लोपै । इह तीजो दोष निरूपा, त्यागौ व्रतधारी अनूपा। देवेके तोला घाटै, लेवेके अधिका बाटे। इह अतिचार है चौथो त्यागौ शुभमतिते थोथो । बधि मोलमें घाटो मोला, मेले है पाप अतोला । इह पंचम है अतिचारा, त्यागें जिन मारग धारा॥ ए अतीचार गुरु भाखे, जैनी जीवनिने नाखे। चोरी करि दुरगति होई, चोरी त्यागे शुभ सोई॥ चोरी सजि अंजनचोरा, तिरियो भवसागर पोरा । लोह महामन्त्र तप गहिया, दावानल भववन दहिया ॥ अंजन हूमौ जु निरंजन, इह कथा भव्य मनरजन । बहुरी नृप श्रेणिक पुत्रा, है वारिषेण जगमित्रा ।। कर परधनको परिहारा, पायौ भवसागर पारा। चोरी करि सापस दुष्टा, पञ्चा गन माधनि पुष्टा ॥ लहि कोटपालकी त्रासा, मरि नरक गयौ दुख भाषा। दलिदरको मूल जु चोरी, चोरी तजि अर तजि जोरी॥ सब अघ तजि जिनसो जोरी, बिनऊ भैय्या कर जोरी। चोरी तजिया शिव पागै, यह महिमा श्रीजिन गानों ॥ चोरी भव भव भटके, चोरीते सब गुन सटकै। जो बुधजन चोरी त्यागै, सो परमारथ पथ लागे॥२०॥ दोहा-परधनके परिहार बिन, परम धाम नहिं होय । भये पार ते तीसरे, बृत्त बिना नहिं कोय । जे बढ़े नर नरकमें, गये निगोब मजान । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। ते सब परधन हरणतें, और न कोई बखान ॥ भरा आचोरिज तीसरो, सब वृत्तनिमें सार । जो याको धारै बूती, सो उधरै संसार ।। याकी महिमा प्रमु कहें, जो केवल गुणरूप । पर गुणरहित निरजना निर्गुण निर्मलरूप ॥ कहें गर्णिद मुनिन्दवर, करें भव्य परमान । जे धारे ते पावही; पूरणपद निर्वान ।। अल्पमती हम सारिखे, कहे कौन विधि वीर । नमस्कार या वृत्तकों, धारें धर्माधीर ।। जे उरझे ते या बिना, इह निश्चै उर धारि । सुरझे ते या करी, यह बूत है अघहारि ॥ दया सत्य संतोष अर, शीलरूप है एह । उधरै भवसागर थकी धरै या थकी नेह ।। दया सत्य अस्तेयकौं करि बन्दन मन लाय। भाषों चौथो शीलत्रत जो इन बिगर न थाय ॥ इति अचौर्याणुप्रत वर्णन । प्रणमि परम रस शातिको, प्रणमि धरम गुरुदेव । बरणों सुजससुशीलको, करि सारदकी सेव ॥३०॥ शीलतको नाम है, ब्रह्मचर्य सुखदाय । जाकरि चर्या ब्रह्ममें, भवबन भ्रमण नशाय ।। ब्रह्म कहा जीव सब, ब्रह्म कहावें सिद्ध । बारूप कैवल्य जो, ज्ञान महा परसिद्ध । प्रमचर्य सो चूत ना, न परघूम सो कोय। Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जैन-क्रियाकोष । बूती न ब्रह्मा-लवलीन सो, तिरै, भवोदधि सोय ।। विद्या ब्रह्म-विज्ञानमी नहीं दूसरी जान । विज्ञ नहीं ब्रह्मज्ञ सो, इह निश्चै उर आन । ब्रह्म बासना सारिखी, और न रसकी केलि । विषै वासना सारिखी,और न विषकी बेलि ।। आतम अनुभव शक्तिसी और न अमृतबेलि । नहीं ज्ञान सो बलवता, देहि मोहको ठेलि ।। अबूत नाहि कुशील सो, नरक निगोद प्रदाय । नही सील सो संजमा, भाषे श्रीजिनराय ।। धर्म न श्रीजिनधर्मसे नहिं जिनवरसे देव । गुरु नहिं मुनिवर सारिखे, रागीसे न कुदेव ।। कुगुरु न परिबहधारिटै, हिंसामो न अधर्म । भर्म न मिथ्या सूत्रसो, नहीं माह सो कर्म ।। द्रव्य न कोई जीव सा, गुन न ज्ञान सो आन । ज्ञान न केवल ज्ञान सो जीव न सिद्ध समान ॥४०॥ केवलदर्शन सारिखो, दर्शन और न कोई। यथाख्यात चारित्र सो चारित और न होई ।। नहिं विभाव मिथ्यातसो सम्यकसो नहिं भाव । क्षायिकसो सम्यक नहीं, नहीं शुद्धसा भाव ॥ साधु न क्षीणकषायसे,श्रेणि नक्षपक ममान। नहिं चौदम गुण थानसो, और कोई गुणथान ॥ नहिं केवल परतक्षसो, और कोई परमाण । सुकल ध्यानसो ध्यान नहिं, जिनमतसा न बखाण ।। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। ५३ PARAN अनुभवसो अमृत नहीं, नहि अमृतसो पान । इन्द्री रसनासी नहीं, रस न शांतिसो आन । मन गुप्तिसी गुप्ति नहिं,चञ्चल मनसो नाहिं । निश्चल मुनिसे और नहिं,नहीं मौन मन माहिं ।। मुनिसे नहिं मतिवंत नर, नहिं चक्रीसे राव । हलधर अर हरि सारिखो, हेतन कहू लखाव ॥ प्रतिहरिसे न हठी भये, हरिसे और न सूर । हरसे तासम धार नहिं, बहु विद्या भरपुर ।। नारदसे न भ्रमंत नर, भ्रमें अढाई दीप। कामदेवसे सुन्दर नर नहिं जिनसे जगदीप ।। जिन-जननी जिनजनकसे, और न गुरुजनजानि । मिष्ट न जिनवानी समा, यह निश्च परमान ॥५०॥ जिनमूरति मूरति न, परमानंद सरूप । जिनसूरतिसी सूरति न,जासम और न रूप ॥ जिनमंदिरसे मंदिर नहीं जिम तनसो न सुगंध । जिनविभूतिसी भूति नहिं,जिन सुतिसो न प्रबंध ।। जिनवरसे न महाबली, जिनवरसे न उदार । जिनवरसे न मनोहरा जिनसे और न सार । चरचा जिनधरचा समा, और न जगमे कोई । अर्चा जिन अर्चा समा, नहीं दूसरी होइ ।। राज न श्रीजिनराजसे,जिनके राग न रोस । ईति भोति नहिं राजमें, नहीं अठारा दोस । से३ इन्द नरिंद सब, भजहिं फणीस मुनीस। Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। रटे सर ससि सुर सबै,जिनसम और न ईस ॥ अर्चे सहमिंद्रा महा, अरचे चतुर सुजान। हरिहर प्रतिहरि हलि मदन, पूजें चक्रिपुमान ।। गुरुकुल कर नारद सबै, सेवेतन मन लाय । अगमें श्रीजिनरायसा, पूज्य न कोई लखाय ॥ तीर्थकर पद सारिखा,और न पद जग माहिं । बनवृषभनाराचसो, संहनन कोइ नाहिं ।। समचतुरजसंठानसो, और नहीं सठाण । पुरुष मलाका सारिखा, और न कोई जाण ॥६॥ चक्रायुध हलायुधा, जे हैं चर्मसरीर । ते तीर्थकर तुल्य है, कुसमायुध सब धीर ।। और हु चर्मसरीर धर, तदभव मुक्ति मुनीस । ते जिननाथ समान हैं, नमें सुरासुर सीस ॥ नहीं सिद्ध पर्यायसी नहीं और पर्याय । नहीं केवलीकायसी, और दूसरी काय ॥ महंत सिध साधु सबै, केवलि भासित धर्म । इन चउसे नहि मंगला, उत्तम और न पर्म । इन चउसरणन मारिखे, सारण नहिं जगमाहि। संघ न चउविधि मघसे, जिनके संसय नाहिं ।। चोर न इन्द्री-चित्तसे, मुसे धर्मधन भूरि । चारितसे नहिं नलवरा, डारै चारनि चूरि ।। जैसें ए उपमा कहीं, तैसें शील समान । व्रत न कोई दूसरो, भाषे श्री भगवान ।। Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। क्या सर्वगसे नहीं श्रोता गणधरसे न। कथन न मातम झानसो, साधक साधू जिसेन ॥ बाधक नहिं रागादिसे, तिनहिं तर्जे जे गिन्द। नहिं साधन समभावसे, धारें धीर मुनिंद ।। पाप नहीं परदोहसो, त्यागें सज्जन सन्त । पुन्य न पर उपगारसो, धार नर मतिवंत ॥ ७० ॥ लेस्या शुकल समान नहिं, जामें उज्जल भाव । उज्वलता न कषाय सी और न कोई लखाव । दया प्रकाशक जगतमें, नहीं जैन सो कोइ । पर्म धर्म नहिं दूसरो दया सारिखो होइ ।। कारण निज कल्याणको, करुणा तुल्य न जानि । कारण जिन विश्वासको, नहीं सत्यसो मानि ।। सत्यारथ जिनसुत्रसो, और न कोइ प्रवानि । सर्व सिद्धिको मूल है, सत्य हियेमे आनि ।। नहिं अचौर्यबत सारिखो, भै हरि भ्राति निवार । नहिं जिनेन्द्र मत सारिखौ, चोरी बरज उदार। नहीं सीलसो लोकमें, है दूजो अविकार । कारण शुद्ध स्वभावको, भवजलतारण हार ।। नहिं जिनसासन सारिखौ, शील प्रकाशनहार । या संसार असारमे जा सम और न सार ।। नहिं सन्तोष समान है, सुखको मूल अनूप। नहीं जिनेसुर धर्मसों, वर सन्तोष स्वरूप॥ कोमल परिणामानिसो, करुणाकारक नाहिं। Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । नहिं कठोर भावानिसो, दयारहित जग माहिं ॥ नहि निरलोभ स्वभावसो सत्य मल है कोइ। नहीं लोभसो लोकमे, कारण मिथ्या होइ ।।८।। मूल अचोरिज बृत्तको, निसाहतासो नाहिं। चोरी मूल प्रपंचमो, नहीं लोकके माहिं ।। राजवृद्धिको कारणा, नहीं नीनिसो जानि । नाहिं अनीति प्रचारसो, राजविघन परवानि ॥ कारण सजम शीलको, नहिं विवेकमो मानि । नहिं अविवेक विकारसो, मूल कुशील बखानि ॥ मूल परिगृहत्यागको, नहि वैराग समान ॥ परिगृह संग्रह कारणा, तृष्णा तुल्य न आन। करुणानिधि न जिनेन्द्रसो, जगतमित्र है सोय ॥ नहिं क्रोधीमो निरदई, सर्वनाशको होय ।। सनवादी सर्वज्ञ से, नहीं लोकमे कोइ । कामी लोभीसे नहीं, लापर और न होइ ।। सम्यकदृष्टी जीवसो और बिसन मदमोर । मिथ्यादृष्टी जीवसो, और न परधन चोर ॥ समताभाव न मत्यमो, सीलवंत नहीं धीर । लम्पट परिणामी जिसो, नाहिं कुशीली वोर ॥ निसप्रेही निरदुन्दसो, परिग्रह त्यागी नाहिं। तृष्णातन्त असंतसो, परिग्रहवंत न काहिं ॥ दारिदभंजन जस करण, कारण सम्पति कोइ । नहीं दानसो दूसरो, सुरग मुक्ति दे सोइ ॥१०॥ Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। घउ दाननसे दान नहि, औषध और अहार। अभयदान अर ज्ञानको, दान कहें गणसार ॥ रागादिक परिहारसो, और न त्याग बखान । त्याग समान न सूरता, इह निश्चे परवान ॥ तप समान नहिं और है, द्वादश माहिं निधान । नहीं ध्यानसो दूसरो, भाणे श्रीभगवान ॥ ध्यान नहीं निज ध्यानसो, जो कैवल्यशरीर । जा प्रमाद भवरूप मिटि, जीव होय चिद्र प ।। क्षीणमोहसे लोकमें ध्यानी और न जानि ॥ कारण आतमध्यानको, मन निश्चलता मानि ।। कारण मन वसिकरणको, नहीं जोगसो और। जोग न निज संजोगसो, है सबको सिरमौर ॥ भोग न निज ग्स भोगसो, जामें नाहिं विजोग। रोग न इन्द्री भोगमो इह भाणे भवि लोग। शोक न चिन्ता सारिखौ, विकलरूप बडरूप । नहि संसय अज्ञानसो, लखौ न चेतन रूप ।। विकलप जाल प्रत्यागसो, और नहीं वैराग। वीतरागसे जगतमें, और नहीं वड़भाग ॥ छती संपदा चक्रिकी, जो त्यागै मतिवंत । ता सम त्यागी और नहि, भाणे श्रीभगवंत ॥१०॥ चाहे अछति भूतिको, करै कल्पना मूढ़। ता सम रागी और नहि, सो सठ विषयारूढ़ नव जोबनमें ब्याह सजि, बालबाह्य प्रत लेय । Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ जैन-क्रियाकोष । ता सम वैरागी नहीं, सो भवपार लहेय ॥ कंटक नहिं क्रोधादिसे, चढिजु रहे गिरमान । मुनिवरसे जोधा नहीं, शस्त्र न कुशल समान ॥ भाव समान न भेष है, भाव समान न सेव । भाव समान न लिंग है, भाव समान न देव ॥ ममता-माया रहितसो, उत्तम और न भाव । सोई सुध कहिये महा, वर्जित सकल विभाव ॥ कारण आतमध्यानको, भगवत भक्ति समान । और नहीं मसारमे, इह धारौ मतिवान ॥ विघन हरण मंगल करन, जप सम और न जानि । जप नहिं अजपाजापसो, इह श्रद्धा उर आनि ।। कारण राग विरोधको भाव अशुद्ध जिसौन । कारण सगता भावको विरचित भाव तिसौन ॥ कारण भवन भ्रमणके, नहिं रागादि समान । कारण शिवपुर गमनको नहीं ज्ञानसो आन ॥ सम्यग्दर्शन ज्ञान व्रत ए रतनत्रय जानि । इनसे रतन न लोकमे, ए शिवदायक मानि ॥ १० ॥ निज अवलोकन दर्शना, निज जाने सो ज्ञान । निज स्वरूपको आचरण सो चारित्र निधान ॥ निजगुण निश्चय रतन ये, कहे अभेदस्वरूप । विवहारै नव तत्वकी, श्रद्धा अविचल रूप ॥ तत्वारथ श्रद्धा नसो, सम्यग्दर्शन जानि । नव पदार्थ को जानिवौ सम्यग्यान बखानि ॥ Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन | विषयकषाय व्यतीत जो सो विवहार चरित्र । ए रतनत्रय भेद हैं, इनसे और न मित्र ॥ देव जिनेसुर गुरु जती, धर्म अहिंसा रूप | इह सम्यक व्यवहार है, निश्चय निज चिद्रूप ॥ नहिं निश्चय व्यवहारसी, सरधा जगमें कोइ । ज्ञान भक्ति दातार ये जिन भाषित नय दोइ ॥ भक्ति न भगवत भक्तिसी, नहिं आतमसो बोध | रोध न चित्तनिरोधसो, दुरनयसो न विरोध ॥ दुर्मती नहिं साकिनी, हरै ज्ञान सो प्रान । नमोकार भो मंत्र नहिं, दुरमति हरै निधान ॥ नहिं समाधि निरुपाधिसी, नहि तृष्णासी व्याधि । तंत्र न परम समाधिसो, हरै सकळ व्यसमाधि ॥ भवयंत्र जुभयदायको तासम विघन न कोय | सिद्ध यंत्र सो सिद्धकर, और न जगमें होय ॥ २० ॥ सिद्धक्षेत्रसो क्षेत्र नहिं, सर्व लोकके सीम । यात्री जतिवरसे नहीं, पहुंचे तहा मुनीस ॥ षोड़सकारण सारिखा, और न कारण कोय | तीर्थेश्वर भगवंतसा, और न कारज होय ॥ नाहीं दर्शन शुद्धिसा, षोडस माहीं जान । केवल रिद्धि बराबरी, और न रिद्धि बखान ॥ नहि लक्खण उपयोगसे, आतमतें जु अभेद । नाहिं कुलकण कुबुधिसे, करें धर्म को छेद || धर्म अहिंसा रूपके भेद अनेक बखान । Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जन-क्रियाकोष। नहिं दशलक्षण वर्मसे, जगमें और विधान ॥ क्षमाउत्तमा सारिखौ, और दूसरो नाहिं। दशलक्षणमें मुख्य है, क्रोधहरण जग माहि ॥ नीर न शाति स्वभावसो, अगनि न कोप समान । मान समान न नीचता, नहीं कठोरता आन ।। मानीको मन लोकमें, पाहन तुल्य बखान । मान समान अज्ञान नहीं, भाखें श्रीभगवान || नि गरब भाव समानसो, मद नहिं जगमे और । हरै समस्त कठोरता, है सबको सिरमौर ॥ कीच न कपट समानसो, वक्र न कपट समान । सरल भावसो उज्वल न सूधौ कोइ न आन ॥ ३०॥ आपद लोभ समान नहि, लोभ समान न लाय । लोभ समान न खाड है, दुख औगुन समुदाय ।। नहिं सतोष समान धन, ता सम सुखी न कोय । नहि ना सम अमृत महा, निर्मल गुण है मोय ॥ शुभ नहि निर्मल भावमो, जहा न सशुभ सुभाव । नहीं मलीन परिणामसों, दूजो कोई कुभाव ॥ सन्देह न अयथार्थसो, जाकरि भर्म न जाय । नहीं जथार्थसो लोकमे, निस्सन्देह कहाय ॥ नाहि कलक कषायसो, भाणे श्रीभगवन्त । नि.कलक अकषायसे, करै कर्मको अन्त ।। शुचि नहिं मनशुचि सारिखी, करै जीवको शुद्ध । अशुचि नहीं मन अशुचिसी इह भाणे प्रतिबुद्ध । Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन | नहीं असंजम सारिखौ, जगत डुवावन हार । नहीं संजमसो लोकमें, ज्ञान बढावन हार ॥ बंचक नहि परपंचसे, ठगे सकलको सोइ । विषैबाना सारिखी, नाहिं ठगौरी कोइ ॥ नहिं त्रिलोकमें दूसरो, तपसो ताप १ निवार । त्रिविध तापसे ताप नहीं, जरा जन्म मृतिधार२ ॥ इच्छासी न अपूरणा, पूरी होइ न सोइ । नहि इच्छा जु निरोधमी, तपस्या दूजा होइ ॥ ४० ॥ त्याग समान न दूसरो, जग जंजाल निवार । नहीं भोग अनुरागसो नरकादिक दातार ॥ नहीं अश्विन मारिखौ, निरभय लोक मंझार । नर परिगरही सारिखौ, भैरूप न निरधार || परिहसो नहिं पापगृह, नहिं कुशीलसो काद‍ | ब्रह्मचर्यमो और नहीं, ब्रह्मज्ञानको बाद || नहीं विषैरम सारिखौ, नीरस त्रिभुवन माहि । अनुभवरस आस्वादमो, सरस लोकमें नाहि ॥ अदयासी नहीं दुष्टता, अनृतसो न प्रपंच | छल नहीं चोरी सारिखौ, चोर समान न टंच (१) हि सकसो नहीं दुर्जना, हरे पराये प्राण | नहीं दयालसो सज्जना, पीरा हरै सुजाण ॥ नहीं विश्वासघाती अवर, झूठे नरसो कोय | नहीं भक्चारीसो बना, -चारी जगमें होय ॥ १ दुःख | २ मृत्यु । ३ कीचड़ । 高雄 Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ટ जैन-क्रियाकोष | विकासोन प्रलाप है, आरतिसो न विलाप । थाप न द्वय नय थापसो, जिनवरसो न प्रताप ॥ सन्ताप न को मोकसो, लोक न सिद्ध १ समान । धन प्राणनके नाशसो, और न शोक बखान ॥ जडजिय २ सो अमलाप नहीं, गुणमणिमो न मिलाप । श्रीजिनवर गुणगानसो, और न कोई अलाप ॥ ५० ॥ नहि विकथा नारिनिसी, कथा न धर्म समान । नहीं आरति भोगात्ति सी, दुरगतिदाई आन ॥ कार समान नहीं, सर्व शास्त्रकी आदि । महा मगलाचार है, यह उपचार अनादि ॥ नाद न मोऽहं सारिखौ, नहीं स्वरस३मो स्वाद । स्यादवाद सिद्धातसो, और नहीं अविवाद ॥ एक एक नय पक्षसो, और न कोई स्वाद । नाहिं विषाद विवादसो निद्रासो न प्रमाद || सत्यानगृद्धिनिद्रा जिसी, निद्रा निथ न और । परनिंदामो दोष नहिं, भाषें जिन जगमौर ॥ निंदा चविधि संघकी, ता सम अघ नहिं कोय । नाहि मुनिसे अध्यातमी, सर्व विषय प्रतिकूल ॥ विषय कषाय बराबरी, बैरी जियके नाहिं | ज्ञान विराग विवेकसे, हितु नहिं जग माहिं || अध्यातम चरचा समा, चरचा और न कोय । जिनपद अरचा सारिखी, अरचा४ और न होइ ॥ १ मोक्ष । २ मूख । ३ आत्मरस । ४ पूजा Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। नाहिं गणधिपसे महा,-- चरचाकारक जानि । नाहिं सुरधिप सारिखे, अरचाकारक मानि ॥६०॥ गमन न ऊरध गमनसो, नहीं मोक्षसो घाम । रोधक नाहीं कर्मसे, हरो कर्म तजि काम ।। शत्रु न कोई अधर्मसो, मित्र न धर्म समान । धर्म न वस्तुस्वभावसो हिंसा रहित बखान ॥ निज स्वभावको विस्मरण, नहिं ता सम अपराध । साधे केवलभावकों ता सम और न साध ॥ नर देही सम देह नहि,लिङ्ग न पुरुष समान । वेद नहीं नर वेदसो, सुमन समो न सयान ।। त्रम काया सम काय नहि,पंचेन्द्री जा माहिं । पंचेन्द्री नहि मिनषसे जे मुनित्रत घराहिं।। मुनि नहि नदभवमुक्तिसे, जे केवलपद पाय । पहुंचे पचमगति१ महा, चहुंगति भ्रमण नशाय ।। गति नहिं पंचमगति जिसी, जाहि कहै निजधाम । अविनश्वरपुर नाम जो, जो सम नगर न राम ॥ नाहिं सुद्ध उपयोगसो मारग सूधौ होय । नहीं मारग मुक्तिको, भवविरक्तिसो कोय ।। लोक शिखरसो ऊंच नहिं, सबके शिरपर सोय । नहीं रसातल सारिखौ नीचो जगमें जोय ॥ जितमनइन्द्री धीरसे और न घर बखानि । विषयी विकलनि सारिखे, और न निच प्रवानि ॥७॥ १मोक्ष। - - Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेन-क्रियाकोष। नहिं अरिष्ट अघकर्मसे, शिष्ट न शुभग समान । नाहिं पञ्चपरमेष्टिसे, और इष्ट परवान । जिनदेवलःसे देवल न, नहीं जैनसे बिम्ब । केवलमो ज्ञायक नहीं, जामे सब प्रतिबिब ॥ नाहिं अकर्तम सारिखे देवल अतिसैरूप । चैत्यवृक्षसे वृक्ष नहि, सुरतरुमें हु अनूप ।। जोगी जिनवरसे नही, जिनकी अचल समाधि । निजरस भोगी ने सही वर्जित सकल उपाधि ॥ इन्द्रिय भोगी इन्द्रसे नाहिं दूसरे जानि । इन्द्री जीत मुनिन्द्रसे, इन्द्रनरेन्द्रनि मानि । राग दोष परपञ्चसे, असुर और नहि होय ।। दर्शन-ज्ञान-चरित्रसे, असुर नाशक न कोय ।। काम-क्रोध-लोभादिसे नाहिं पिशाच बखानि । १ इन्द्रियोंको जीतनेवाले। २ वन्दना । ३ मन्दिर । सम सनोष विवेकसे, मत्राधीश न मानि ।। माया मच्छर मानसे, दुखकारी नहिं वीर । निगरव निकपटभावसे सुखकारी नहि धीर ।। मैल न कोइ मिथ्यातसो, लग्यौ अनादि विरूप । साबुन भेदविज्ञानसो, और उज्वलरूप ॥ मदन-दर्पसो सर्प नहिं, डस देव नर नाग२। गरुड न कोई शीलमो, मदनजीत३ बडभाग ॥८॥ मैल न मोहासुर समो, सकलकर्मको राव। महामल्ल नहि बोध सा, हरै मोह परभाव ।। Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। भर्म न कोई कर्मसे, कारण संसै आनि । भृमहारी सम्यक्तसे, और न कोई मानि ॥ विष नहिं विषयानंदसे, देहि अनन्ता मर्ण । सुधा न ब्रह्मानन्दसो, अनुभवरूप अव ।। कूर न क्रोधी सारिखे, नहीं क्षमीसे शात । नीच न मानी सारिखे, नि गरवसे न महात ॥ मायावीसो मलिन नहि, विमल न सरल समान। चिंतातुर लोभीनसे दीन न दुखी अयान ।। दुष्ट न दोषी सारिखे, रागिसे नहिं अन्ध । अहंकार ममकारसो, और न कोई बन्ध । १ मत्सर । २ सर्प । ३ कामदेव । मोहीसे नहिं लोकमे, गहलरूप मतिहीन । कामातुरसे आतुर न, अविवेकी अघलीन ।। श्रण नहिं आस्रव-बंधसे राखे भवमे रोकि । मुनिवरसे मतिवन्त नहिं छूटें ब्रह्म विलोकि ।। संवर निर्जर सारिखे, रिणमोचन नहिं कोई। दुर्जर कर्म हरें महा, मुक्तिदायका सोइ । विपति न वाछा सारिखी वाछा रहित मुनीस । मृगतृष्णा मिथ्या जसो और कहें रिषीस ॥१०॥ समतासी संसारमें साता कोइ न जानि । सातासी न सुहावणी, इह निश्चे घर आनि ॥ ममतासी मानों भया, और असावा नाहिं। नाहिं असाता सारिखी, है मनिष्ट जगमाहिं॥ Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष | धीर ॥ माहिं । उदासीनता सारिखी समताकरण न कोय । जग अनुराग समानता, समता भूल न जोय ॥ नाहिं भोग- अभिलाषनी, भूख अपुरण वीर । नाहिं भोग-वैरागसी, पूग्णता है नाहीं विषयासक्तिसी, त्रिषा त्रिलोकी विरकततात्री विश्वमे, और तृषाहर नाहिं ॥ पराधीनता सारिखी, नहीं दीनता कोइ । नहिं कोई स्वाधीनता, तुन्य उचता होइ ॥ नाहीं समरसीभावसी, समता त्रिभुवन माहिं । पक्षपात बकबादसीं और न बिकथा नाहिं || जगतकामना कलपना, -तुल्य कालिमा नाहि । नहीं चेतना सारिखी, ज्ञायक त्रिभुवन माहिं || ज्ञानचेतना सारिखी, नहीं चेतना शुद्ध । कर्म कर्मफल चेतना, ता सम नाहिं अशुद्ध ॥ नर निरलोभी सारिखे, नाहिं पवित्र बखान | सतोषी से नहिं सुखी इह निश्चै परवान ॥१००॥ निरमोही अर निरममत, ता मम संत न कोय । निरदोषी निरबैरसे, साधू और न कोय ॥ दोष समान न मोषहर राग समान न पासि । मोह समान न बोधहर, ए तीनू दुखरासि ॥ व्रती न कोइ निसल्यसो, माया तुल्य न शल्य | हीन न जाचिक सारिखौ त्यागीसे न अतुल्य ॥ कामीसे न कलंकधी काम समान न दोष । Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। परदारा परद्रव्यसो, और न अघको कोष । सल्य समान न है मली, चुभी हियेके माहि । नहिं निरदोय स्वभावसो, मूढा और कहाहिं (2) शोच न संग समान है, सङ्ग न अङ्ग समान । अङ्ग नहीं द्वय अङ्गसे, तिनहिं त निरवान ।। कारमाण अर तैजसा, ए द्वय देह अनादि । लगे जीवके जगतमें, रोग महा रागादि । गेह समान न दूसरो, आ, कारागेह । देह समान न गेह है, त्यागौ देह-सनेह ।। ए काया नहि जीवको, सो है ज्ञान शरीर। मृत्यु न ज्ञान शरीरको, नहीं रोगको पीर ॥ नाही इष्ट वियोगसो, सोगमूल है कोइ । काया माया सारिखौ, इष्ट न जगके जोइ॥१०॥ नहि संकल्प विककल्पसो,जाल दूसरोजानि । नहिं निरविकलप ध्यान सो,छेदक जाल बखानि ।। नहीं एकता सारिखी परम समाधि स्वरूप। नहीं विषमतासी अबर सठता रूप विरूप ।। चिन्तासी असमाधि नहिं, नहिं तृष्णासी न्याधि। नहीं ममतासी मोहनी, मायासी नवपाधि ।। ज्ञानानदादिक महा, निजस्वभाव निरदाव । तिनसों तन्मय भाव जो, मो एकत्व महाव ।। आशासी न पिशाचिनी आसासी न असार । नहीं जाचना सारिखी, लघुता जगत मंझार ।। Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष | दानकलासी दूसरी, दुख हरणी नहिं कोइ । ज्ञानकलासो जगतमे सुखकारी नहिं होइ ॥ नहिं क्षुधासी बेदना व्यापै सबकों सोइ । अन्न-पान दातारसे, दाता और न होइ || पर दुखहरणी सारिखी गुरुता और न जानि । पर पीडा करणी समा खलता कोइ न मानि ॥ शुद्ध पारणामिक ममा, और नाहिं परिणाम । सकल कामना त्यागमो और न उतम काम || धर्म सनेही सारिखा, नाहिं मनेही होइ । विषै सनेही सारिखा और कुमित्र न कोई ||२०|| सर्व वासना त्यागसी, और न थिरता बीर । कष्ट न नरक निगोदसे, नहीं मरणसो पीर ॥ राज-काज अभ्याससो और न दुरगतिदाय । जोगाभ्यास अभ्याससो और न रिद्धि उपाय || नहिं विराधना सारखी, वाघाकरण कहाहिं । आराधनसी दूसरी, भवबाधाहर नाहिं ॥ निजसरूप आराधना, अचल समाधि स्वरूप । ता सम शिवसाधन नहीं, यह भाषें जिनभूप ॥ for सत्तासी निचला और न मानो मित । आधि-व्याधि ते रहित जो, ध्यावौ निचित ॥ निज सत्ताको भूलि जे रार्चे माया माहि । धरि धरि काया ते भ्रमें, यामें संसै नाहि ॥ मुनित्रत तजि भवभोगकों, चाहे जे मतिमंद । Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वणन। rum तिनसे मूढ न लोकमें, इह भायें जिनचंद ॥ वृद्ध भये हू गेहको, जे न तजे मतिहीन । तिनसे गृद्ध न जगतमे, कापुरुषा न मलीन । गेह सजें नववर्षके, धरें महाव्रत सार । तिनसे पृज्य न लोकमे, ते गुणवृद्ध अपार ।। नहिं बैरागी जीक्से, निरबंधन निरुपाधि । नहीं जु रोगी सारिखे धारक आघि रु व्याधि ॥३०॥ निजरस आस्वादन विमुख, भुगतें इन्द्रीभोग। नरकबासना ते लहैं, तिनसे नाहिं अजोग । अभविनिसे न मभागिया,भव्यनिसे न सभाग। निकटभव्यसे भव्य नहिं, गहें ज्ञान वैराग ॥ नहिं दरिद्र दुरखुद्धिसो दलदर सो न दुकाल । नहिं संपति सनमति जिसी,नहीं मोह सो जाल। नहीं समीसे संयमी, तसा नाहिं विधान । नहिं प्रधान निजबोधसो,निज निधिसो न निधान ।। कोष न गुणभडारसो, सदा अटूट अपार । औगुनसो नहिं गुणहरा,भव भव दुखदातार ।। खल स्वभावसो औगुन न,गुण न सुजनता तुल्य । सत्य पुरुष निरवेरसे, जिनके एक न शल्य ।। खलजन दुरजन सारिखे और दूसरे नाहिं । भवबन सो वन नाहिं कौ भ्रमै मूढ जा माहि॥ विषवृक्ष न वसुकर्मसे, नानाफल दुखदाय । बेलि न मायाजालसी अगजन जहा फसाय ॥ Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । दुरनयपक्षी सारिखे नाहिं कुपक्षी आन । दैत्य न निरदयभावसे तिमर न मोह समान ॥ मद उनमाद गयदसो, और न बनगज कोइ । कूरभावसो सिंह नहिं, ठग न मदनसो होइ ॥ ४० ॥ अजगर अज्ञानसो, प्रसें जगतको जोइ । न रक्षक निजध्यानमो, काल हरण है सोइ ॥ थिर घरसे (१) नहिं वनचरा, बसे सदा भव माहिं । नहिं कंटक क्रोधादिसे, दया तिनूमें नाहिं || विष पहुप न विषयादिसे, रहै कुंवासन पूरि । नाहिं कुपुत्र कुसूत्रसे, ते या वनमें भूरि ॥ पंथ न पात्रे जगतमे, मुकति तनों जग जंत । कोइक पावै ज्ञान निज, सोई लहै भव अंत ॥ नहि सेरी जिनबानिसी, दरसक गुरुसे नाहिं । नगर नहीं निरवाणसो, जहा संतही जाहिं ॥ नहिं समुद्र ससारमो, अति गंभीर अपार । लहर न विषैतरंगसी मच्छ न जमसा भार ॥ भ्रमण न चहूगति भ्रमणसो, भरमे जीव व्यपार । पौन न मुनिश्रतसो महा, करे भवोदधि पार ॥ द्वीप नहीं शिवद्वीपमो, गुन रतननकी रासि । तीरथनाथ जिनंदसे, सारथवाह न भासि ॥ अधकूप नहि जगतमो परै तहा तनधार । जिन विन काढे कौन जन, करिकै करुणा सार ॥ नाहिं भवानल सारिखी, दावानल जग माहिं । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन | जगतन्वरावर भस्म कर, यामें संशय नाहिं ॥५०॥ जिनगुण अंबुधि शरण ले, ताहि न याको ताप । तातें सकल विलाप तजि, सेवौ व्यप निषाप ॥ नहीं वायु अगवायुसी, जगत उड़ावै जोय । काय टापरी बापरी, यापै टिके न कोय ॥ जिनपद परवत आसरा, जो नर पकरे माय । सोई यामे ऊबरें, और न कोई उपाय | नाहिं अतिंद्री सुक्खसो, पूरण मरमानंद । नाहिं अफंद मुनिंद्रसो, आनंदी निरदुन्द ॥ नहिं दिक्षा दुखहारिणी, जिनदिक्षासी कोय । नहिं शिक्षा सुख कारिणी, जिनशिक्षासी होय ॥ चाल जोगीरासा । फंद न कनककामिनी सरिखा, मृग नहिं मूरख नरसा । नाहिं अहेरी काम लोभसा, सूर न अंध सु नरसा ॥ काटत फंद न बोधवत्तसा, मंदमती न अभविसा । बुद्धिवंत नहिं भव्यजीवसा, भव्य न तद्भव शिवसा ॥ पुरुष सलाका महाभागसे, तथा चरम तन धरसे । और न जानों पुरुष प्रवीना, गुरु नहिं तीर्थकरसे ॥ ते पहली भाषें गुणवंता, अब सुनि देवस्वरूपा । इन्द्र तथा अहिमिन्द्र इन्द्र न घट इन्द्रनिसे कोई सौधर्म सरीखे और न देव अनूपा ॥ ·3 सनतकुमार ! झेन्द्र जु भर लान्तव इन्द्रा, मानत आारण सारा ॥ प एका भवतारी भाई नर डाॅ शिवपुर देवें । Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। सम्यकदृष्टी इन्द सबै ही, श्रीजिनमारग सेर्वे ॥ लोकपालहू सन्यकदृष्टी, इकभव धरि भवपारा। इन्द्र सारिखे सुर ये सोहै, इनसे देव न सारा॥ देवरिषी लौकातिक देवा, तिनसे इन्द्रहु नाही। ब्रह्मचर्य धारत ए देवा,इनसे भुवन न माही ॥ सप कल्याणक समये सेवा,-करें जिनेसुरकीये । नर ह्र पावें पद निरवाना, राखें जिनमत हीये ॥ इंद्राणीसी देवी नाही इन्द्राणी न शचीसी। इक भघ धरि पावै सुखबासा नीर्थकर जननीसी ॥६॥ सेवक देव जिनेसुरजूके, नाहिं सुरेसुर तुल्या । शची मारिखी भक्त न कोई,धारे भाव अतुल्या । कल्याणक ए पाचू पुजें, शची शक्र जिनदासा । अहनिमि जिनवर चरचा इनके, धारे अतुल विलासा ॥ दोहा-अब सुनि अहमिंद्रा महा, स्वर्ग ऊपरै जेहि । नव श्रीवक नव अनुदिमा, पंचानुत्तर लेहि ।। तेईसौं शुभ थान ए, तिनमें चौदा सार । नव अनुदिश पंचोत्तरा, ये पावे भवपार ॥ सम्यकदृष्टी देव ए, चौदहथान निवास । चौदहमे नहिं पंच से, महा सुखनकी रास ॥ पंचनिमे सरवारथी-सिद्ध नाम है थान। सफल स्वर्गको सीस जो ता सम लोक न आन॥ एकाभवतारी महा, सरवारथसिधि बास । तिनसे देव न इन्द्र कोड, अहमिद्रा न प्रकाश ॥ Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन | कहे देवमें सार ए, तैसे ब्रतमे सार । शील समान न गुरु कहें, शील देय भवपार || देव माहिं जे समकिती, देव देव हैं जेहि । देव माहिं मिया मती, पशुतें मूरख तेहि ॥ नारकमे जे समकिती, तिनसे देव न जांनि । तिरजचनिमे श्राविका, तिनसे मिनष न मानि ॥ मिनपनमे जे अब्रती, अज्ञानी मतिमन्द । तिनसे तिरजचा नहीं, सेवें विषय सुछन्द ॥ ७० ॥ मिनपनि माह मुनिन्द्रजे, महाव्रती गुणवान । तिनसे अहमिन्द्रा नही, ताको सुनहु बखान ॥ थावर नहि क्रमिकीटसे, ते सकलिन्द्रीसे न । पंन्द्री नहिं नरनसे, नर जु नरेन्द्र जिसे न ॥ महामंडलिकसेन नृप, ते अधचक्री सेन । अचक्री नहि चक्रिसे, ज्ञानवान गण सेन ॥ नाहिं गणेन्द्र जिनेन्द्रसे जे सबके गुरुदेव । इन्द्र फणिन्द्र नरेन्द्र मुनि, करें सुरासुर सेव ॥ ते जिनेन्द्र हू वप सर्वे करे सिद्धक ध्यान । सिद्धनिसो संसारमे, नाहिं दूसरो आन ॥ सिद्धनिमो यह आत्मा, निश्चय नय करि होय ॥ सिद्धलोक दायक महा, नहीं सीलसो कोय । भूमि न अष्टम भूमिसी, सर्व भूमिके शीश । कर्म भूमितें पावही, अष्टम भूमि सुनीश ॥ दीप अढ़ाईसे नहीं, असंख्यात ही द्वीप । Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। महा ऊपजै जिनवरा, तीन भुवनके दीप ।। नहिं जिन प्रतिमा सारिखी, कारण वर वैराग । नहीं आन मूरति जिसी, कारण दोष रु राग ॥ नहिं अनादि प्रतिमा समा सुन्दर रूप अपार । नाहिं अकर्तम सारिखे, चैत्यालक विस्तार ।। ८० ॥ क्षेत्र न आरिज सारिखे, सिद्ध क्षेत्र है सोइ । भरतैरावत दस सबै, नहिं विदेहसे कोइ ॥ गिरि नहिं सुरगिरि मारिखे, तरु सुरु तरुसे माहि । नदी सुरनदीसी नहीं, सर्व नदोके मांहि ।। शिला न पाडुकशिलसमा, जा परि न्हावै शीश। सिद्ध सिलासी पाडु नहीं, म त्रिभुवनके शीश ॥ उदधि न क्षीरोदधि समा, द्रह पदमादि जिसे न । मणि नहि चिन्तामणि ममा, कामधेनुमी धेनु ॥ निधि नहीं नवनिधि सारिखी, सो जिननिधिसी नांहि । नहीं समुद्र गुण सिन्धुसो, है जिन निधि आ माहि ।। नन्दनादिसे बन नहीं, ते निज बनमे नाहि। निज बनमे क्रीडा करें ते आनन्द लहाहिं।। केवल परिणति सारिखी, नदी कलोलनि कोइ । निजगंगा सोई गनों ता सम और न होइ ।। देव न आतम देवसो, गुण आतमसो नाहिं । धर्म न आतम धर्मसो, गुन अनंतजा माहिं ।। बाजा दु दुभि सारिखा, नहीं अगतमें और । राजा जिनवरसो नहीं, तीन भुवन सिरमौर ।। Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। नाहिं अनाहत तुरसे, देव दुंदुभी तूर । सरन तिनसे जे नरा, डारे मन मथ चर ॥६॥ वाहन नहीं विमानसे, फिरें गगनके माहि । नाहिं विमानजु ज्ञानसे जाकरि शिवपुर जाहिं॥ हीन दीन अति तुच्छ तन, नहिं निगोदिया तुल्य । सरवारथसिधि देवसे, भववासी नहिं कुल्य ।। दीरघ देह न मच्छसे, सरसर जोजन देह । चौइन्द्री नहिं भ्रमरसे जोजन एक गनेह ।। कानखजुऱ्यासे नहीं ते इन्द्री त्रय कोस । बेइन्द्री नहिं संखसे तन अढतालीस कोस । एकेन्द्री नहिं कमलसे, सहसर जोजन एक । सब परि करुणा राखिबौ, इह निज धर्म विवेक ।। घात न कनक समानसो, कोई लगे न जाहि । सोहु न चेतन घातसो, नहिं कबहूं बिनसाहि ।। पारससे पाषाण नहिं, लोहा कनक कराय । पारसनाथ समान कोऊ, पारस नाहिं कहाय ॥ ध्यावौ पारसप्रभु महा, बसै सदा जो पास। राशि सकल गुण रतनकी, काट कर्मजु पासि ।। चातुरमासिक सारिखे, उतपत जीवन आन । प्रती जतीसे नाहिं कोऊ, गमन तजें गुणवान ।। जिन कल्याणक क्षेत्रसे, और न तोरथ जान । तेहु न निज तीरथ जिमै, इह निश्चै कर मान ॥१०॥ निज तीरथ निज क्षेत्र है, असंख्यात परदेश। ६ Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । तहा विराने आतमा, जानै भाव असेस ।। अष्टमि चउदसि सारिखी, परवी और न जानि । आष्टाह्निकसे लोकमें, पर्व न कोइ प्रवानि ।। नंदीसुर सो धाम नहीं, जहा हरख अति होय । नंदादिक वापीन सी, नहीं वापिका कोय ।। नारकसे क्रोधी नहीं, शठ नर सो न गुमान । विकल न पशुगण सारिखे, लोभ न दंभ समान ।। नारकसे न कुरूप कोउ, देवनिसे न सुरूप । नरसे धन्धाधर नहीं, नहिं पशुसे बहुरूप ।। कारण भोग न दानसो, तपसो सुर्ग न मूल । हिंसारम्भ समान नहीं कारण नरक सथूल ।। पशुगति कारण कपटसो, और न सोइ बखान । सरल निगर्व सुभाव सो, नरभव मूल न मान । सुख कारण नहिं शुभ समो, अशुभसम नहिं दुखमूल। नहीं शुद्धसो लोकमे, मोक्ष मूल अनुकूल ॥ पोसह पणिकमणादि सो, शुभाचरण नहिं होइ । विषयकषाय कलकसो अशुभाचरण न कोइ ॥ मातम अनुभव सारिखा, शुद्ध भाव नहीं वीर। नहीं अनुभवी सारिखे, तीन भुवनमें धीर ॥१०॥ नारि समान न नागिनी, नारि समान पिचाश । नारि समान न व्याधि है, रहें मूढजन राचि ।। ब्रह्माज्ञानको विश्वमें, वैरी है विभचार । ब्रह्मचर्य सो मित्र नहीं, इह निश्चे उर धारि॥ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन 1 कायर कृपण समान नहिं, सुभट न त्यागी तुल्य । रंक न आमादाससे, लहै न भाव अतुल्य ॥ संत न आशा रहित से, आशा त्यागे साध । साध समान अबाध नहिं, करहिं तत्त्व आराध ॥ निज गुणसे नहिं भूषण, भूखन चाहि समान । वस्त्र न दश दिश सारिखे, इह भाणे भगवान || भोजन तृपति समान नहि, भोजन गगन जिसौन । राजन शिवपुरराज मो, जामें काल धकोन ॥ राव न सिद्ध अनन्तसे, साथ न भाव समान । भाव न ज्ञानानंदसे, इह निश्च परवान || चेतनता सत्ता महा, ता सम पटरानी न । शक्ति अनतानंतसी, राज लोक जानी न ॥ नारकसे दुखिया नहीं, विषयी देव जिसैन 1 चिन्तावान मिनससे, असहाई पशुसे न ॥ सूक्षम अलभ प्रजापता, जीव निगोद निवास । ता सम सूक्षम थावर न, इह जिन आज्ञा भास ॥ २० ॥ अस्यासे बेइन्द्रिया, और न अलप शरीर । नहीं कुन्थियासे अलप, ते इन्द्रिय सन वीर ॥ काणमच्छिकासे न तुच्छ, चौइन्द्रिय तन धार । तन्दुलमच्छ समान तुछ, पंचेन्द्रि न विचार || चुगली - बोरी अति बुरी, जोरी जारी ताप । चोरी चमचोरी तथा जूवा आमिष पाप ॥ मदिरा मृगया मागना पर महिला प्रीति । ८३ Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। परद्रोह परपंच अर पाखंडादि प्रतीत ।। तजो अभक्षण भक्ष्य अरु, तजौ अगम्यागम्य । तजौ विपर्जे भाव सहु त्यागहु पाप अरम्य ॥२५॥ इनसी और न कुक्रिया, नरक निगोद प्रदाय । सकल कुक्रिया त्याग-सो और न ज्ञान उपाय ||२६॥ ऊज्वल जल गाल्यौ उचित, सोध्यौ अन्न अडंक । ता मम भक्ष्य न लोकमें भाषे विबुध निशंक ॥२७॥ मद्य मास मधु मांखणा , ऊमरादि फल निदि । इनसे अभख न लोकमें, निंदै नर जगवंदि ॥२८॥ वेश्या दासी परत्रिया, तिनसो धारै प्रीति । एहि अगम्या गम्य है, या सम नहीं अनीति ॥२६॥ होय कलङ्कको सारखे, नाहिं अनीती कोय । बन चक्री सारिखे, नीतिवान नहीं जोय ॥३०॥ गज नहिं कोउ गजेन्द्रसे, मृग मृगेन्द्रसे नाहि । ग्वग नहिं कोई खगेंद्रसे, जे अति ओर धराहिं ॥३१॥ बादित्र न कोई वीनसे, सुरपतिसे न प्रवीन । वाण न कोइ अमोघसे, हिसकसे न मलीन ॥३॥ अमन न पान पियूषसे, विसन न त समान । वस्त्राभरण न लोकमे, देवलोक सम आन ॥३॥ वामित्री न महेद्रसे, पञ्चकल्याणक माहि । सदा बजावें राग धरि, गार्दै संशय नाहिं ॥३४॥ अस्व नहीं जात्यस्वसे, कटक न चक्रि समान । अलङ्कार नहिं मुकटसे, अङ्गन सीम ममान ॥३५॥ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन 1 पाले बाल जु ब्रह्मव्रत, ता सम पुरुष न नारि । खोव वृद्धहिं ब्रह्मव्रत ता सम पशु न विचारि ||३६|| वजू चक्रसे लोकमे, आयुध और न वीर । वज्रायुध चक्रायुधी, तिनसे प्रबल न धीर ॥३७॥ हल मुमलायुध सारिखे, भद्र भाव नहिं भूप । नहिं धनुषायुध सारिखे, केलि कुतूहल रूप ||३८|| नाहिं त्रिमूलायुध जिमै, और न भयकर कोइ । नहिं पहुपायुध सारिखे, महा मनोहर होइ ||३६|| धर्मायुधमे धर्मघर, सर्वोत्तम सब नाथ । और जानो लोकमे, सकल जिनोंके साथ ||४०|| नाहि व्यभिचारी सारिखा, पापाचारी और । नहिं ब्रह्मचारी समा आचारी सिरमौर ॥४१॥ मायासी कुलटा नहीं, लगी जगमके मङ्ग । विरचे क्षणमे पापिनी, परकीया बहु रङ्ग ||४२॥ नहिं चिद्रपा मिद्धिमी, सुकिया जगत मंझार । नहिं नायक चिप सो, आनन्दी अविकार ||४३|| न्यारी होय न चेतना, है चेतनको रूप । राम रूप सी नहिं रमा, रामस्वरूप अनूप ||४४ || कनक कामिनी राग ते, लखी जाय नहि सोइ । संयमशील सुभाव लें, ताको दरमन होइ ॥ ४५॥ सील ओपमा बहुत हैं, कहै कहा लौ कोय । जाने श्री जिनराजजू, शील शिरोमणि सोय ॥ ४६ ॥ दौलत और न ऋद्धिसी, ऋद्धि न बुद्धि समान । ८५ Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । बुद्धि न केवल सिद्धिसी, इह निश्च परवान ॥४॥ अथ शील स्वरूप निरूपण कयौ दोय विध शीलवत, निश्चे अर व्यवहार । सो धारो उरमे सुधी, त्यागौ सकल विकार ॥४८॥ निश्चै परम समाधितें, खिसवौ नाहिं कदाचि । लखिवौ आतमभावको, रहिवौ निजमे राचि ॥४६॥ निज परणति परगट जहा, पर परणति परिहार। निश्च शील निधान जो, वर्जित सकल बिकार ।। ५०॥ पर परणनि जे परणमें, ते विभचारी जानि। मानि ब्रह्मचारी तिके लेहि ब्रह्म पहिचानि ।। ५१ ॥ परम सुद्ध परणति विषै, मगन रहै धरि ध्यान । पावें निश्चै शीलको, भावे आतमज्ञान ॥५२ ।। निज परणति निज चेतना, ज्ञान सरूपा होइ । दरसन रूपा परम जो, चारितरूपा सोइ ।। ५३ ।। जडरूपा जगबुद्धि जो, आपापर न लखेह । पर परणतिसो जानिये, तन-धन माहिं फसेह ॥५४॥ पर परणतिके मूल ए, राग दोष मद मोह । काम क्रोध छल लाभ खल, परनिन्दा परद्रोह ॥५५॥ दम्भ प्रपञ्च मिथ्यात मल, पाखण्डादि अनन्त । इन करि जीव अनादिके, भव भवमे भटकंत ॥५६॥ जो लग मिथ्यापरणती, सठजनके परकास । तौ लगसम्यकपरणतो, होय न ब्रह्मविकास ॥५॥ Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन । जोगीरासा। तजि विभचारी भाव, सबैही भए ब्रह्मचारी जे। ते शिवपुरमें जाय शिरजे, भव्यन भवतारीजे ।। ५८॥ विभचारी जे पापाचारी, ते भरमे भवमें । पर परणतिसो रचिया जौलों जाय न सिक्में ॥ १६ ॥ जगमें पारो जड अनुगगे, लागे नाहीं निजमें। कर्म कर्मफलरूपहोय के, भंवर भ्रम रजमें ॥६॥ ज्ञान चेतना लखी न अबलों, तत्त्वस्वरूपा सुद्धा । जामें कम न भर्मकलपना भाव न एक असुद्धा ॥ ६१ ।। मिथ्या परणति त्यागै कोई, सम्यकदृष्टी होई । अनुभवरसमें भीगे जोई, शीलवंत है सोई ।। ६२ ॥ निश्चै शील बखान्यूएई अचल अखंड प्रभावा । परम समाधि मई निजभावा, जहा न एक विभावा ॥६॥ छन्द चाल अब सुनि व्यवहार सुशीला, धारनमें करहु न ढीला। हढ़ ब्रत आखडी धरिवौ नारिको सग न करिवौ ॥ ६४ ॥ नारी है नरकपतोली, नारिनमे कुमति अतोली । प महा मोहकी टोली, सेवें जिनकी मति भोली ।। ६५ ।। नारी जग-जन-मन चोरै नारी भवजलमें बोरे । भव भव दुखदायक जानों, नारीसों प्रीति न ठानों ।। ६६ । त्यागें नारीको संगा, नहिं करें शीलनत भंगा। ते पावें मुक्ति निवासा, कबहुं न करें भववासा ॥६६॥ इइ मदन महा दुखदाई, याकू जीतें मुनिराई । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ जैन-क्रियाकोष । मुनिराय महा बलवंता, मनजीत मानजित सता ॥६॥ शीलहि सुरपति सिर नावे, शीलहिं शिवपुर जति जावे। साधू हैं शीलसरूपा, यह शील सुत्रत अनूपा ॥६६॥ मुनिके कछुहू न विकारा, मन वच तन सर्वप्रकारा। चितवौ व्रत चेतन माहीं, नारीको सपरस नाहीं ॥ ७० ॥ गृहपतिके कछुक विकारा, ताते ए अणुव्रत धारा । परदारा कबहु न सेवै, परधन कबहु नहिं लेवै ।। ७१ ।। लेती जगमे परनारी, बेटी बहनी महतारी। इह भाति गिने जो भाई, सो श्रावक शुद्ध कहाई ।। ७२ ।। निजदारा पर सतोषा, नहि काम राग अति पोषा। विरकन भावै कोउ समये, सेवै निज नारी कमये ।। ७३ ॥ दिनको न करै ए कामा, रात्री कबहुक परिणामा । मैथुनके समये मवना, नहिं राण कर रति रमना ।। ७४ ॥ परबी सवही प्रति पालै, ब्रत शील धारि अघ टालै । अष्टान्हिक तीनों धार भादवके मास हु सारै ।। ये दिवस धर्मके मूला, इनमे मैथुन अघ थूला । अबर हु जै व्रतके दिवमा, पालै इन्द्रिनिके न बसा ॥६॥ अपने अर तियके व्रत्ता, सबही पाले निरबृत्ता। या विधि जिननारी सेवे, परि मनमे ऐसे बेवै ॥७॥ कब तजि हौं काम विकारा, इह कर्म महा दुख भारा। यामे हिंसा बहु होवै या कर्म करें शुभ खोवे ॥८॥ जैसे नाली तिल भरिये, रंचहु खाली नहि धरिये । तातौ कीलो ता माहै, लोहेको संसै नाहे ॥७॥ Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAAMAN बारह व्रत वर्णन। घाले तिल भस्म जु होई, यह परतछि देखौ कोई । तैसे ही लिङ्ग करि जीवा, नासें भग माहिं अतीवा ॥८॥ तातें यह मैथुन निंद्या, याको त्यागे जगवंद्या। धन धन्निभाग जाको है, जो मैथुनते जु वच्यौ है ॥८१॥ जे बाल ब्रह्मत्रत धारें, आजनम न मैथुन कारे। तिनके चरननकी भक्ती, दे भव्यजीवकू मुक्ती ।।८।। हमह ऐसे कब होहैं, तजि नारी व्रत करि सोहैं। या मैथनमे न भलाई, परतछ दीखै अघ भाई ।।८।। अपनीहू नारी त्यागें, जब जिनवर के मत लागे । यह देहहु अपनी नाहीं, चेतन बैठो जा माहीं ।।८।। तौ नारी कैसे अपनी, यह गुरु आज्ञा उर खपनी। या विधि चितवै मन माहीं, कब धर तजि बनकू जाहीं ॥८५॥ जबलों बलवान जु मोहा, तबलो इह मनमथ द्रोहा । छाडै नहिं हममों पापी, नाते ब्याही त्रिय थापी ।।६।। जब हम बलवान जु होहै, मारे मनमथ अर मोहैं। असमर्था नारी राखें ॥८॥ यह भावन नित भावतो, घर माहि उदाम रहतौ । जैसें परघर पाहुणियो, तैसे ये श्रावक गिणियो ।।८८|| वह तौ घर पहुंचौ चाहै, यह शिवपुरको जु उमा है। अति भाव उदासी जाको, निज चेतनमें चित ताको ।। छाडे सब राग रु दोषा, धारै सामायक पोषा। कबहू न रत्त है मगन त्रियासों न रमे ।। मुख मादि विकारा जे हैं, छाड़े नर ज्ञानी ते हैं। Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ἐπ जन-क्रियाकोष | इह त्रिय सेवन विधि भाखी, बिन पाणिग्रह नहिं राखी | ६१| sana धरि सुरपरि ह्वै, सुरपतिते चय नरपति वै । पुनि मुनि वै पावै मुक्ती, यह शील प्रभाव सुजुकी ॥६२॥ नहिं शील सारिखौ कोई, दे सुरपुर शिवपुर होई । जे बाल ब्रह्मचारी है, सम्यकदर्शन धारी हैं | १३ | निके सम है नहिं दूजा, पावै त्रिभुवन करि पूजा । जे जीव कुशीले पापा, पावे भव भव संतापा । ६४ । विभचारी तुल्य न होई, अपराधी जगमे कोई । ह्वै नरक निगोद निवासा, पापनिका अति दुख भासा । ६५॥ जेते जु अनाचारा हैं, विभचार पिछे सारा है । त्यागौ भविजन विभचारा, पालौ श्रावक आचारा ६६ दोहा - मुख्य बारता यह भया, बाल ब्रह्मवून लेय। जो यह बूत धार न सके, तौ इक व्याह करेय ॥६७॥ दूजी नारि न जोग्य है, व्रतधारिनको वीर । भोग समान न रोग हैं, इह धारै उर धीर ॥ ६८ जो अभिलाषा बहुत है, विषयभोगकी जाहि । तौ विवाह और करें, नहिं परदारा चाहि ॥६६॥ परदारा सम पाप नहि, तीनलोकमे और I जे सेवें परनारिको, लहैं नर्कमें ठौर । १००/ नरक माहिं बहु काललो, दुख देवें अधिकाय । बागनि पुतलीनिसो, तिनको अंग तपाय |१| अरि- जरि तिनकी देह जो जैसेको तैसोहि । र सागरावधि तहा, दुःख सहंता सोहि | श Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन | vvvvv कहिवेमें भावें नहीं, नरकवासके कष्ट । ते पावें पापी महा, परदारातें दुष्ट ि नारकके बहु कष्ट लहि, खोटे नर तिर होय । जन्म-जन्म दुरगति लहैं, दुख देखें अघ सोय ॥४॥ मर या ही भवमे सठा, अपजस दुःख लहेय । राजदण्ड परचण्ड अति, पावें परतिय सेय १५॥ बेसरी छंद K अग धन बल्लभ है भाई, धनडूते जीतब अधिकाई । जीतबतें लना है वल्लभ, लज्जायें नारी नर दुल्लभ |६| जे पापी परदारा सेवें, ते बहुतनिकी लज्जा लेवें । बैर बढ जु बहुसेती वीरा, परदारा सेवें नहिं धीरा || धन जीत लज्जा जस माना; सर्व जाय या करि बूत ज्ञाना । कुलों लागे बड़ो कलंका, या अघको निंर्दे अकलङ्का [८] परनारीरत पापिनकों जे, दस वेगा उपजे मन सों जे । चिन्ता अर देखन अभिलाषा, फुनि निसास नाखन भी भाषा ६ कामज्वर होवै परकासा, उपजै दाह महादुख भासा । भोजनकी रुचि रहैं न कोई, बहुरि महामूरछा होई ॥१०१ तथा होय सो व्यति उनमत्ता, अंध महा अविवेक प्रमत्ता । आनौं प्राण रहनको संसैं, व्अथवा छूटै प्राण निसंसै ॥११॥ कहे वेग ए दश दुखदाई, विभचारीके उपजें भाई । कौलग वर्णन कार्जे मित्रा, परदारा सेवें न पवित्रा |१२| इही पाप है मेरु समाना, और पाप है सरस्यूं दाना । याके तुल्य कुमर्म न कोई, सर्व दोषको मूल जुहोई |१३| Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ जैन-क्रियाकोष | नर तेही परदारा त्यागे, नारी जे पर पुरुष न लागे । सर्वोत्तम वह नारि जु भाई, ब्रह्मचय्य आजन्म धराई | १४ | व्याह करे नहिं जो गुणवन्ती, विषय भाव त्यागे गुणवन्ती । ब्राह्मी सुन्दरि ऋषभ सुता जे, रहिन विकार सुधर्म रता जे ११५ चेटक पुत्री चदनबाला, ब्रह्मचारिणी बृत्त विशाला । बहुरि अनन्तमती अनि शुद्धा, वणिक सुता बूत्त शील प्रवृद्धा १६ इत्यादिक जो कीर्ति चितावे, निरमल निरदूषण व्रत पाले । महासती जाके न विकारी विषयन ऊपरि भाव न टारी । १७ १ आम तत्व लख्यौ निरवेदा, काम कल्पना सबै निषेदा । पुरुष लख सहु त अरु भाई, पिता समाना रभ्य न काई ॥ १८ ॥ धारे बाल ब्रह्मव्रत शुद्धा, गुरुप्रसाद भई प्रतिबुद्धा | ऐसी समस्थ नाहीं पावै, तो पतिव्रत प्रत्त धरावे ॥ १६ ॥ मात पिताकी आज्ञा लेती, एक पुरुष धारै विधि सेती । AA करि माना । पाणिग्रहण कर सो कुलवन्ती, पतिकी सेव करें गुणवन्ती ||२०|| और पुरुष सह पिता समाना के भाई पुत्रा मेधेश्वर राजाकी राणी, तथा रामकी राणी जाणी ॥ २१॥ श्रीपाल भूपतिकी नारी. इत्यादिक कीरति जु चिनारी । जगसो विरकन भाव प्रवर्तै, औसर पाय सिताव निवर्ते ||२शा मैथुनको जानें पशुकर्मा, यह उत्तम नाग्निको धर्मा । तजि परिवार जु सम्यकवन्ती, हूवें आर्या तप संजमवन्ती ॥२३॥ ज्ञान विवेक विराग प्रभावै, स्त्रीपद छाडि स्वर्गपुर जावे । सुरग माहिं उतकिष्टा सुर हैं, बहुत काल सुख लहि फुनिनरहे धारे महात्रत निज ध्यावे, कर्म काटि शिवपुरको जावै । Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। शिवपुर सिद्धक्षेत्रकू कहिए और न दूजो शिवपुर लहिये ॥२५॥ शिव है नाम सिद्ध भगवन्ता, अष्टकर्म हर देव अनन्ता। मुक्ति मुक्तिदायक इह शीला, या धरवेमें ना कर ढीला ||२६॥ शील सुधारस पान करै जो, अजरामर पद काय धरै जो। शील विना नारी घृग जन्मा, जन्म जन्म पावे हि कुजन्मा ॥२७॥ गनी राव जशोधर केरी, शील बिना आपद बहुतेरी। लही नरकमें तानें त्यागौ, कदै कुशीलपथ मति लागौ ॥२८॥ शील ममान धर्म जु होई, नाहिं कुशील समौ अब कोई । जे नर नारि शीलवत धारें, ते निश्चै परब्रह्म निहारें ॥२६॥ त्यागे दशो दोष बलवन्ता, ते सुनि एक चित्त करि सन्ता । अंजन मंजन बहु सिंगारा, करना नहीं बतिनको भारा ॥३०॥ तजिवो तिनको असन गरिष्ठा, अर तजिवौ संसर्ग सपष्टा। नरको नारीको संसर्गा, नारिनकों उचित न नरवर्गा ॥३१॥ बै संसर्ग थकी जु विकारा, अर तजिवौ तौर्यत्रिक सारा। तौर्यत्रिकको अर्थ जु भाई, गीत नृत्य बाजित्र बजाई ॥३२॥ मुनिको इनते कछुहु न कामा, श्रावकके पूजा विश्रामा । करे जिनेश्वर पदकी पूजा, जिन प्रतिमा बिन और न दूजा ॥३॥ अष्टद्रव्यसे पूजा करई, तहा गीत वादिन जु धरई। नृत्य करै प्रमुजीके आगे, जिनगुनमें भविजन मन लागै ॥३॥ और न सिंगारादिक गावे, केवल जिनपदसों डर लावे । नारी-विषयनका संकलपा, तजिवौ बुधकों सर्व विकलपा ॥३॥ अंग अपंग निरखनों नाहीं, जो निरखै तो दोष धरा ही। सतकारादिक नारी जनसों, करनों नाही मन-बच-तनसो ॥३६॥ Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। पूरव भोग-विलास न चितवौ, अर आगामी वाछा हरिवौ । सुपने हू नहिं मन मथ कर्मा, ए दश दोष तजै व्रत धर्मा ॥३१॥ व्रत नहिं शील बराबर कोई, जिनशासनकी आज्ञा होई। उक्त'च श्रीज्ञानार्णावमध्ये अद्य शरीरसंस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्संसर्गस्तुर्यमिष्यते ॥१॥ योषिद्विषसंकल्पं पंचमं परिकीर्तितं । तदगवीक्षणं षष्ठ सत्कार सप्तमो मतः ॥२॥ पूर्वानूभूतसभोग स्मरण स्यात्तदप्टमम् । नवमे भावनी चिन्ता दशमे वस्तिमोक्षणं ॥३॥ कवित्त । तिय-थल-वासि प्रेमरुचि निरखन, देखि रीक्ष भाषत मधु बैन । पूरव भोग केलिरस चितवन, गरुव अहार लेत चित चैन। करि सुचि तन सिंगार बनावत, तिय परजंक मध्य सुखसैन । मनमथ कथा उदरभरि भोजन, ऐ नव वाड़ि जानि मत जैन ३८ दोहा-असीचार सुनि पाच अब, सुनि करि तजि वर वीर । जग चौथो ब्रत शुद्ध हवे, इह भाषे मुनि धीर ॥ ३६॥ ब्याह सगाई पारकी, किरिया अवतपोष । शीलवन्त नर नहिं करें, जिन त्यागे सहु दोष ॥४०॥ इत्वरिका कुलटा त्रिया, ताकी है | जाति । परिप्रयीना एक है, जाके सामिल खाति ॥४१ अपरिग्रहीता दूसरी जाके, स्वामि न कोय । ए इत्वरिका द्वै विधा, पर पुरुषा-रत होय ।। ४२॥ Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह ब्रत वर्णन। जिनसों रहनों दूर अति, निनकों संस तजेय । तिनसों संभाषण नहीं सब जनम सुधरेय ॥४३॥ गमन करै नहिं वा तरफ, विचर जहा न नारि । ढारि नारिको नेह नर, धरै व्रत अघटारि ॥४४॥ तजि अनंगक्रीडा सबै, क्रीडा अघकी एहि । मैन मानि मन जीति कर, ब्रह्मचर्य व्रत लेहि ॥ ४५ ॥ निज नारीहतें सुधी, करै न अधिकी प्रीति । भाव तीव्र नहिं कामके, धरै धर्मकी रीति ॥४५॥ कहे अतिक्रम पंच ए, इनमें भला न कोय । ए सबही तजिया थका, शील निर्मला होय ॥४॥ नीली सेठसुता सुमा शीलवत परसाद । देवन करि पूजा लहो, दूरि भयो अपवाद ॥४८॥ शीलप्रभावै जयप्रिया, सुभ सुलोचना नारि । लही प्रशंसा सुरनि करि, सम्यकदर्शन धारि ॥४६॥ शील-प्रसाई रामजी, जनकसुता सुभ भाव । पूज्य सुरासुर नरनि करि, भये जगतकी नाव ॥५०॥ सेठ बिजय अर सेठनी, विजया शीलपसाद । भई प्रसंसा मुनिन करि, भये रहित परमाद ॥५१॥ शुक्लपक्ष पर कृष्णपख, धारि शीलवूत तेहि । तीनलोक पृजित भये, जिन आज्ञा उर लेहि ॥५२॥ सेठ सुदर्शन मादि बहु, सीझे शीब्यताप। नमस्कार या प्रतकों ओ मेटे भवताप ॥५३॥ जे सीझे ते शील करि, और न मारग कोय । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ जंन-क्रियाकोष | जनम जरा मरणादिको, नाशक यह व्रत होय ॥ ५४ ॥ घरि कुशील बहु पापिया, पड़े नरक मंझार । तिनको को निरणय करे कहत न आवै पार ||५५|| रावण खोटे भाव धरि, गये अधोगति माहिं । धवल सेठ नरके गयो, यामे संशय नाहिं ॥५६॥ कोटपाल जमदण्ड शठ, करि कुशील अति पाप । यो नरककी भूमि, लहि राजाते ताप ॥५७॥ बहुरि हुतौ जमदण्ड इक, कोटपाल गुणवन्त । नीति धर्म परभावते, पायौ जस जयवंत १५८ सर्व गुणा हैं शीलमे, अरु कुशीलमे दोष । नाहिं कुशील समान कोड, और पापको पोष १५६६ इन दोउनके गुण अगुण, कहत न आवै थाह । जाने श्री जिनराय जु, केवल रूप अथाह । ६० महिमा शील महंतको, कहैं महा गणधार । भाष श्री जिन भारनी, रटै साधु भव तार । ६१॥ सरवारथसिधिके महा, अहमिन्द्रा परवीन । गावें गुण बूत शीलके, जे अनुभव रसलीन ॥६२॥ कथे काति इन्द्रादिका, जपें सुजस जोगीन्द्र | लौकान्तिक बरणन करें, रटें नरिन्द्र फणीन्द्र | ६३ | चन्द सूर सुर असुर खग, महिमा शील करेय । सूरि मत अध्यापका, मन वच काय घरेय | ६४ | हमसे अलपमती कहा, केमे गुख बरणे । नमो नमोबूत शीलको, रहें ऋषी नरणेय ॥ ६५॥ Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाखत वर्णन। या सत्य अस्तेय भर, शीले करि परिणाम । भाषों पञ्चम व्रत जो परिग्रह त्याग सुनाम ॥ ६६ ।। इति चतुर्थव्रतनिरूपण । इन चारनि बिन ना हुवै, परिग्रहके परिहार । परिग्रहके परिहार बिन, नहिं पावे भवपार ।। ६७ ।। मुनिको सर्वहि त्यागवौ, अंतर बाहिज संग। धर्म अकिंचन घारिवौ, करिवौ तृष्णाभङ्ग ।। ६८॥ अपने आतम भाव बिनु, जो पररूपा वस्तु । सो परिप्रह भाषौ सुधी, ताको त्याग प्रसस्त ॥६६॥ सर्व भेद चउबीस हैं, चउदह अर दस भेलि। अंतर वाहिज संग ये, दुरगति फलकी बेलि ॥ ७॥ परिग्रह द्वै विध त्यागिये, तब लहिये निज भाव । ब्रह्मज्ञानके शत्रु ये, नर्क निगोद उपाय ।। १ ।। अंतरङ्ग परिग्रहतर्ने, भेद चतुर्दश आन । मिथ्यात्वादिक जो सबै, जिन आज्ञा उर मान ।।७२।। राग दोष मिथ्यात अर, घउ कषाय क्रोधादि । षट हास्यादिक वेद फुनि, चन्दस भेद मनादि ।।७।। राग कहावै प्रीति अरु, दोष होइ मप्रीति । राग दोष तम भन्यजन, धरै धर्मकी रीति ॥ ७४ ।। जहा तस्व श्रद्धा नहीं, सो मिथ्यात्व कहाय । जड़ चेतनको ज्ञान नहीं, भर्मरूप दरसाय ॥ ५५ ॥ क्रोध मान बड लोभ ये, चड कषाय बलवन्त । इतियेलान सुषानते, लहिये भाव अनन्त ॥ ७६ ॥ Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Awarwwwww अन-क्रियाकोष। हास्य अरति अरु शोक भय, बहुरि गलानि बखान । तजिये षट हास्यादिका, मोह प्रकृति दुखदानि ॥७॥ वेद मेद हैं तीन फुनि, पुरुष नपुंसक नारि । चेतनतें न्यारे लखौ, जिनवानी उर धारि ।। ७८॥ एक समय इक जीवके, उदय होय इक वेद । सातें गनिये वेद इक, यह गाव निरवेद ॥७६॥ संख असंख अनन्त हैं, इनि चउदहके भेद । अन्तरंग ये सग तजि, करिये कर्म "विछेद ।। ८०॥ अन्तर मंग तजे बिना, होई न सम्यक ज्ञान ।। बिना ज्ञान लोभ न मिटे, इह भाषे भगवान ॥८॥ अत सुनि बाहर संगजे, दसधा हैं दुखदाय । मुनिने त्यागे सर्व हो, दीये दोष उड़ाय ।। ८२ ।। क्षेत्र वास्तु चौपद द्विपद, धान्य द्रव्य कुप्यादि । भाजन आसन सेज ये, दस परकार अनादि । ८३ ॥ तो संग चउवीस सह, भजे नाथ चरबीस। समें साज शिवलोकको, सबमें बड़े मुनीस ॥ ८४ ॥ मूर्छा ममता महु तजी, तृष्णादई उडाय । नगन दिगम्बर भव तिरें, ध न बहुरी काय ॥८५॥ श्रावकके ममना अलप, बहुतृष्णाको त्याग । राग नहीं पर द्रव्यसों, एक धर्मको राग ।। ८६ ।। धरम हेत खरचे दरव, गर्व नाहिं मन माहिं। सब जीवनसो मित्रता, दुराचारता नाहिं ।। ८७ ॥ जीव दयाके कारणे, तजौ बहुत आरम्भ । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। परिग्रहको परिमाण करि, नौ सकल ही दम्भ ||८|| लोभ लहरि मेटी जिनौ धरयो धर्म संतोष । ते श्रावक निरदोष हैं, नहीं पापको पोष ।। ८६ ॥ क्षेत्र आदि दस संगको, कियो तिने परिमाण । राख्यौ परिग्रह अलप ही, तिन सम और न जाण ॥१०॥ कयौ परिग्रह दस बिधा, वहिरङ्गा जे वीर । तिनके भेद सुनू भया, भाखें मुनिवर धीर ॥ ११ ॥ चौपाई-क्षेत्र परिग्रह क्षेत्र बखान, जहा उपजे धान्य निधान । वास्तु कहावै रहवा तना, मन्दिर हाट नौहरा वना ॥२॥ हस्ती घोटक ऊंटरु आदि, गाय बलध महिषी इत्यादि। होय राखगों जो तिरजंच, चौपद परिग्रह जानि प्रपंच ॥६॥ द्विपद परीग्रह दासी दास, पुत्र कलत्रादिक परकास । धान्य कहावै गेहूं आदि, जीवन जनको अन्न अनादि ।४। धन कनकादिक सबहो धात, चिंतामणि आदिक मणि जात । चौवा चन्दन अगर सुगन्ध, अतर अरगजा आदि प्रबंध तेल फुलेल घृतादिक जेह, बहुरि वस्त्र सब भाति कहेह । ये सब कुप्य परिग्रह कहे, संसारी जीवनितें गहे ॥१६॥ भोजन नाम जु वासन होय घातु पषाण काठके कोय । माटी आदि कहा ला कहैं, साधन भाजनके सहु गहें । आसन वैसनके बहु जान, सिंघासन प्रमुखा परवान । गद्दी गिलम आदि जेतेक, त्यागौ परिग्रह धारि विवेक ॥८॥ सज्या नाम सेजको कयौ, भूमिशयन मुनिराजनि गौ। ए दसधा परिमह व्य रूप, कैइक अड़ कैइक चिद् प ॥ ६ ॥ Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ __ जैन-क्रियाकोष । द्विपद चतुसपद आदि सजीव, रतन धातु वस्त्रादि अजीव । अपने तमतें सब भिन्न, परिग्रहतें हवै खेद जु खिन्न १०० है परिग्रह चिन्ताके धाम, इनको त्याग लहैं शिवठाम । जिनवर चक्री हलधर धीर, कामदेव आदिक वर बीर ॥१॥ तजि परिग्रह धारें मुनिरूप, मुनिसम और न धर्म अनूप । मुनि होवेकी शक्ति न होय, श्रावक व्रत धार नर मोय ॥२॥ कर परिग्रहको परमाण, त्यागै तृष्णा सोहि मजाण। इह परिग्रह अति दुखको मल, है सुखते अतिही प्रतिकूल ॥शा जैसे बेगारी सिर भार तैसें यह परिग्रह अधिकार । जेतौ थोरौ तेतौ चैन, यह आज्ञा गावैं जिन बैन ॥४॥ तातें अल्पारम्भी होय, अल्प परिग्रह धारे मोय । नाहूको नित त्यागो चहै, मन माहीं अनि विरकन रहै ॥५॥ जैसें राहु केतु करि कान्ति, रवि शशिको हवै और हि भाति तैसें परणति होय मलीन, आनमकी परिग्रह करि दीन ॥६॥ ध्यान न उपजे या करि कबे, याहि तनें पावै शिव तबै । समताको यह बैरी होय, मित्र अधोरपनाको मोय ॥ ७॥ मोह तनों बिश्राम निवास, यातें भविजन रहहिं उदास । नासै सुखकों सुभतें दूर, असुभ भावतें है परिपरि ॥ ८॥ खानि पापकी दुखकी रासि, रह्यौ आपदाको पद भासि । आरतिरुद्र प्रकाशक अंग, धर्म ध्यानको धरइ न संग । गुण अनंत धन धारयो चहै, सो परिग्रहते दूरहि रहै ।। ६ ।। दोहा-लीलावन दुरध्यानको, बहु आरम्भ मरूप । आकुलताको निधि महा, संसैरूप विरूप ॥ १० ॥ Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारह व्रत वर्णन। मदका मन्त्रो काम घर, हेतु शोकको सोइ । कलह तनो क्रीडा प्रह, जनक बैरको होइ ।। १५ ॥ धन्य धरी वह होयगा, जब तजियेगो सङ्ग। यामें बडपन नाहि कछु, महा दोषको अङ्ग ॥१२॥ हिंसादिक अपराधका, कारण मूल बखानि ।। जनम जनममे जीवको, दुखदाई सो जानि ।। १३ ।। धृग धृग द्विविधा संगको, जो रोके शिव सङ्ग । चहुंगति माहिं भ्रमाय करि, करें सदा सुख मग ॥१४॥ जो यामें बडपन गिने, सो मूरख मतिहीन । परिग्रह वान समान नहिं, और जगतमें दीन ॥ १५ ॥ धन्य धन्य धरमज्ञ जे, याकू तुच्छ गिनेय । माया ममता मूरछा, सर्बारम्भ तजेय ॥ १६॥ यही भावना भावतो, भविजन रहै उदास । मनमे मुनिव्रतकी लगन, सो श्रावक जिनदास ॥ १७ ॥ बहुरि बिचारै सो सुधी, अगनि धरै गुण शीत । जो कदापि तौहु न कबै, परिग्रहवान अभीत ॥ १८ ॥ कालकूट जो अमृना, होइ दैव सयोग।। नहिं तथापि सुख होय ते, इन्द्रियनके रसभोग ॥ १६ ॥ विषयनिमे जे राचिया, ते रुलि भव माहिं। सुख है आतम ज्ञानमें, विषय माहिं सुख नाहि ॥ २० ॥ थिर हवै तड़ित प्रकाशजी, तौहु देह थिर नाहि । देह नेह करिवौ वृथा, यह चितवै मनमाहिं ॥२५॥ इन्द्रजाल जो सत्य हवे, देवयोग परवान । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष | तौ पन संसारी जना, नाहिं कदे सुखवान ॥ २२ ॥ चहुगतिमे नहिं रम्यता, रम्य आतमाराम । जाके अनुभव महा, है पचमगति धाम ॥ २३ ॥ इह विचार जाके भयौ, देहहु अपनी नाहिं । सो कैसे परपश्च करि, बूडै परिग्रह माहिं ॥ २४ ॥ सवैया तेईमा हयगय पायक आदि परिग्रह, पुण्य उद गृह होय विभौ अति । पाय विभौ फुनि मोहित होत, सरूप विमारि करें परसों रति ।। नारहि पोषण कारण काज, रच्यौ बहु आरंम्भ बाधक दुर्गति । ज्ञान है हम कबहू मन, राम व फुनि देहहु द्यो मति ।। २५ ।। नाहिं संतोष समान जुआन है, श्रीभगवान प्रधान सुधर्मा । है सुखरूप अनूप इहै गुण, कारण ज्ञान हरै सब कर्मा || पापनिको यह बाप जु लोभ, करें अतिक्षोभ घरै अति मर्मा । धारि संतोष लहै गुणकोष, तजै सब दोष लहै विजमर्मा ।। २६ ।। बँक सबै जग राव रिषोसुर, जो हि धरै शुभ शील संतोषा । सो हि लदै निज आतम भेद, करें अघ छेद हरें दुख दोषा ।। श्रावक धन्य तजै सहु अन्य, हुए जु अनन्य गर्दै गुण कोषा ॥ काम न मोह न लोभ न लेश, नहिं मान दहै रति रोषा ॥ २७ ॥ लोभ समान न औगुण आन, नहीं चुगली सम पाप अरूपा । सत्य हि बैन कहै मूखतें सुभ, तो सम व्रत न तप्प निरूपा ॥ पावन चित्त समान न तीरथ, आतम तुल्य न देव अनूपा । सज्जनता सम और कहा गुण, भूषण और न कीरति रूपा ॥ २८ ॥ ब्रा सुग्यान समान कहा धन, औजस तुल्य न मृत्यु कहाई । १०२ Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वर्णन। देविनिको गुरु देव दयानिधि, तासम कोई न है सुखदाई ॥ रोष समान न दोष क. बुध, मोक्ष समान न आनन्द भाई। सोष समान न कारण मोक्ष, कहैं भगवन्त कृपा उर छाई ॥ २६ ॥ अंग प्रसंग भये बहु संग, तिनौ महिं नाह अभंग जु कोई । सुद्ध निजामत भाव अखंडित, ता महिं चित्त धरै बुध सोई॥ बंध विदारण, दोष निवारण, लोक उधारण और न होई । जा सम कोई न जान महामसि, टारइ राग विरोध जु दोई ॥३०॥ दोहा-धन्य धन्य श्रावक व्रती, जो समकित धर धीर । तन धन आतम भावतें, न्यारे देखें वीर ॥३१॥ तन धनको अनुराग नहिं एक धमको राग । संतोषी समता धरो, करै लोभको त्याग ॥ ३२॥ मोह तनी ग्यारह प्रकृति शात होय जब वीर। तब धारै श्रावकवता, तृष्णा बर्जित धीर ॥३३॥ तीन मिथ्यात कषाय बसु, ये ग्यारह परवान । पंचम ठानें श्रावका, इनते रहित सुजान ॥३४॥ गई चौकरी द्वय प्रबल, जे दुरगति दुखदाय। रहो चौकरी द्वय अबै, तिनको नाश उपाय ।। ३५ ॥ चितवै मनमे सामती, है जौला अवसाय । तौलग तोजी चौकरी उदै धरै रहवाय ॥ ३६॥ अल्प परिग्रह धारई, आके अल्पारम्भ । अवसर पाय सिताब ही, त्यागै सर्वारम्भ ॥ ३७॥ मुनिब्रतके परसाद शिव-है अथवा अहमिन्द्र । प्रावकवरत प्रभाक्तें, सुर है तथा सुरिन्द्र । ३८ ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष | परिग्रहको परमाण करि, जयकुमार गुणधार । सुर-नर कर पूजित भयौ, रह्यौ भवोदधि पार ॥ ३३ ॥ परिग्रहकी तृष्णा करे, लबधदत्त गुणवीत । गयो दुरंगती दुख लहे त्यो समश्रु नवनीत ॥ ४० ॥ करें संख्या सगकी, हरें देहतें नेह । व्यति न भ्रमावे नर पसू, गिनै आपसम तेह ॥ ४१ ॥ बोझ बहुत नहिं लादिवो करनों बहुत न लोभ । 5 अति संग्रह तजिवौ सदा, करनों बहुत न क्षोभ ॥ ४२॥ अति विस्मय नहिं धारिवौ, रहनो नि सन्देह | झूठी माया जगतकी, अचिरज नाहिं गनेह ॥ ४३ ॥ परिग्रह संख्यावरतके, अतीचार हैं पंच । तिनकू त्यागे जे बती तिनके पाप न च ॥ ४४ ॥ क्षेत्र वस्तु संख्या करी, ताकों को उलंघ । अचार है प्रथम यह, भाषै चउविधि संघ ॥ ४५ ॥ काहु प्रकारे भूलि करि, जोहि उलंधै नेम । अतीचार ताकों प्रौ, भाषै पण्डित एम ॥ ४६ ॥ द्विपद चतुष्पद संगको, करि प्रमाण जो वीर । अभिलाषा अधिक धरै, सो न लहै भवतीर ॥ ४७ ॥ व्यतीचार दूजो इहै, सुति तीजो अघरास । धन धान्यादिक वस्तुको करि प्रमाण गुरुपास ॥ ४८ ॥ चित संकोच सकै नहीं, मन दौरावै मूढ । सो न हे व्रत शुद्धता, होय न ध्यानारूढ ॥ ४६ ॥ हम राख्यौ परिग्रह अलप, सरै न एते माहि । Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वर्णन । ऐसे विकलप जो करो वर्तमान सो नाहि ॥ ५० ॥ कूप भांड परिग्रह तनों, करि प्रमाण तन धारि। चित्त चाहि मेटे नहीं, सो चौथो अतिचार ॥५१॥ शायन नाम सध्या तनों, आसन द्वय विधि होय । थिर आसन चर आसना, करें प्रमाण जु कोय।। ५२॥ फुनि अधिकों अभिलाष धति, लावै व्रतही दोष । अतीचार सो पंचमी, रोके मारग मोष ॥ ५३॥ थिर आसन मिहामनों, ताहि आदि बहु जानि । त्यागै चक्रीमंडली, जिन आज्ञा उर आनि ॥ ५४॥ स्यंदन कहिये ग्थ प्रगट, सिबका है सुखपाल । एथलके चर आसना, त्यागे भव्य मुपाल ॥ ५५॥ बहुरि बिमानादिक जिके, चर आमन शुभरूप । ते अकासके जानिये. त्यागे खेचर भूप ॥५६॥ नाव जिहाजादिक गिनें, चर आमन जल माहि । चर आसनको पण्डिना, यान कह सक नाहिं ।। ५७ ॥ सकल परिग्रह त्यागिवौ, सो मुनिमारग होय । किंचित मात्र जु राखिवौ, ब्रत श्रावकको सोय ॥ ५८ व्याधि न तृष्णा सारखी, तष्णासी न उपाधि । नहिं सन्तोष समान है, कारण परम समाधि ॥ ५९॥ तृष्णा करि भववन भ्रमै, सृष्णा त्यागें सन्त । गृह परिग्रह बन्धन गिनें, ते निर्वाण लहंत ।। ६० ॥ प्रत पाचमो इह कह्यों, सम सन्तोषस्वरूप । धन्य धन्य ते धीर हैं, त्यागै लोम विरूपं ॥ ६१ ।। Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । जे सीझे ते लोभ हरि, और न मारिंग होय ।। मोह प्रकृतिमें लोभ सो, और न परबल कोय ॥ ६२ ॥ सर्व गुणनिको शत्रु है, लोभ नाम बलवन्त । ताहि निवारें व्रत ए, करें कर्मको अन्त ।। ६३ ॥ नमस्कार संतोषको, जाहि प्रशंसें धीर ।। जाकी महिमा अगम है, जा सम और न बीर ॥६४ ॥ जानैं श्रीजिनरायज, या व्रतके गुण जेह । और न पूरन ना लखै, गणधन आदि जिकेह ।। ६५ ।। हमसे अम्लपमती कहौ, कैसे कहैं बनाय । नमो नमो या व्रत्तको, जो भव पार कराय॥६६॥ सन्तोषी जीवानिको, बार बार परणाम । जिन पायो मंतोष धन, सर्व सुखनिको धाम ॥ ६॥ नहि सन्तोष समान गुरु, धन नहिं या सम और । निर विकलप नहिं या सभा, इह मबको सिरमौर ॥ ६८॥ इति पञ्चमव्रत निरूपण। दया सत्य असतेय अर, ब्रह्मचर्य सन्तोष । इन पाचनिको कर प्रणति, छट्टम ब्रत निरदोष ॥ १६ ॥ भाषो दिसि परिमाण शुभ, लोभ नासिवे काज। जीवदयाके कारणे, उर धरि श्री जिनराज ।। ७०॥ द्वादश ब्रतमे पंच व्रत, सप्त शील परवानि । सप्त शीलमें तीन गुण, चउ शिक्षा व्रत जानि ॥१॥ जैस कोट जु नरके, रक्षा कारण होय । तैसें तरक्षा निमित, शील सप्त ये जोय ।। ७२ ॥ Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। बरत शील पारें सुधी, ते पावें सुखराशि। कहे प्रत्त अब शीलके, भेद कहाँ परकाशि ॥ ७३ ॥ पहलो गुणवत गुणमई, छट्टो व्रत सो जानि । दसों दिशा परमाण करि, श्रीजिन आज्ञा मानि ॥७॥ तीन गुणव्रतमें प्रथम, दिग्व्रत कह्यौ जिनेश । ताहि घरें श्रावकवती, त्यागें दोष असेस ॥ ७ ॥ लोभादिक नाशन निमित, परिग्रहको परिमाण । कीयो तैसे ही करौ, दिशि परमान सुजाण ॥७६ ।। बेसरी छन्द। पूरब आदि दिशा चउ जानौं, ईशानादि विदिगि चउ मानौं। अर्ध उरध मिलि दस दिशि होई, करै प्रमाण व्रती है सोई ॥७॥ सीलवान व्रत धारक भाई, जाके दरशनतें अघ जाई । या दिशिको एतोही जाऊं, आगे कबहु न पाव घराऊं ॥७८॥ या विधिसो जु दिशाको नेमा, करै सुबुद्धि धरि व्रतसो प्रेमा । मरजादा न उलंघे जाई, दिग्ब्रत धारक कहिये सोई ॥७॥ दसो दिशाकी संख्या धारे, जिती दूरलौ गमन विचारे। आगै गये लाभ है भारी, तोपनि जाय न दिग्व्रत धारी ॥८॥ सतोषी समभावी होई, धनकू गिनै धूरिसम सोई । गमनागमन तज्यो बहु जाने, दया धर्म धाग्यो उर खाने ॥८॥ लौन हिंसा तिनको अधिकी, त्यागी जिन तृष्णा-धन निधिकी। कारण हेत चालनो परई, तौ प्रमाण माफिक पग धरई ॥२॥ मेह डिगे परि पैंड न एका, जाय सुबुद्धी परम विवेका। बूत करि नाश करै अघ कर्मा, प्रगटे परम सरावक धर्मा ॥३॥ Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। बिना प्रतिज्ञा फल नहिं कोई, रहै बात परगट अब लोई । अतींचार पांचों तजि बीरा, छछो बूत धारौ चित धीरा ॥४॥ पहले ऊरध व्यतिक्रम होई, ताको त्याग करौ श्रुति जोई। गिरि परि अथवा मिंदर ऊपरि, चढनो परई ऊरध भूपरि ॥८५॥ उरघको संख्या है जेती, ऊंची भूमि चढे बुध तेती। आगै चढिवेको जो भावा, अतीचार पहलो सु कहावा ॥८६॥ दूजो अधव्यतिक्रम तजि मित्रा, जा तजिये व्रत होइ पवित्रा । वापी कूप खानि अर खाई, नोची भूमि माहिं उतराई ॥ ८॥ तौ परमाण उलधि न उतरौ, अधिकी भू उतरया व्रत खतरौ। अधिक उतरनेको जो भावा, अतीचार दूजो सु कहावा ॥८॥ तीजो नियंग व्यतिक्रम त्यागौ, बब छट्टे व्रतमाहीं लगौ। अष्ट दिशा जे दिशि विदिशा है, तिरछे गमने माहिं गिना हैं ।। वहुरि सरङ्गादिकमें जावौ, सोऊ तिरछे गमन गिनावौ । चउदिशि चउविदिशा परमाणा, ताको नाहिं उलंघ बखाणा ॥१०॥ जो अधिके जावेको भावा, अतीचार नीजो मू कहावा । चौथो क्षेत्रवृद्धि है दूषन, ताको त्याग करें बूतभूषन ।।६।। जेती दूर जानका नेमा, सो स्वक्षेत्र भाषे अतिप्रेमा । जो स्वक्षेत्रनें वाहिर ठोग, सो परक्षेत्र कहावे औरा ॥२॥ जो परक्षेत्र थकी इह संधा, राखे सठमति हिग्दे अंधा । हाते क्रय विक्रय जो राखै, क्षेत्रवृद्धि दूषण गुरु भाखे ॥६॥ पञ्चम अतिचारको नामा, स्मृत्यंतर भार्स श्रीरामा । ताको अर्थ सुनों मनलाई, करि परमाण भूलि ओ जाई १६४|| जानत और अजानत मुढा, सो नहिं होई व्रत आरूढा । Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ बारह व्रत वर्णन। ए पाचू दोषा जे ठारें, ते प्रत निर्मल निश्चल घारें ॥६५॥ श्री कहिये निजज्ञान विभूती, शुद्ध चेतना निज अनुभूती । केवल सत्ता शुद्ध स्वभावा, आतमपरणति रहित विभावा ॥१६॥ ता परणतिसो रमिया जोई, कर्मरहित श्रीराम जु होई। तिनकी आज्ञानुरूप जु धर्मा, धारे ते नाशें सव भर्मा ।। 8७॥ अब सुनि व्रत्त सातमों भाई, जो दूजो गुणवत्त कहाई । दिशा तणों कियौ परिमाण, तामे देश प्रमाण बखाणा ।। ६८॥ देश नगर अर गाव इत्यादी, अथवा पाटक हाट जु आदी। पाटक कहिये अध जु प्रामा, करै प्रमाण व्रती गुण धामा ।। जिन देशनिरू धर्म जु नाहीं, जाय नहीं निन देशनि माहीं। जब वह बहु देशनिते छूटै, तब यासों अति लोभ जु टूटै ।१०॥ बहु हिंमा आरंभ निवत्यौ, जीवदया मन माहि प्रवत्यौ । विश अरु देशनिको जु प्रमाणा, लोभ नाशने निमित्त वखाना ।।। जिनवर मुनिवर अर जिन धामा, जिनप्रतिमा अर तीरथठामा । यात्राकाज गमन निरदोषा, दीप अढ़ाई लौं व्रतपोसा ॥२॥ अतीचार पाचों तजि धीय जाकरि देश व्रत है धीरा। चित परसल रोकनके कारन, मन वच तन मरजादा धारन ।। कबहूं नहिं उलंधि सु जाई, अर हाते आसा न धराई। प्रेष्य नाम है सेतसको जी, सहि पठावौ जो अधिको जी ॥४॥ वस्तु भेजिवौ लोभ निमित्ता, प्रेष्य प्रयोग दोष है मित्ता। तातें जेतौ देश जु राख्यौ, भृत्य भेजिवौ हातक राख्यौ ॥॥ आगे वस्तु पठेवौ नाहीं, इह बातें धारौ उर माहीं। दुजो दोष आनयन त्यागै, सब हि ब्रत विधानहिं लागे ॥६॥ Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-क्रिया कोष। परक्षेत्र जु तें वस्तु मंगावै सो गुणवतको दूषण लावै। जो परमाण बाहिरा ठौरा, सा परक्षेत्र कहैं जषमौरा ॥७॥ तीजो दोष शब्दविनिपाता, ताको भेद सुनो तुम भ्राता। जय नहीं परि शब्द सुनावै, सो निरदूषण बत्त न पावै ॥ ८॥ चौथा दूषण रूपनिपाता रूप दिखावण जागि न बाता। पंचम पुगदलक्षेप कहावै, कंकर आदिक जोहि वगावै ॥६॥ भावार्थ दिशा अर देशको जावजीव नियम कियो छ, तीहूमें वर्ष छमासी दुमासी मामी पाखी नेम धार्योछ, तीमें भी निति नेम करै छ । सो निति नेम मरजादामे क्षेत्र निपट थोडा राख्यो सो गमन तौ मरजादा बाहिर क्षेत्रमे न करै परि हेलौ मारि सबद सुनावै अथवा जिह तरफ जिह प्रातीसों प्रयोजन होय तिह तरफ झाकि झरोकादिकमे बैठि करि सिंह प्राणीनें अपना रूप दिखाय प्रयोजन जणावे अथवा कंकर इत्यादि बगाय पैलाने मतलब जतावै सो अतीचार लगाय मलीन करें। बेसरी छंद। अब सुनि वरत आठमो भाई, तीजो गुणत्रत अति सुखदाई । अनरथदण्ड पापको त्यागा, यह व्रत धारे ते बडभागा॥ ॥ पंच भेद हैं अनरथदोषा, महापापके जानहु पोषा। पहलो दुर्ध्यान जु दुखदाई, ताको भेद सुनों मनलाई ॥११॥ परऔगुण गहणा उरमाही, परलक्ष्मी अभिलाष धराहीं। परनारी अवलोकन इच्छा, इन दोषनतें सुधी अनिच्छा ॥१२॥ कलह करावन करन जु चाह, बहुरि अहेराकरन उमा है। Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह ब्रत वर्णन । हारि जाति चितवं काहूका, कर नहीं भक्ति जु साहूको ॥१॥ चौर्यादिक चितवै मनमाहीं, दुरगति पानै शक नाही। दूजो पापतनों उपदेशा, सो अनरथ तजि भगै जिनेशा ॥१४॥ कृषि पसु धन्धा वणिज इत्यादी, पुरुष नारि संजोग करादी। मंत्र यंत्र तंत्रादिक सर्वा, तजौ पापकर वचन सगर्वा ॥१५॥ सिंगारादिक लिखन लिखावन, राजकाज उपदेश बतावन । सिलपि करम आदिक उपदेशा, तजो पाप कारिज उपदेशा १६ तजहू अनरथ विफला चरज्या, सो त्यागौ श्रीगुरुने बरज्या । भूमिखनन अरु पानी ढारन, अगनि प्रजालन पवन विलोरन ।१७ वनसपनी छेदन जो करनों, सो विफला चरज्याकों धरनों। हरित तृणाकुर दल फल फूला, इनको छेदन अघको मूला||१८|| अब सुनि चोथो अनरथदण्डा जा करि पावौ कुगति प्रचण्डा । दया दान करिता जु निरंतर इह बाता धारौ उर अन्तर। हिंसादान नाम है जाको, त्याग करो तुम बुध जन ताको ॥१९॥ छुरी कटारी खडगर भाला, जनी आदिक देहिन लाला ॥२०॥ विष नहिं देवौ अगनि न देनी, हल फाल्यादिक दे नहिं जैनी। धनुषवान हि देनों काको, जो दे अघ लगै अति ताकों ॥२२॥ हिंसाकर जेती वस्तू, मो देवो तौ नाहिं प्रसस्तू । बध बंधन छेदन उपकरणा, तिनको दान दयाको हरणा ॥२२॥ पापवस्तु मांगी नहिं देवे, जो देनै सो शुभ नहिं लेग। आमें जीवनिको उपकारी मौ देवौ सबकों हितकारी ॥२३ ।। अन्नवस्त्र जल औषध आदि देवौ श्रुतमें कटौ अनादि । दान समान न भाजु कोई दयादान सबके सिर होई ॥२४॥ Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११२ जैन-क्रियाकोष । मंजारादिक दुष्ट सुभावा, मास अहारी मलिन कुभावा । तिनको धारन कबहू न करनो, जोवनिकी हिंसा- डरनो ॥२५॥ नखिया पखिया हिसक जेही, धर्मवत पाल नहि तेही। आयुधिको व्यापार न कोई, जाकरि जीवनको बध होई ॥२६॥ सीसा लोह लाख साबुन ए, बनिजजाग नहिं अघकारन ए, जती बस्तु सदोष बताई, तिनको बनिज त्यागे भाई ॥२ण। धान पान मिष्टादि रसादिक, लबण हींग घृत तेल इत्यादिक । दल फल तृण पहुपादिक कदा, मधु मादिक बिणिजै मतिमंदा ॥ अतर फुलेल सुगन्ध समस्ता, इनको बणिज न हो प्रशस्ता। तथा आयोग्य मोम हरतारें हिंसाकारन उद्यम टारै ॥२६॥ बध बधनके कारिज जेते, त्यागहु पाप बिणज तुम तेते । पशु पखो नर नारी भाई, इनको बिणज महा दुखदाई ॥३०॥ काष्टादिकको बिणज न करें, धर्म अहिंसा उरमें धरै। ए सब कुविणन छाडै जोई, धरम सरावक धार सोई ॥३१॥ मूलगुणनिमे निंदे एई, अष्टम व्रतमें निंदे तेई । बार बार यह बिणज जु निंद्या, इनकू त्यागै ते नर बंथा ॥३२॥ सुवरण रूपा रतन प्रसस्ता, रूई कपरा मादि सुवस्ता । बिणज करै तौ ए करि मित्रा, सब त अति हो अपवित्रा ॥ सुनो पाचमो और अनर्था, जे शठ सुनहि मिथ्यामन अर्था । एह कुसुत्र सुणवौ अघ मोटा, और पाप सब या छोटा ॥३॥ पाप सकल उपको या सेती, उप कुबुधि जगतमे तेती। भडिम बात सुनो मति भाई, वसीकरण आदिक दुखदाई ।। बसीकरण मनको करि संता, मन जीत्या है ज्ञान अनंता ।। Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वणन । कामकथा सुनिवौ नहिं कबहू, भूलै धर्ने चेत परि अबहू ॥३६॥ परनिंदा सुनियां अति पापा, निंदक लहै नरक संतापा । कबहुँ न करिवौ राग अलापा, दोष त्यागिवौ होय निपापा ॥३॥ बिकथा करिवो जोगि न बीरा, धर्मकथा सुनिवौ शुभ धीरा। मालवाल बकिवौ नहिं जोग्या, गालि काढ़िवौ महा अजोग्या ३८ विनाजेनबानी सुखदानी, और वित्त परिवौ नहिं प्रानी। केवलित केवलिकी आणा, ताको लागे परम सुजाणा ॥३६॥ ते पावें निर्वाण मुनीशा, अजरामर हो जोगीशा । सीख श्रवण रचना कुकथाको, नहीं करौजु कदापि वृथाको १४० जीवदयामय जिनवरपंथा, धारै श्रावक अर निरपन्था। काम क्रोच मद छल लोभादी, टारै जनी जन रागादी ।। ४॥ आगम अध्यातम जिनबानी, जाहि निरूपें केवल ज्ञानी। ताकी श्रद्धा दिढ़ घरि धोरा, करणगोचरी कर वर वीरा ॥४२॥ जाकरि छूटै सर्व अनर्था, लहिये केवल आतम अर्था । धर्म धारणा धारि अखण्डा, तजौ सर्व ही अनरथदंडा ॥४३॥ इन पंचनिके भेद अनेका, त्यागौ सुबुधी धारि विवेका । बड़ो अनर्थ दण्ड है दूजो, यातें सर्व पाप नहिं दूजो ॥४॥ या सम और न अनरथ कोई, सकल वरतको नाशक होई । दूत कमके विसन न लागे, तब सब पाप पन्थतें भागे ॥४५॥ दूतकर्ममें नाहिं बड़ाई, जाकरि बूढे भवमें भाई। अनरथ तजिवौ अष्टम व्रता, तोजो गुणत्रत पापनिवृत्ता ॥४६॥ ताके अतीचार तजि पंचा, तिन तजियां अघ रहै न रचा। पहलो अतीचार कंदर्पा, ताको भेद सुनों तजि दर्पा ॥४७॥ Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। कामोद्दीपक कुकथा जोई, ताहि सजे वुधजन है सोई। कौतकुत्य है दोष द्वितीया, ताको त्याग प्रतनिने कीया val बदन मोरिवौ बाकी करिवौ, भौंह नचैवौ मच्छर परिवौ। नयनादिकको जो हि चलावी, विषयादिकमें मन भटकावौ ॥१६ इत्यादिकजे भंडिम बातें, वजौ व्रती जे सुव्रत घा! कौतकुच्यको अर्थ बखानो, फुनि सुनि तीजा दोष प्रवानों ॥५०॥ भोगानर्थक है अति पापा, जाकरि पइये दुर्गति तापा। ताकों सदा सर्वदा त्यागौ, श्री जिनवरके मारग लागौ ॥५१॥ बहुत मोलदे भोगुपभोगा, सेवै सो पावै दुख रोगा। भोगुपभोगथकी यह प्रीति, सो जानों अधिकी विपरीती ॥५२॥ बहुरि भूखतें अधिको भोजन, जल पीवौ जो विनहि प्रयोजन । शक्ति नहीं अह नारी सेवौ, करि उपाय मधुन उपजेवो ॥५३॥ वृथा फूल फल पानादिक जे, बाधा करै लहै शठ अघ जे । इत्यादिक जे भोगै अर्था, जो सेवौ सो लहै अनर्था ॥५४॥ है मौखर्य चतुर्था दोषा, ताहि तजे श्रावक बूतपोषा । जो बाचालपनाको भावा, सो मौखय कहैं मुनिरावा ॥५५॥ बिना विचारयौ अधिको बकिबो, झूठे वाकजालमें छकिवौ । असमीक्षित अधिकर्ण जु बोरा, अतोचार पंचम तजि धीरा ॥५६॥ बिन देख्यो विन पूछ्यौ कोई, घट्टी मूसल उखली जोई। कछु भी उपकरणा बिन देख्या, बिन पूंछया गृहिवौ न असेखा५७ तब हिंसा टरिहै परवीना, हिंसातुल्य अनर्थ न लीना। ए सब अष्टम व्रतके दोषा, करै जु पापी व्रतको सोखा ।। ५८॥ इन तजिसी व्रत निर्मल होई, ताने तजै धन्य है सोई। Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वर्णन। गुणसूत काहे जु कहाये, ताको अर्थ सुनों मनाये ॥५६॥ पंच अणुस्तकों गुणकारी, सातें गुणत नाम सु धारी। जैसें नप्रतनें है कोटा, तैसें बूत रक्षक ए मोटा non क्षेत्रनि होय बाडि ओ जैस, पंचनिके ए तीन तैसें। अब सुनि घड शिक्षाबूत मित्रा, जिन करि हो मष्ट पवित्रा । अष्टनिकों संख्या दायक ए, ज्ञानमूल तप खूत नायकए। नवमो चूत पहिलो शिक्षाबूत, चित्त धीर धर धारहु अणुव्रत ॥६॥ सामायक है नाम जुताको, धारन करत सुधीजन याकों। सामायक शिवदायक होई, या सम नाहि क्रिया निधि कोई ॥६॥ दोहा-प्रथम हि सातों सुद्धता, भासो श्रुत अनुसार । जिन करि सामायक विमल,-होय महा अविकार ।। ६४॥ क्षेत्र काल आसन विनय, मन बच काय गनेछ । सामायककी शुद्धता, सात चित्त धरि लेहु ॥ ६ ॥ जहा शब्द कलकल नहीं, बहुजनको न मिलाप । दंसादिक प्राणी नहीं, ता क्षेत्र करि जाप ।। ६६ ।। क्षेत्र शुद्धता इह कही, अब सुनि काल विशुद्धि । प्रात दुपहरा साझको, करै सदा सदबुद्धि ।। ६७ ॥ षट षट घटिका जो करें, सो उतकिष्टी रीति । चउचउ घटिका मध्य है, करें शुद्धि धरि प्रीति ॥ ६८॥ द्वैघटिका अधनि है, जेतो थिरता होइ । तेतो बेला योग्य है, या सम और न कोई ॥६६॥ घरै सुधी एकाग्रता, मन लाथै जिनमाहि। यहै शुद्धता कालकी समै उलंधे नाहिं ॥ ७० ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । तीजी आसन शुद्धता, ताको सुनहु विचार । पल्यंकासन धारिके, ध्यावै त्रिभुवन सार ।। ७१ ॥ अथवा काऊसर्ग करि, सामायक करतव्य । सजि इन्द्रियब्यापार सहु, है निश्चल जन भव्य ।। ७२॥ विने शुद्धता है भया, चौथी जिनश्रुति माहि । जिनक्चमें एकाग्रता, और विकल्पा नाहिं ।। ७३ ॥ हाथ जोडि आधीन है, शिर नवाय दे ढोक। तन मन करि दासा भयौ, सुमरै प्रभु तजि शोक ।। ७४ ।। विनय समान न धर्म कोउ, सामायकको मूल । अब सुन मनकी शुद्धता, हे व्रतसो अनुकूल ।। ७५ ॥ मन लावै जिनरूपसो, अथवा जिन पद माहिं । सो मन शुद्धि जु पञ्चमो, यामें संसै नाहिं ।। ७६ ।। छट्ठी वचन विशुद्धता, बिन सामायक और । बबन कदापि न बोलिये, यह भाषे जगमौर ।। ७७ ॥ काय शुद्धता सातमी, ताको सुनहु विचार । काय कुचेष्टा नहिं करै, हस्तपदादिक सार ।। ७८ ।। क्षेत्र प्रमाण कियो जिनें, तजे पापके जोग। मुनि मम निश्चल होयक, करै जाप भविलोग ।।७६ || राग दोषके त्यागते, समता सब परि होइ । ममताको परिहार जो. सामायक है सोइ ॥८॥ सामायक अहनिसि करें, ते पावे भवपार । सामायक सम दूसरो, और न जगमे सार ।। ८१ ।। रानि दिवम करनो उचित, बहु धिरता नहिं होय । Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह ब्रत वर्णन। तौहु त्रिकाल न टारिवौ, यह धारै बुध सोय ॥ ८२॥ जो समायकके ममय, थिरता गहै सुआन । मणुबूत धार सो सुधी, तौपनि साधु भमान ॥ ८३॥ छन्द चाल सामायक सो नहिं मित्रा, दूनो बूत कोई पवित्रा । गृहपतिको जतिपति तुल्या, करई इह बूत जु अतुल्या ॥८४॥ तसु अतीचार तजि पंचा, जब होइ सामायक संचा। मन बच तन दुःप्रणिधाना, तिनको सुनि भेद बखाना ॥५॥ जो पाप काज चितवना, सो मनको दूषण गिनना। फुनि पाप वचनको कहिवौ, सो वचन व्यतिक्रम लहिवौ ॥८६ सामायक समये भाई, जो कर चरणादि चलाई। सो तनको दोष वतायो, सतगुरुने ज्ञान दिखायो ।॥८॥ चौथो जु अनादर नामा, है अतीचार अघधामा। आदर नहिं सामायकको, निश्चै नहिं जिननायकको ॥८॥ समरण अनुपस्थाना है, इह पंचम दोष गिना है। ताको सुनि अर्थ विचारा, समरणमे भूलि प्रचारा cen नहिं पूरो पाठ पडै जो, परिपूरण नाहिं जपं जो। कछुको कछु बोलें बाल, सो सामायक नहिं काल ||१०|| ए पञ्च अतीचारा है, सामायकमें टारा हैं। समता सब जीवन सेती, संजम सुभ भावन लेती ॥६॥ भारति अरू रौद्र जु त्यागा, सो सामायक बड़भागा। सामायक धारौ भाई, जाकरि भवपार लहाई ॥२॥ Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ जंन-क्रियाकोष। बेसरी छंद। क्षमा करौ हममो सब जीवा, सबसों हमरी क्षमा सदीवा। सर्व भूत है मित्र हमारे, बैरभाव सबहीसों टारे ॥६॥ सदा अकेलो मैं अविनाशी, ज्ञान-सुदर्शनरूप प्रकाशी। और मकल जो हैं परभावा, ते सब मोते भिन्न लखावा ॥४॥ शुद्ध बुद्ध अविरुद्ध अखंडा, गुण अनन्तरूपी परचंडा। कर्मबन्धते रुले अनादी, भटको भववन माहि जुबादी॥१५॥ अब देखौ अपनों निजरूपा, तब होवो निर्वाणसरूपा। या संसार असार मंझारे, एक न सुखकी ठौर करारे ॥६६॥ यहै भावना नित्त भावतो, लहैं आपनो भाव अनतो। अब सुनि पोसहकी विधि भाई, जो दसमोव्रत है सुखदाई । पूजा शिक्षात्रत अति उत्तम, याहि धरे तेई जु नरोत्तम । न्हावन लेपन भूषन नारी-मगति गंध धूप नहिं कारी ॥८॥ दीपादिक उद्योत न होई, जानहु पोसहकी विधि सोई। एक मासमे चउ उपवासा, द्वे अष्टमि द्वे चउदसि मासा II षोडष पहर धारनो पोसा, विधिपूर्वक निर्मल निर्दोसा । सामायककी सो जु अवस्था, षोडश पहर धारनी स्वस्था ।१०० पोसह करि निश्चल सामायक, होवे यह भासे जगनायक । पोसक सामायकको जोई, पोसह नाम कहानै सोई ॥१॥ जे सठ चउ उपवास न धारें, ते पशुतुल्य मनुषभव हारें। बहुत करे तो बहुत भला है, पोसा तुल्य न और कला है ॥२॥ चउ टारै चउगतिके माहीं, भरमें यामें संसय नाही। कै उपवासा पखवारे में, इह आज्ञा जिनमत भारेमें ॥३॥ Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A बारह प्रत वर्णन। प्रवकी रीति सुनों मनलाये, जाकरि चेतन सरख लखाये। सममि तेरसि धारन धारे, करि जिनपूजा पातिग टारे ॥४॥ एकमुक्त करि दो पहरांते, तजि मारम्म रहै एकांते । नहिं ममता देहादिक सेती, धरि समता बहु गुणहि समेती ॥५॥ चउ माहार चड विकथा टारे, पड कषाय सजि समता पारे। घरमी ध्यानारुढ़मती सो जगत उदास शुद्धवरती सो ॥६॥ स्त्री पशु पंट बालकी संगति, तजि करि उरमें धारै सनमति। जिनमन्दिर अथवा बन उपवन, तथा मसानभूमिमें इक सन 11 अथवा और ठौर एकान्ता, भजे एक चिद्रप महंता। सर्व पाप जोगनिते न्यारा, सर्व भोग तजि पोसह पारा ॥८॥ मन वच काय गुप्ति धरि ज्ञानी, परमातम सुमरे निरमानी। या विधि धारण दिन करि पुरा, संध्या करै सांझकी सुरा ॥ सुचि संधारे रात्रि गुमावे, निद्राको लवलेश न मावे । के अपनो निजरूप वितारै, के जिनवर चरणा चित धार ।१० के जिनबिम्ब निरखई मनमें, भूल न ममता धरई तनमें । अथवा मोकार अपारा, जपै निरंतर धीरज धारा ॥ ११॥ नमोकार ध्यावे वर मित्रा, भयो भर्मते रहित स्वतंत्रा। जगविरक्त जिनमत आसक्तो,सकल मित्र जिनपति अनुरक्तो १२ कर्म शुमाशुभको जु विपाका, ताहि विचारै नाय क्षमाका । निजको जानै सवतें मिन्ना, गुण-गुणिको माने जुअमिन्ना१३ इम चितवनतें परम सुखी जो, भववासिन सो नाहि दुखी जो। पंच परमपदको मति दासा, इन्द्रादिक पढ़ते हु उदासा ॥१४॥ रात्रिधारनाकी या विषिसों, पूरी कर भरवो व्रतनिधिसों। Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० जैन-क्रियाकोष । फुनि प्रभात संध्या करि वीरा, दिन उपवास ध्यानधरि धीरा१५ पूरी करै धर्मसों जोई सध्या करै साझको सोई। निशि उपवासतणी ब्रतधारी, पूरी करै ध्यानसों सारी ॥१६॥ करि प्रभात सामायक शुबुधी, जाके धटमें रश्च न कुबुधी। पारण दिबस करै जिनपुमा, प्रामुक द्रव्य और नहिं दजा १७॥ अष्ट द्रव्य ले प्रासुक भाई श्री जिनवरकी पूज रचाई।। पात्रदान करि दो पहरा जे, करै पारण आप घरांजे ॥ १८ ॥ ता दिन हू यह रीति बताई, ठौर आहार अल्प जल पाई। धारन पारन अर उपवासा, तीन दिवसलो बरत निवासा ॥१६॥ भूमिशयन शीलनत धार, मन बच तन करि तजै विकार। इहउतकृष्टी पोसह विधि है, या पोसह सम और न निधि है २० मध्य जु पोसह बारह पहरा, जपनि आठ पहवा गुण गहरा। अतीचार याके तजि पंचा, जाकरि छूटे सर्व प्रपंचा ।। २१ ॥ बिन देखी बिन पूछे वस्तू, ताको गृहिवौ नाहिं प्रशस्तु । गृहिवौ अतीचार पहलो है, साको त्यागसु अतिहि भलो है ।२२॥ बिन देखे विन पूछे भाई, सथारे नहिं शयन कराई । अतीचार छटै तब दूमो, इह आज्ञा धरि जिनवर पूजो ।। २३ । बिन देखो बिन पूछो जागा, मल मूत्रादि न कर वड़भागा। करिबो अतीचार है तीजौ, सर्व पाप तजि पोसह लीजो ॥२४॥ पर्व दिनाको भूलन चौथो, अतीचार यह गुणतें चौथो । बहुरि अनादर पंचम दोषा पोसहको नहिं आदर पोषा ।। २५।। ये पाचो तजिया है पोषा, निरमल निश्चल अति निरदोषा । सामायक पोषह जयवंता, जिनकर पइये श्रीभगवंता॥२६॥ Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वर्णन। मुनि होनेको एहि अभ्यासा, इन सम और न कोइ अभ्यासा । मुक्ति मुक्ति दायक ये प्रत्सा, धन्य धन्य जे करहिं प्रवृत्ता ॥२॥ अब सुनि व्रत ग्यारमो मित्रा, तीजो शिक्षाबत्त पवित्रा। जे भोगोपभोग हैं जगके ते सहु बटमारे जिनमगके ।। २८ । त्याग जाग हैं सकल विनासी, जो शठ इनको होय विलासी। सो रुलिहै भवसागर माही, यामे कछू संदेहा नाहीं ॥ २६ ॥ एक अनंतो नित्य निजातम, रहित भोग उपभोग महातम । भोजन तांबूलादिक भोगा, वनिता बल आदि उपभोगा ।। ३० ॥ एकबार भोगनमें यावे, ते सहु भोगा नाम कहा। बार बार जे भोगो जाई, ते उपभोगा जानहु भाई ॥३१॥ भोगुपभोग तनों यह अर्था, इन सम और न कोइ अनर्था । भोगुपभोग तनों परमाणा, सोतीजो शिक्षाबत जाणा ।। ३२॥ छत्ता भोग त्यागे बडभागा, तिनके इन्द्राद्रिक पद लागा । अछताहून तजे जे मूढा, ते नहिं होय प्रत्त आरूढ़ा ॥ ३३ ॥ करि प्रमाण आजन्म इनका, बहुरि नित्य नियमादि तिनका । गृहपतिके थावरकी हिंसा, इन करि है फुनि तज्या अहिंसा ३४ त्याग बराबर धर्म न कोई, हिंसाको नाशक यह होई। अंग विर्षे नहिं जिनके रङ्गा, तिनके कैसे होय अनङ्गा ॥३५॥ मुख्य बारता त्याग जु भाई, त्याग समान न और बड़ाई। त्याग बगै नहिं सौहु प्रमाणा, तामें इह माझा परवाणा ॥३६॥ भोग अजुक्त न करने कोई, तजन मन बच तन करि सोई। मुक्त मोगको करि परमाणा साहूमें नित नेम वखाणा ॥ ३७॥ नियम करौ जु घरीहि घरीको, त्याग करौ सवही जु हरीको । Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-कियाकोष । अनंतकाया दुखदाया, ते साधारण त्याग कराया ॥४॥ पत्र जाति पर कंद समूला, सजने फूलमाति अप धूला। सजने मच मास नधनीता, सहत त्यागिवौ कहैं अजीता ॥३॥ सजने काजी आदि सबैही, अस्थाणा सधाण तजेही। सजने परदारारिक पापा, तजिवी परधन पर संतापा ॥४०॥ इत्यादिक जे वस्तु विरुद्धा, तिनको त्यागै सो प्रतिबुद्धा। सबही तजिबौ महा अशुद्धा, अर जे भोगा हैं अविरुद्धा । ४१॥ भोग भावमें नाहिं भलाई, भोग त्यागि हूमै शिवराई । अपने गुण पर-जाय स्वरूपा, तिनामें गचे हित विरूपा III वस्त्राभरण ब्याहता नारी, खान पान निरदूषण कारी। इत्यादिको अविरुष भोगा, तिनहूको जान ए रोगा ॥४३॥ जों न सर्वथा तजिया जाई, नौ परमाण करौ बहु भाई। सर्व त्यागवौ कहैं विवेकी गृहपतिके कछु इक अविवेकी ॥४४॥ तो लगि भोगुपभोगहि अल्पा, विधिरूपा धारै अविकल्पा। मुनिके खान पान इकवारा, सोहू दोष छियालिस टारा ॥ ४५ ॥ और न एको है जु विकारा, तात महाव्रती अणगारा। त भोगउपभोग सबैही, मुनिवरका शुभ विरद फवैहो ॥४६॥ शक्ति प्रमाण गृहो हू त्याग, त्याग बिना ब्रतमें नहिं लागे। राति दिवसक नेम विचार, यम-नियमादि धरे अघ टार ॥४॥ यम कहिये आजन्म जु त्यागा, नियम नाम मरजादा लागा । यम नियमादि बिना नर देही, पसुहतें मूरख गनि एही ॥४८॥ खान पान दिनहीको करनों, रात्रि चतुर्विषहार हितजनों। नारी सेवे रैनि विर्षे ही, दिनमें मैथुन नाहिं फही ।।१९।। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पारह व्रत वर्णन। निसि ही नितप्रति करनों नाही, त्याग विराम विवेक धराही। नियम माहिं करनों नितनेमा सीम माहिं सीमाको प्रेमा ॥१०॥ करि प्रमाण मोगनिको भाई, इन्द्रिनको नहिं प्रबल कराई। जैसे फणि दूध जु प्यावौ, गुणकारी नहिं विष उपजावो।५ जो तजि भोग भाव अधिकाई, मलपभोग संतोष धराई । सो बहुती हिंसातें छूटयौ, मोहबतें नहिं जाय जु सूटयौ ५२॥ दया भाव उपजो घट ताके, भोगभावकी प्रीति न जाके। भोगुपभोग पापके मूला, इनकू से ते भ्रम भूला ॥५३॥ दोहा-हिंसाके कारण कहे, सर्व भोग उपभोग। इनको त्याग करै सुधी, दयावंत भवि लोग ॥५४ ।। सो प्रावक मुनि सारिख, भोग अरुचि परणाम । समता धरि सब जीव परि, जिनके क्रोध न काम ॥ ५५ ॥ भोगुपभोग प्रमाण सम, नहीं दूसरो और । तृष्णाको क्षयकार जो, है व्रतनि सिरमौर ॥५६ ।। अतीचार या व्रतको, सजो पठच दुखदाय । तिन तजियां व्रत बिमल हुदै लहिये श्री जिनराय ।। ५७।। नियम कियौ जु सचित्तको, भूलिर करें अहार । सो पहलो दूषण भयो सजि हूजे अविकार ॥ ५८ ।। प्रासुक वस्तु सञ्चित्तसों, मिश्रित कवहूं होय । सष्ण जल जु सीतल उदक मिल्यो न लेवौ कोय ॥५६॥ गृहें दोष दूजो लगे, अब सुनि तीजो दोष । जो सचिशसंबंध, सजौ पापको पोष।। ६० ।। पातल दूनां मादिजे, बस्तु सचित भनेक। Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-क्रियाकोष। तिनसों ढक्यौ अहार जो, जीमें सो अविवेक ॥ १ ॥ सुनि चौथो दूषण सुधी, नाम जु अभिषव जास । याको अर्थ अजोगि , जन भरी जिनदास ।। ६२ ॥ अथवा काम उदापका, भोजन अति हि अजोगि। ते कबहुं करने नहीं, बरजी देव अरोगि ।। ६३ ।। बहुरि तजौ बुध पंचमो, अतीचार अघरूप । दुःपको आहार जो अव्रतको ज स्वरूप ।। ६४ ॥ अति दुर्जर आहार जो वस्तु गरिष्ट सु होय । नहीं जोगि जिनवर कहै, तमें धन्नि हैं सोय ।। ६५ ।। कछु पक्यो कछु अपक ही, दुखमों पचे जु कोय । सो नहिं लेवो अत्तनिको, यह जिन आज्ञा होय ।६६ ॥ प्रतीचार पाचो तज्या, व्रत निर्मल है वीर । निर्मल व्रतप्रभावतें, लहै ज्ञान गंभीर ॥ ६७॥ छन्द चाल धरि वरत वारमो मित्रा, जो अतिथिविभाग पवित्रा । इह चौथो शिक्षाबत्ता, जे याकों करें प्रवृत्ता ॥६८ ॥ ते पावें सुर शिव भूती, वा भोगभूमी परसूती। सुनि या ब्रतकी विधि भाई, जा विधि जिनसूत्र बताई ॥ ६८॥ त्रिविधा हि सुपात्रा जगमे, जगको नौका जिनमगमें। महाबत अणुव्रत समदृष्टी, जिनके घट अमृतवृण्टी ॥ ८७॥ तिनको बहुधा भक्तोते, श्रद्धादि गुणनि जुत्ती तें। देवो चउदान सदा जो सो है व्रत द्वादशमो जो ॥ ७० ॥ चउदान सबोंमे सारा, इनसे नहिं दान अपारा। Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwwwwwwwww amananmanirwwwwwwwww बारह व्रत वर्णन। १२५ भोजन औषध मह नाना, फुनि दान अमे परवाना ॥१॥ भोजन दानहिं धन पावै, मौषधि करि रोग न मावे।। श्रुतिदान बोध जु लहाई, इह आशा श्रीजिनगाई ।। ७२ ।। अभया है अभय प्रदाता, भाचे प्रमु केवल शाता। इक भोजनदाने माही, चट दान सधे शक नाही ।। ७३॥ नहिं भूख समान न व्याधी, भव माहीं बड़ी उपाधी। तातें भोजनसो अन्या, नहिं दूजी औषध धन्या ।। ७४ ।। फुनि भोमनवल करि साघू, करई जिनसूत्र अराधू । भोजनतें प्राण अधारा, भोजनतें थिरता धारा ७५ । . तातें चउ दान सधे दानें करि पुण्य बंधे हैं। सो सहु बांछा तजि ज्ञानी, होवो दानी गुणखानी ७६ । इह भव पर भवको भोगा, चाहै नहिं जानहिं रोगा। दे भक्ति करि सुपात्रनकों, निजरूप ज्ञानमात्रनिकों । ७७। तिह रतनत्रयमे संघो, थाप्यो चउविधिको संघो । सो पावै मुक्ति बिमुक्ती, इह केवलि भाषित उक्की १७८ नहिं दान समान जु कोई, सब व्रतको मूल जु होई। यासे भविजन चित धारो, संसारपार जो चाहो । ७६ । जो भाषे त्रिविधा पात्रा, तिनिमे मुनि उत्तम पात्रा। हैं मध्यम पात्रअणुव्रती, समदृष्टी जघन्य अवत्ती। ८० इन तीननिके नव भेदा, मारे गुरु पाप उछेदा । उत्तममें तीन प्रकारा, उतकिष्ट मध्य लघु धारा ८१ । उत्तम तीर्थकर साधू, मध्य सु गणधर माराधू । तिनतें लघु मुनिवर सर्वे, जे तप व्रतसनहिं गः ॥ ८२ ॥ Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष ए त्रिविध उत्तमा पात्रा, तप संजम शील सुमात्रा। तिनकी करिभक्ति सु वीरा, उतर जा करिभवनीरा ॥८॥ मुनिवर होवै निरगषा, चालै जिनवरके पंथा। जो विरकत भव भोगनितें, राग न दोष न लोगनितें। ८४ । विश्राम आपमें पायौ, कामें चित्त न लायौ । रहनों नहिं एक ठौरा, करनों नहिं कारिज औरा । ८५। घर निज-आतम-ध्यान, हरनू रागादि अज्ञान । नहिं मुनिसे अगमें कोई, उतरें भवसागर साई। ८६ । दोहा-मोह कर्मकी प्रकृति सहु, होय जु अट्ठाईस । तिनमे पन्द्रह उपसमे, तब होवे जोगीस । ८७ । पन्द्रा रोकें मुनिव्रते, ग्यारा अणुव्रत रोध । सात जु रोकें पापिनी, सम्यक दग्शन बोध ।८८। क्रोध मान छल लोभ ए, जोवोंकों दुखदाय । सो चंडाल जु चाकरी, वरजें श्रीजिनराय ॥ ८ ॥ अनंतानुबन्धी प्रथम, द्वितीय अप्रत्याख्यान । प्रत्याख्यान जु तोमरी, अर चौथी संज लान ॥ १० ॥ तिनमे तीन जु चौकरी अर तीब्र मिथ्यात । एपंदरा प्रकृत्तिया, तजि व्रत होइ विख्यात ॥ ११ ॥ पहली दूजी चौकरी, बहुरि मिथ्यात जु तीन । ए ग्यारा प्रकृती गया, श्रावकात लवलीन ।। १२ ॥ प्रथम चौकरी दूजी है, टरै तीन मिथ्यात । ऐ सातों प्रकृती टसा, उपजे सम्यक भ्रात ।६३ । तीन चौकरी मुनिव्रते, द्वे अणुव्रत विधान । Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह वजन। १७ पहली रोकें सम्यका, चौथी केवलज्ञान 1 ८४ । तीन मिथ्यात हतें महा, मुनित्रत मर अणुनना। भव्रत सम्यकहते, करहिं अधर्मप्रवृत्त । १५। प्रथम मिथ्यात अबोष अति, जहां न निज-परबोध । धर्म अधर्म विचार नहि, तोलोम अर क्रोध । ६६ । दूमी मिन मिथ्यात है, कछु इक बोध प्रबोध । तीजी सम्यक प्रकृति जो, वेदक सम्यक बोष । १७॥ कछु पचल कछु मलिन जो, सर्वघाति नहिं होइ । तीन माहि इह शुभ तहूं,-वरमनीक है सोइ । १८ । ए मिथ्यात जु तीन विधि, कहे सूत्र अनुसार । सुनों चौकरी बात अब, चारि चारि परकार । ६६ । कोष जु पाहन रेख सो, पाइन थंभ जु मान । माया बास ज जड़ समा, अति परपंच बखान ।। १००। लोभ जु लाखा रंग सो, नर्फोनि दातार । भरमावै जु अनंत भव, प्रथम चौकरी भार ।१। इलरेखा सम क्रोष है, अस्थि भसम मान । माया मीढ़ा सींगसी, तिथि षट मास प्रमान । २। रज भालके सारखो, लोभ पशुगति दाय । इह दूजो है चौकरी, अप्रत्याख्यान कहाय ॥३॥ रघरेखा सम क्रोध है, काठथम्म सो मान । गोमूत्रकी जु वक्ता, ता सम माया जान ॥४॥ लोभ कस्मारक सो, नर भवदायक होई। दिन पंदरा लग वासना, तृतीय चौकरी सोई॥५॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। जलरेला सो रोस है, बेतलता सो मान । माया सुरभी चमरशो, लोभ पतंग समान ॥६॥ तथा हरिद्रारंग सो, सुरगति दायक जेह । एक महूरत बासना, अन्त चौकरी लेह ॥७॥ कही चौकरी चारि ये, च्यार हि गतिको मूल । चारि चौकरौ परि हरै, करै करम निरमूल ॥८॥ मुनिने तीन जु परिहरी, धरी सातता सार । चौथी हूको नाश करि, पावै भवजल पार ॥६॥ सकल कर्मकी प्रकृति सौ, अरि उपरि अड़ताल । मुनिवर सर्व खपावहीं, जीवनिके रिछपाल ॥१०॥ मुनिपद बिन नहिं मोक्ष पद, यह निश्चै उरधारि। मुनिराजनकी भक्ति करि, अपनो जन्म सुधारि ॥११॥ छन्द चाल। मुनि हैं निभय वनवासी, एकान्तवास सुखरासी । निज ध्यानी आतमरामा, जगकी संगति नहीं कामा ॥१२॥ जे मुनि रहनेको थाना, बनमें कराहिं मतिवाना। ते पावं शिव सुर थाना, यह सूत्रप्रमाण बखाना ॥१३॥ मुनि लेई अहारइ मित्रा, लघु एक बार कर पात्रा । जे मुनिको भोजन देही, ते सुरपुर शिवपुर लेही ॥१४॥ जो लग नहि केवल भावा, तौलग आहार धरावा। केवल उपजें न अहारा, भार्गे भवदूषण सारा ॥१५॥ नहिं भूख तृषादि सबै ही, जब केवल ज्ञान फबही। केवल पायें जिनराजा, केवल पद ले मुनिराजा ॥१६॥ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व वर्णन । ..nmwww . mmm मुनिकी सेवा सुखकारी, बड़ भाग करें उरधारी। पुस्तक मुनि पै ले जावें, सुनि सूत्र अर्थ ते आवें ॥११॥ ते पावें आसमज्ञाना, ज्ञानहिं करि है निरवाना। मेषज भोजनमे युक्ता, मुनिकों लखि राग प्रत्यक्ता ॥१८॥ देवें ते रोग नसावें, कर्मादिक फेरि न आवें । मुनि उपसर्ग निवारें, ते आतम भवाघि तारें ॥१९॥ मुनिराज समान न दूजा, मुनिपद त्रिभुवन करि पूजा। मुनिराज त्रिवर्णा होवै, शदर नहिं मुनिपद जोबे ॥२०॥ मुनि आर्या एल महा ए ह', क्षत्री द्विज बणिजाए । अब मध्यपात्रके भेदा, त्रिविधा सुनि पाप उछेदा ॥२॥ उतकिष्ट रु मध्य जघन्या, जिनसे नहिं जगमे अन्या। पहली पडिमासो लेई, छठ्ठी तक श्रावक जेई ॥२था मध्यनिमे जघन कहावै, गुरु धर्म देव उर लावै । जे पञ्चम ठाणों भाई, अणुवृत्ती नाम धराई ॥२३॥ पहली पडिमा धर बुद्धा, सम्यक दरसन गुण शुद्धा । त्यागें जे सातों बिसना, छाडें विषयनकी तृष्णा ॥२४॥ जे अष्टमूल गुण धारे, तजि अभख जीव न सधारें। दूजी पडिमा घर धारा, व्रतधारक कहिये वीरा ॥२५॥ बारा व्रत पालै जोई, सेवे जिनमारग सोई। जे धार पञ्च अणवत्त, त्रय गुणनत चउ शिक्षाबत ॥६॥ चौपाई-ताजी पडिमा धरि मतिवन्त, सामायकमे मुनिसे सन्त । पोसामे आरूढ़ विशाल, सो चौथी पडिमा प्रतिपालारण पश्चम पडिमा घर नर धीर, त्याग सचित्त वस्तु वर वीर । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष पत्र फूल फल कूपल आदि, छालि मूल अंकुर वीजादि ||२८|| मन बच तन करि नीली हरो, त्यागें उरमे दृढ व्रतधरी । जीव दयाको रूप निदान, पट कायाको पीहर‍ जान ||२६|| पाल्यौ जैन वचन जिन धीर, सर्व जीवको मेटी पोर । छुट्टी प्रतिमा धारक मोई, दिवस नारिको परम न होई ॥३०॥ रात्रि विषे अनसन व्रत धरै, चर अहारको है परि हरे । गमनागमन तजै निशि माहिं मनबचतन दिन शील धराहिं ॥ ए पहलीलो छुट्टी लगे, जघन्नि श्रावक के प्रत जगें । पतिव्रता व्रतबती नारि, मध्यम पात्र जघन्नि विचारि ||३२|| ras और श्राविका जेह धरवारी नचारी तेह | मध्यम पात्तर कहे जघन्य, इनकी सेव करे सो धन्य ॥३॥ वस्त्राभरण अन्न जल आदि, धान मान औषध दानादि । देवे श्रुत सिद्धान जु बीर, हग्नी तिनकी सब ही पीर ||३४|| अभयदान देवो गुणवान, करनी भगनि कहैं भगवान । भवजलके द्रोहण ए पात्र, पार उतारें दरसन मात्र ||३५| दोहा - सप्तम प्रतिमा धारका ब्रह्मचर्य व्रत धार । नारीको नागिन गिने, लख्यौ तत्व अविकार ॥ २६ ॥ मन वच तन करि शोलधर, कृत कारित अनुमोद | निजनारोहूकू तजे, पावै परम प्रमोद ॥ ३७ ॥ जैसे ग्यारम दशम नव, मष्टम पड़िमाधार । मन बच तन करि शील धरि, तैसे ए अविकार ।। ३८ ।। तिनतें एतो आतरो, आरम्भ वितीत | इनके अलपारम्भ है, क्रोध लोभ छळ जीत ॥ ३६ ॥ १३० Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३१ बारह व्रत बण् न । लख्यौ आपनों तत्व जिन, नहिं मायासों मोह।। तजै राग दोषादि सब, काम क्रोध पर द्रोह ॥ ४०॥ कछु इक धनको लेस है, तातें घरमे वास । जे इनकी सेवा करें, ते पाबे सुखरास ॥४१॥ अब सुनि अष्टम पडिमा ए, त्रस थावर जीवदया ए। कछु ही धघा नहि करनों, आरम्भ सबै परिहरनो ॥४२॥ भजनों जिनको जगदीमा, तजनो जगजाल गरीसा। तनसो नहिं स्वामित धरनो, हिंसासो अतिही डरनों ॥४३ श्रावकके भोजन करई, नवमी सम चेष्टा धरई। नवमीतें एतो अन्तर, ए है कछुयक परिग्रह धर ॥४४॥ वन माहीं थोरो रहनो, शीतोष्ण जु थोरो सहनों। जे नवमी पडिमावंता, जगके त्यागी विकमता ॥४॥ जिन धातु मात्र मब नाखे, कपडा कछुयक ही राखे । श्रावक्के भोजन भाई, नहिं माया मोह धराई ॥४६॥ आवै जु बुलाये जीवा, जिनको नहिं माया छीवा । है दशमीते का नूना, परिकीय कर्म अब चुना ॥४७॥ एतो ही अंतर उनते, कबहुक लौकिक बचनननें। बोलें परि विरकतभावा, धनको नहिं लेश धरावा ॥४८॥ आतेकों आरुकारा, जातें सो हल भल धारा। दसमीते अतिहि उदासा, नहिं लौकिक वचन प्रकाशा ॥४ सप्तम अष्टम अर नवमा, ए मध्य सरावग पडिमा । मध्यनिमें मध्य जु पात्रा, व्रत शील ज्ञान गुण गात्रा ॥५०॥ Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ जैन-क्रियाकोष | अथवा हो भाविक शुद्धा, व्रतधारक शील प्रवृद्धा । जो ब्रह्मचारिणी बाला, आजनम शील गुण माला ॥५१॥ सो मध्यम पात्रा मध्या, जानों व्रत शील अवध्या । अथवा निजपतिको त्यागै, सो वृह्मचर्य अनुराग ॥५२॥ सो परमश्राविका भाई, मध्यनिमे मध्य कहाई । इनको जो देय अहारा मो ह्वै भवसागर पारा ॥५३॥ दोहा - अन्न वस्त्र जल औषधी, पुस्तक उपकरणादि । धान नान दान जु करें ते भव तिरे अनादि ॥५४॥ हरे सकल उपसर्ग जे, ते निरुपद्रव होहिं । सुरनर पति है मोक्षमें, राजे अति सुखसो हि ॥५५॥ छन्द चाल । जा दामी पडिमा धारा, श्रावक सु विवेकी चारा । जग धंधाको नहिं लेसा, नहिं धंधाको उपदेशा ||५६|| नमे हु रहे वर वीरा, ग्रामे हु रहै गुणधीरा । आवै पावक घरि जीवा, नहि कनकादिक कछु छींवा १५ एका दशमीतें छोटे, परि और सकलतें मोटें । जिनबानी बिन नहिं बोले, जे कितहू चिन्त न डोलें ॥५८॥ मुनिवरके तुल्य महानर, दशमी एकादशमी धर । एकादशमी द्व भेदा, एलिक छुल्लक अघछेदा ॥५६॥ इनसे नहि श्रावक कोई, सबमे उत किष्ट होई । त्यागौ जिन जगत असारा, लाग्यौ जिन रंग अपारा ॥६०॥ पायौ जिनराज सुधर्मा, छाड़े मिथ्यात अधर्मा । जिनके पंचम गुणठाणा, पूरणतारूप विधाना ||६१ || Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन । द्वे माहि महंत जु ऐला, निश्चलता करि सुरशैला। जिनके परिग्रह कोपीना, अर कमंडल पोछी तीना ॥३२॥ जिनसासनको अभ्यासा. • वभावनिसू जु उदासा। श्रावकके घर अविकारा, ले आप उदंड अहारा ॥ गुणवान साध सारीसा, लुश्चितकेसा बिनरीसा। ए ऐलि त्रिवर्णा होई, शूद्रा नहिं ऐलि ज कोई ॥६॥ इनतें छुल्लक कछु छोटे, परि और सकलतें मोटे । इक खंडित कपरा राखें, तिनको छुल्लक जिन भाखें ६५ कमंडलु पीछी कोपीना, इन बिन परिग्रह तजि दीना। जिनश्रुति अभ्यास निरंतर, जान्यू है निज पर अंतर । ६६ । ने हैं जु उदड विहारा, ले भाजनमाहिं अहारा। कातरिका केस करावे, ते छुल्लक नाम कहावै । ६७ ॥ चारों हैं वर्ण जु छुल्लक, राखें नहिं जगसू तहलुक । आनन्दी आसमरामा, सम्यकदृष्टी अभिरामा ।। ६८ । एकै हैं भेद बड भाई, ग्यारम पडिमा जु कहाई । वन माहिं रहैं वर वीरा, निरभै निरव्याकुल धीरा । ६६ । तिनकी करि सेव ज भाया, जो जीवनिको सुखदाया। तिनके रहनेकों थाना, वनमें करने मतिवाना । ७० । भोजन मेषज जिनप्रन्था, इनकों दे सो निजपंथापावै अर दे उपकरणा, सोहर जनम जर मरणा । ७१। उपसर्ग उपद्रव टारे, ते निरभै थान निहारै । दसमी अर ग्यारम दोऊ, मध्यम उतकिष्टे होउ । ७२ अथवा आर्या व्रतधारी, अणुव्रतमें श्रेष्ठ अपारी । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-क्रियाकोष । आर्या घरबार ज त्यागे, श्रीजिनवरके मत लागे । ७२ ॥ राखै इक वस्त्र हि मात्रा, सप करि है क्षीण जु गात्रा। कमडल पीछी पर पोथी'ले भूति तजी मह थोथी।७४ थावर जगम ननवाना, जानें सब आप समाना। जे मुनि करि पात्रमहारा, सिर लोच करें तप धारा । ७५ तिनकी सो रीति ज धार जगसो ममता नहिं का। द्विज क्षत्री बणिक कुला ही, हवै आर्या अति विमलाही ७६ अण व्रत परि महाबत तुल्या, नारिनमें एहि अतुल्या। माता त्रिभुवनकी भाई, परमेसुरमों लवलाई । ७७ आर्याकों वस्त्र ज भोजन, देनें भक्ती करि भोजन। पुस्तक औषधि उपकरणा, देने सहु पाप ज, हरणा [७८ उपसर्ग हरै बधिवाना, रहनेकों उत्तम थाना । देवे पुन वह अविनासी, लेवै अति आनंदरासी । ७६ दोहा छै पडिमा जानों जघनि, मध्य ज नवमी ताई । कस एकादशमी उभौ, उतकृष्टी कहवाई । ८०॥ पतिव्रता जो श्राविका, मध्यम माहि जघन्य । ब्रह्मचारिणी मध्य है, आर्या उत्तम धन्य । ८१ पंचम गुण ठाणो प्रती, श्रावक मध्य ज पात्र। छठे सातवे ठाण मुनि, महामात्रगुणगात्रा८२ कहे मध्यके भेद त्रय अर उतकिष्टे तीन । सुनो जघन्य जू पात्रके, तीन मेद गुणलीन । ८३ चौथे गुप्तठाणे महा, क्षायक सम्यकवन्त । सो खतकिष्टे जघनिमें, भार्षे श्रीभगवन्त । ८४ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। क्रोध मान छल लोम खल, प्रथम चौकरी जानि । मिथ्या भर मिश्रहि तथा, समै प्रकृति परवानि । ८५ सात प्रकृति ए खय गई, रह्यौ अलप संसार। जीवनमुक दशा धरै, सो क्षायकसम धार । ८६ सातो जाके उपसमें, रमै आपमें धीर । सो उपसम-सम्यक धनी, जघनि माहि मधिवीर । ८० सात मांहि षट उपसमें, एक तृतीय मिथ्यात । उदै होय है जा समें, सो वेदक विख्यात । ८८ वेदक सम्यकवन्त जो, अनि जघनिमें जानि । कहे तीन विधि जयनि ए, निज आज्ञा उर आनि ॥८॥ जपनि पात्रकू अन्न जल, औषध पुस्तक आदि। वस्त्राभूषण आदि शुभ, थान मान दानादि ।।१०॥ देवो गुरु भार्षे भया, करनो बहु उपगार। हरनी पोरा कष्ट सहु, धरनों नेह अपार ॥६॥ सब ही सम्यकधारका, सदा शात रसलीन। निकट भव्य जिनधर्मके,-धोरी परम प्रवीन ॥२॥ नव भेदा सम्यक्तके, तामे उत्तम एक। सात भेद गनि मध्यके, जघनि एक सुविवेक ॥३॥ वेदक एक अघन्य है, उत्तम क्षायक एक । और सबै गनि मध्य ए, इह धारौ जु विवेक all क्षयोपसम वरते त्रिविध, वेदक चारि प्रकार। झायक उपसम जुगल जुत, नौधा समकित धार ॥५॥ वेदक कायक चंचला, तोपनि मर्म उछेद । Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ जैन-क्रियाकोष । आपकी शुद्धता, जानें निज पर मेद ॥ ६॥ सेवा जोग्य सुपात्र ए. कहे जिनागम माहिं । भक्ति सहित जे दान दें, ते भवभ्रांति नसाहिं ॥६७॥ त्रिविव पात्रके भेद नव, कहे सूत्र परवान । मुनिको नवधा भक्ति करि, देहि दान बुघिमान विधिपूर्वक शुभ वस्तुकों, स्वपर अनुग्रह हेत । पातरकों दान जु करें, सो शिवपुरको लेत ॥६॥ नवधा भक्ति ज कोनसी, सो सुनि सूत्र प्रवानि | मिथ्या मारग छाडि करि, निज श्रद्धा डर अनि ॥१००॥ आवौ व्यावौ शबद कहि तिष्ट तिष्ट भासेहि । सो संग्रह जानों बुधा, अघ -संग्रह टारेहि ॥१॥ ॐ चौ आसन देय शुभ, पात्रनिकों परवीन । पग धोवै अर बहुरि, होय बहुत आधीन ॥२॥ करें प्रणाम विनै करी, त्रिकरण शुद्धि घरेहि । खानपानकी शुद्धता, ये नव भक्ति करेहि ||३|| सुनों सात गुण पंडिता, दातारनिके जेह । घारे धरमी धीर नर, उधर भवजल तेह ||४|| इह भव फल चाह नहीं, क्रियावान अति होय । कपट रहित ईर्षा रहित, घरै विषाद न सोय ॥५॥ हुई उदारता गुण सहित, अहंकार नहिं जानि । ए दाताके सप्त गुण, कहे सूत्र परवानि ॥६॥ श्रद्धा घरि निज शक्तिज त, लोभ रहित है धीर । दया क्षमा दृढ़ चित्त करि, देय अन्न भर नीर ॥७॥ Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वर्णन | रागदोष मद भोग भय, निद्रा मन्मथवीर | उपजावै जु, असंजमा, सो देवौ नहिं वीर ॥ यह आज्ञा जिनराजकी, तप स्वाध्याय सु ध्यान । बुद्धिकरण देवौ सदा, जाकरि लहिये ज्ञान ॥ धा मोक्ष कारणा जे गुणा, पात्र गुणनके धीर । तातें पात्र पुनीत ए, भाषें श्रीजिनवीर ॥१०॥ संविभाग अतिथीनको, व्रत बारमों सोइ । दया तनों कारण इहै, हिंसा नाशक होइ ||११|| हिंसाके कारण महा लोभ अजसकी खानि । दान करे नासै भया, इह निश्चै डर मनि ||१२|| भोग रहित निज जोग धरि, परमेसुरके लोग। जिनके दर्शन मात्र हो, मिटै सफल दुख सोग ॥१३॥ मधुकर वृति धारें मुनी, पर पीडा न करेय । पुन्यजोग आवै धरें, जिन माझा ज धरेय ॥१४॥ तिनकों जो सु अद्दार दे, सा सम और न कोई । दानधर्मतें रहित हो, किरपण कहिये सोइ ॥ १५॥ कियौ आपने अर्थ जो, सो ही भोजन भ्रात । मुनिकों अरति विषाद तजि, सो भवपार लहात ||१६|| शिथिल कियौ सिंह लोभको, परम पंथके हेत । तेई पात्रनिकों सदा, विधि करि दान जु देव ॥१७॥ सम्यकदृष्टी दान करि, पावै पुर निरवान । अथवा भव धरनों पर, तौ पावै सुरथान ॥१८॥ बिन सम्यक्त जु दान दे, त्रिविधि पात्रको जोहि । १३० Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८५ जन-क्रियाकोष | पावै इन्द्री भोग सुख, भोगभूमिमें सोहि ॥११॥ उत्तम पात्र सु दानतें, भोगभूमि उतकिष्ट । पावै दशधा करूपतरु, जहा न एक अनिष्ट ॥२०,, मध्य पात्र दान करि, मध्य भोगभू माहिं । raft पात्रके दान करि, अधनि भोगभू जाहिं ॥२१॥ पात्रदानको फल इहै, भाषें गणधरदेव । धन्य धन्य जो जगतमें, करें पात्रको सेव ॥२२॥ छन्द वाल देने औषध सु महारा देने श्रुत पाप प्रहारा । रहनेको देनी ठौरा करने अति ही जु, निहौरा ॥२३॥ हरने उपसर्ग तिनूंके, घरने गुण चित्त जिनू के । सुख साता देनी भाई, सेवा करनी मन लाई ||२४|| ए नवबिधि पात्र जु, भाखे, आगम अध्यातम साखे । बहुरि त्रय भेद कुपात्रा, धारे वाहिज व्रतमात्रा ||२५|| जे शुभ किरिया करि युक्ता, जिनके नहिं रीति अयुक्ता । सम्यक दर्शन बिन साधू, तप संयम शील अराघू ॥२६॥ पावे नहिं भवजल पाग, जावे सुरलोक विचारा । पहुंचे नव ग्रीब लगे भी, जिनतै अघकर्म भर्गे भी ॥२१॥ पण भावलिंग विनु भाई, मिथ्यादृष्टी हि कहाई । द्रविलिंगिधार जति जेई, उतकिष्ट कुपात्रा तेई ||२८|| जे सम्यक बिन अणुव्रत्ती, द्रवि श्रावकत्रत प्रवृत्ती । ते मध्य कुपात्र बखानें, गुरुने नहि श्रावक मानें ॥ २६ ॥ आपा पर परच नाहीं, गनिये बहिरातम माहीं । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A anvrmarwAmAyaN. mme बारह व्रत वर्णन । षोडस सुरगोंलों जावें, आतम अनुभव नहिं पावें ॥३०॥ दोहा-जधनि कुपात्रा मवती, बाहिर धर्मप्रतीति । दीखें समदृष्टि समा, नहिं सम्यककी रीति ॥३१॥ शुभगति पावौ तौ कहा, लहै न केवल भाव । ये संमारी जानिये, भाई श्रीजिन राव ॥३२॥ इनको नानि सुपात्र जो, धारें भक्ति विधान । सो कुभोग भूमी लहै, अल्पभोग परवान ॥३॥ पर उपगार दया निमित्त, सदा सकलको देय । पात्रनिकी सेवा करै, सो शिवपुर सुख लेय ॥३४॥ नहिं श्रावक नहिं व्रत जती, नहिं श्रावक व्रत जानि । नहिं प्रतीति जिन धर्मकी, ते अपात्र परवानि ॥३५॥ बिनै न करनों तिन तनों, दया सकल परिजोग। करनी भक्ति सु पात्रकी, भक्ति अपार अजोगि ॥३६।। करनी करुणा सकल परि, हरनी सबकी पीर। करनी सेवा सन्तकी, इह भाषै श्री बीर ॥३७॥ पात्रापात्र द्विभेद ए, कहे सूत्र अनुसार। अब सुनि करुणादानको, भेद विविध परकार ॥३८॥ सब आतमा आपसे, चेतनगुण भरपूर ।। निज परको पहिचान बिन, भ्रमे जगतमें क्रूर ॥३६॥ उदै कर्मके हैं दुखो, मादि व्याधिके रूप। परे पिण्डमें मूढधी, लखें नहीं चिद्रूप ॥४०॥ तिन सब पर धरिके दया, करैं सदा उपगार। नर विर सबही जीवको, हरै कष्ट प्रतधार ॥७॥ Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। अपनी शक्ति प्रमाण जो, मेटे परकी पीर । तन मन धन करि सर्वको, साता दे वर वीर ॥४२॥ मन्न वस्त्र जल औषधी, त्रण आदिक जे देय । जाने अपने मित्र सहु, करुणा भाव धरेय ॥४॥ बाल बृद्ध रोगीनको, अति ही जतन कराय । अंघ पंगु कुष्टि न परि, कर दया अधिकाय ॥४४॥ बन्दि छुडावै द्रव्य दे, जीव वचावै सर्व। अभैदानदे सर्वको, धरै न धनको गर्व ॥४५॥ काल दुकाले मांहि जो, अन्नदान बहु देय । रंकनिको पोहर जिकौ, नर भवको फल लेय ॥४६॥ आको जगमें कोउ नहीं, ताको भीरी माइ । दुरबलको बल शुभ मती, प्रमुको दास कहाइ॥४७॥ शीतकालमें शीत हर, दे वस्त्रादिक वीर । उस्णकालमें तापहर, वस्तु प्रदायक धीर ॥४॥ वर्षा काले धर्म घी, दे आश्रय सुखदाय । जल बाधा हर वस्तु दे, कोमल भाव धराय 88 भांति भातिके औषधी, भाति भातिके चीर । भाति भातिकी वस्तु दे, सो जैनी अगवीर ॥५०॥ दान विधी जु अनन्त है, कौ लग करे बखान । जाने श्रीजिनराजज, किह दाता बुधिवान ॥५१॥ भक्ति दया द्वै विधी कही, दान धर्मकी रोवि । ते नर अङ्गीकृत करें, जिनके जैन प्रतीति ॥५२॥ लक्ष्मी दासी दानकी, दान मुकनिको मूल। . Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ animoonamrunmammnaram mewormi दान समान न मान कोड, जिन मारग माल ५३॥ अतीचार या प्रत्तके, तजे फव्व परकार। तब पावै बूत शुद्धता, लहै धर्म अवतार ५४|| भोजनको मुनि आवहीं, सब जो मूढ़ कदापि । मनमें ऐसी चितवै, दान-करन्ता क्वापि ॥५५॥ लगि है बेला चूकिहों, जगतकाज तें आज । ताते काहूको कहै, जाय करें जग काज ॥५६॥ मो बिन काम न होइगो, तातें जानों मोहि । दान करेंगे भातृ-सुत, इहहू कारिज होहिं ॥५॥ धनको जाने सार जो, धर्म हि जाने रख्छ । सो मूढनि सिरमौर है, घटमे बहुत प्रपंच १५८ कहै भ्राति पुत्रादिको, दानतनों शुभ काम । आप सिधारे जढ़ मती, जग घधाके ठाम ॥५६॥ परदात्री उपदेश यह, दूषण पललो जानि। पराकान है या थकी, यह निश्चय उर आनि ॥६॥ मुनि सम हवे गो धन कहा, इह धार उर धीर। मुक्ति मुक्ति दाता मुनी, षट गायनिके वीर ॥६१॥ फुनि सचित्त निक्षेप है, दूजो दोष अजोगि। ताहि सजे तेई भया, दान प्रतको जोगि॥२॥ सचित वस्तु कदली दला, ढाक पत्र इत्यादि। तिनमें मेली वस्तु जो, मुनिको देवौ वादि ॥६शा दोष लो जु सचित्तको, मुनिके अचित आहार । वाते सचितनिक्षेपको, त्याग करे त पार ।। ६५ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ जैन-क्रियाकोष। तीजी सचितविधान है, ताहि तजौ गुणवान । कमलपत्र आदिक सचित, तिन करि ढाक्यौ धान ॥ ६५ ॥ नहिं देनो मुनिरायको, लगै सचितको दोष । प्रासुक आहारी मुनी, प्रत तप सजम कोष ।। ६६ ।। काल उलंघन दानको, योग्य होत नहिं दान । सो चौथो दूषण भया त्यागे, ते मतिवान ।। ६७ ॥ है मच्छरता पंचमों, दूषण दुखको खानि । कर अनादर दानको, ता सम मूढ न आनि ।। ६८॥ देखि न सके विभूति पर, परगुण देखि सकेन । सहि न सके पर उच्चता, सो भववाम तजै न ।। ६६ । नहिं मात्सर्य समान कोउ, दूषण जगमें आन । जाहि निषेधे सुत्रमे तीर्थकर भगवान ॥ ० । अतीचार ए दानके कहे जु श्रुत अनुसार । इनके त्याग किये शुभा, होवै व्रत अविकार ।। ७१। नमो नमो चउदानको , जे द्वादश व्रत-भूल । भोजन भेपज मे हरण ज्ञानदान हर भूल । ७२ । भोजन दाने ऋद्धि ह वै' औषध रोग निवार । अभेदानते निर्भया, श्रुति दाने श्रुति पार । ७३ । कहे व्रत द्वादश सबै, दया आदि सुखदाय। दान प्रजंत शुभंकरा, जिन करि सब दुख जाय । ७४। एक एक व्रतके कहे, पंच पंच अतिचार । पाले निरतीचार व्रत, ते पावें भव पार ॥५॥ सम्यक बिन नहिं प्रत्त व प्रत विन नहिं वैराग। Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। विन वैराग न ज्ञान इबै राग त बड़भाग।।७६ ॥ छन्द चाल अब सुनि सब ब्रतको कोटा, देशावकाशिनत मोटा। ताकी सुनि रीतिजु भाई जैसी जिनराज बताई ॥ ७७ । पहले जुकरौ परमाणा, दिसि विदिशाको विधि जाणा। इन्द्री विषययनको नेमा, कीयौ धरि व्रतसों प्रेमा ।। ७८ । धन धान्य अन्न बस्त्रादी, भोजन पानाभरणादी । मरजादा सबकी धारी, जीवितलों धर्म सम्हारी ॥ ७६ जामें मरजादा बरसी, तामें छै मासी दरसी। करनी चउमासी तामे, बहुरि द्वै मासी जामे ।। ८० । ताहूमे मामी नेमा, मासीमे पाखी प्रेमा । पाखीमे आधी पाखी, जाहूंमें दिन दिन भाखो ।। ८१ । दिन माहीं पहरा धारै, पहरनिमें घरी विचारै । पल पलके धारै नेमा, जाके जिनमनसो प्रेमा ।। ८२ भोगनिसों घटतो जाई, व्रत है चड़तो अधिकाई। सीमामे सोमा कारै, जिन मारग जनतै धारें।। ८३ ॥ हू वै बाडि फले क्षेत्रनिके, जैसे कोट जु नगरीके । तैसे यह द्वादश इतके, देशावकाशित सबके ॥ ८४ । देसावकाशित माही, सतरा नेम ज सक नाही। तिनकी मुनि रीति जु मित्रा, जिन करि है व्रत पवित्रा ) दोहा-नियम किये व्रत शोभा हो, नियम बिना नहिं शोभा मागे पान धरि नेमकों, धार तजि मद लोमा - Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स जैन-क्रियाकोष। ManANIArnama सातरा नेमके नाम उकच श्रावकाचारे--- भोजने षटरसेपाने, कुंकुमादिविलेपने । पुष्पताबूलगीतेषु, नृत्यादौ ब्रह्मचर्यके ॥१॥ स्नानभूषणवत्रादौ, वाहने शयनाशने । सचित्तवस्तुसख्यादौ, प्रमाण भज प्रत्यहम् ॥२॥ चौपाई-भोजनकी मरजादा गहै, वारंबार न भोजन लहै । पर घर भोजन तोहि जु करें, प्रात समै जो संख्या धरै।८१ अन्न मिठाई मेबा आदि, भोजन माहि गिने जु अनादि।। बहरि चवेणी अर पकवान, भोजन जाति कहे भगवान 1cal सब मरजादा माफिक गहै, बारबार ना लीयौ चहै। षट रसमें राखे जो रसा, सोई लेय नेममे बसा ।। और न रस चाखौ बुधिवन्त, इह आज्ञा भाषे भगवन्त । कामउदीपक हैं रमजाति, रस परित्याग महातप भाति ।। जो रसजाति तजी नहिं जाय, करि प्रमाण जियमें ठहराय । पानी सरबत दूधरु मही, इत्यादिक पीवेके सही ।। तिनमे लेवौ राखै जोहि, ता माफिक लेवौ बुध सोहि । चोवा चन्दन तेल फुलेल, कुकुम और अरगना मेल ।।२। औषधि आदि लेप है जेह, संख्या विन न लगावै तेह । जाने येह देह दुरगन्ध, वाके कहा लगावै सुगन्ध । जो न सर्वथा त्यार वीर, तोहु प्रमाण गृहै नर धीर । पहुप जाति सो छाड़े प्रेम अति दोषीक कहे गुरु एमा भोग उदै जो त्यागि न सके, थोरे लेप पाप तें सके। पान सुपारी डोढ़ा आदि, लोंगादिक मुखसोध अनादि ॥१५॥ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चारह प्रवर्णन। बालचिनी सावित्री आनि, जातीकल इत्यादि क्वानि । सबमें पान महादोपीक, असे पापनि माहि मलीक १६॥ पान त्यागियौ जावो जीव, पापनिमें प्राणी सुमतीय । नो मतिमोगी छांदि न सके, बोरे खाय दोपते सके। गीत नृत्य वादिन जु सर्व, उपजावे मति मनमथ गर्व । ए कौतूहल अधिके बन्ध, इनमें जो राचे सो मन्ध Itel भी न सनथा छाडे जाय, तोहु अधिक न राग घराय। मरजादा माफिकही भजे, मौसर पाय सकल ही त। ६६ एक सेद या माहों भौर, मापुन बैठो अपनी ठौर । गाक्त गीत त्रिया नीकली, सुनिकर हर चितार रली ॥१०॥ वामें दोष छगै मषिकाय, भाव सराग महा दुखदाय । पातरि नृत्य मखारे माहिं, नट नटवा अथ नृत्य कराहिं ।। वादीगर आदिक बहु ख्याल, बिनु परमाण न देखौ लाल। अब मुनि ब्रह्मचर्यकी बात, याहि जु पाले तेहि उवात ॥२॥ परनारीको है परिहार, निजनारीमें इह निरधार । जावो जीव दिवसको त्याग, रात्रि विष हू मलपहि राग ॥३॥ पाचू परवी सील गहेय, अर सब व्रतके दिवस घरेय । कबहुक मैथुन सेवन परै, सो मरभादा माफिक करें ॥४॥ महा दोषको मूल कुशील, या तजिबेमें ना करि ढील। सेक्त मनमथ जीव विधात, इहै काम है अति उतपात ॥५॥ मोन सर्वथा त्याग्यौ जाहि, तौह अलप सेववौ ताहि ।। नदी तलाब बापिका कूप, तहां जात न्हाबौ जु विरूप ॥ मो न्हावं बिनछाणों गले, ते सब धर्म कर्मते टलैं। Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोप | लया । ॥ ८ ॥ जैसो रुधिरथ की वे स्नान, तैसो अनगाले अलजान ॥ ७ ॥ व्यचित्त जले न्हावे है भया, प्रासुक निर्मल विधिकरि ताहूकी मरजादा धरै, बिना नेम कारिज नहिं करें रात्री न्हावे नाहि कदापि जीव न सूझे मित्र कदापि । हिंसा सम नहि पाप ज और दया सकल धर्मनि कर मौर ध आभूषण पहिरे हैं जिते, घरमें ओर घरै हैं तिते । नियम बिना नहिं भूषण धरै, सकल वस्तुकौ नियम ज करें |१० परके दीये पहरै जेहि, नियम माहिं राखे हैं तेहि । रतनत्रय भूषण त्रिनु आन, पाहन सम जाने मतिवान ॥। ११ ॥ aafrat जेती मरजाद, ता माफिक पहरे अविवाद । व्यथवा नये ऊजरे और, नियमरूप पहरे सुभतौर ॥ १२ ॥ सुसरादिकके दीने भया, अथवा मित्रादिकते लया । राजादिकने की बकसीस, अदभुत अंवर मोल गरीस ॥ १३ ॥ नित्यनेममें राख होइ, तौ पहिरै नहिंनरि नहिं कोइ । पावनिकी पनही हैं जेहि, तेऊ वस्त्रनि माहिं गिनेहि ॥ १४ ॥ नई पुरानी निज परतणी, राखे सो पहिरे इम भणी । पनही त पहरवौ भया, तौ उपजे प्राणिनिको दया ॥ १५ ॥ रथवाहन सुखपाल इत्यादि, हस्ती ऊंटरु घोटक आदि । प थलके वाहन सबै, फुनि बिमान आदिक नभ फबे ॥ नाव जिहाज आदि जलकेह, इनमें ममता नाहि कोइक जावो जीवे तजैं, कोइक राखं नियमा भजे तिनहूँमें निति नेम करैइ, बहु अभिलाषा छाड़ि जु देइ । मुनि हवौ चाहे मन मांहि, जगमाही जाको चित नाहिं ॥ १८ ॥ घरेह | ॥ १७ ॥ WE १६ ॥ Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वर्णन। बाहन चढ़े होइ नहिं दया, ताते तज धन्य ते भया। मुनि आर्या मर श्रावक बड़े, हैं जु निरारंभी अति छड़े । १ ते बाहनको नाम मे धरै, जीवदया मारग अनुसरैं। भारम्भी श्रावक राजादि, तिनके बाहन है जु अनादि ॥ २०॥ तेज कर प्रमाण सुवीर, नित्यनेम धार जगधीर । तीर्थकर चाक्री अरु काम, कुनि है फिरें पयादे राम ॥ २१ ॥ तारौं पगा चालिवौ भला, परसिर चलिवो है अघमिला। इहै भावना भावत रहै, सोवेगो शिवकारन लहै ॥२२॥ रतनत्रय शिवकारण कहे, दरसन ज्ञान चरण जिन लहे। अब सुनि शयनाशनको नेम, घारै श्रावक व्रतसों प्रेम ॥ २३ ॥ जोहि पलंगपरि सोवो तनों, सोडू शयन परिग्रह गनों। सौड़ दुलाई तकिया आदि, सब सज्जा माहिं अनादि ।॥ २४ ॥ इनको, नेम धरै व्रतवान, भूमि शयन चाहै मतिवान । भूमि शयन जोगीश्वर करे, उत्तम श्रावक हू अनुस” ॥२५॥ आरंभी गृहपतिके सेज, तेह नियम सहित अधिकेन । जापरि परनारी सोवैहि, सो सज्जा बुध नहिं जोवैहि ॥ २६ ॥ निज सज्जा राखी है भया, ताहुमें परमित अति लया। व्रतके दिन भू सज्जा करे, भोग भावते प्रेम न धरै ॥२७॥ गादी गाऊतकिया आदि, चौकी चौका पाट इत्यादि। सिंहासन प्रमुखा जेतेक, आसन माहिं गिनौ जु अनेक ॥२८ गिलम गलीचा सतरंजादि, जाजम चादर आदि अनादि । इन चीजोंसे मोह निवार, मासें होय पार संचार ॥२६॥ जोती जाति पिछौना कीहि सो सब आसन माहिं गनीहि । Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ www. १४९ जन-क्रियाकोष। निज घरके अथवा परठाम, ते मुक्ते राखे धाम ॥३०॥ तिनपरि वैसे और गु त्याग, है जाको व्रतसं अनुराग। सचित वस्तुको भोजन निद, शाहि निषेधे त्रिमुवनचंद ॥ ३१॥ मुनि मार्या त्यागेहि सचित्त, उत्तम श्रावक लेहि अचिरा ।। पंचम पडिमा यादि सुधीर, एकादस पड़िमा लों वीर ।। ३२ ।। कबहु न लेइ सचित्त अहार, गहै सचित्त वस्तु अबिकार । पहली पडिमा आदि चतुर्थ, पडि मा लो ले अचितहि अर्थ ॥ ३॥ पे मनमें कम्पै सु विवेक, तमै सचित्त जु वस्तु अनेक । केइक राखी तामें नेम, नितप्रति धारै ब्रतसो प्रेम ॥३४॥ कहा कहावै वस्तु सचित्त, सो धारौ भाई निज चित्त । पत्र फूल फल छाडिइत्यादि, कुंपल मूल कंद बीजादि ॥ ३५ ॥ पृथ्वी पाणी अग्नि जु वायु एसहु सचित्त कहे जिनराय । जीव सहित जो पुदगल पिंड, सो सव सचित तजे गुणपिंड ३६ ये सहु जाति सचित्त तजेय, सो निहचै जिनराज भजेय । जो न सर्वथा त्यागी जाय, तो कैयक ले नेम धराय ॥ ३७॥ संख्या सचित वस्तुकी कर सकल वस्तुका नियम जु धरै। गिनती करि राखै सब वस्तु, नबाहि जानिये ब्रत प्रशस्त ।। ३८ ॥ लाडू पेडा पाक इत्यादि, औषधि रस अर चूरण आदि । बहुत वस्तु करि जे निप नेह, एक द्रब्य जानों बुध तेह ॥३॥ वस्तु गरिष्ट न खावे जोग , ए सब काम तने उपयोग। जो कदापि ये खाने पर, अलपथको अलपजु आहरै ॥४०॥ सत्रह नेम चितारै नित्य, जानो ए सहु ठाठ अनित्य। प्रातथको सध्यालो करै फुनि सध्या ममये वुध धर ॥४१ ।। Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह ब्रत वर्णन। एती वस्तु सौ त्यागे धीर, राति परै नहिं सेबे वीर । भोजन पटरस पान समस्त चंदनलेप आदि परसस्त ॥४॥ सजे राति तंबोल सुवीर, दया धर्म उर धारै धीर । गीत श्रवण जो होय कदापि, राखें नेम माहिं सो कापि ॥ ४३ नृत्यहुमों नहिं जाको भाव, पैन सर्वथा मांड्यौ चाव । जौ लग गृहपति कवहुक लखौ, सोहु नेममाहि जो रसौ ॥ ४४ ॥ ब्रह्मचर्यसों जाको हेत, परनारीसों वार सचेत।। निज नारीहीमे संतोष, दिनको कबहु न मनमथ पोष ॥४५॥ रात्रिहुमे पहले पहरौ न, चोथी पहरौ मनमथको न । दूजी तीजी पहर कदापि, पर सेवनो मैथुन कापि ॥४६॥ सोहू अलपथकी अति अल्प, नित प्रति नहिं याको संकल्प । राखै नेम माहिं सह बात, बिना नेम नहिं पाव धरात ॥४७॥ स्नान रातिकों कबहु नकर, दिनको स्नान सनी विधि घरै ।। भूषण वस्त्रादिकको नेम, राखै जाबिधि धारै प्रेम ॥४८॥ वाहन शयनाशनकी रीत, नेम माहिं धार सहु नीति । वस्तु सचित नहिं निसिकों भखै, रजनीमें जलमात्र न चखे ।४६ खान पानको वस्तु समस्त, रात्रि विष कोई न प्रशस्त । याविधि सतरा नेम जु धरै, सो व्रत धारि परम गति वरै ५० नियम बिना धृग धृग नर मन्म, नियमवान होवहि माजन्म । यमनियमासन प्रणायम प्रत्याहार घारणा राम ॥५१॥ ध्यान समाधि अष्ट ए अंग, योगतने भाषे जु असंग ।। सबमें श्रेष्ट कही सुसमाधि, नियमथकी उपजै निरुपाधि । ५२ रागदोपको त्याग समाधि, जाकरि टरै माधि अरु व्याधि । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष । परम शातता उपजै जहा, लहिए आतम भाव जु तहां ।। ५३ ।। मरण काल उपजे जु समाधि, आय प्राप्त है आधिक व्याधि । नित्य अभ्यासी होय समाधि, तौ न नीपज एक उपाधि ॥ ५४॥ जो समाधिर्ते छोडे प्राण, तौ सदगति पावैहि सुजाण ॥ नाहिं समाधिसमान जु और, है समाधि वृत्तनि सिरमौर ॥५५॥ छन्द चाल । अब सुनि सल्लेषण भाई जाकरि सहु व्रत सुधराई। उत्तम अन याकौं भावे, याकरि भवभ्राति नसाव ॥५६॥ जे द्वादश व्रत संजुक्ता, सल्लेखण कारई युक्ता । होवें जु महा उपशाता, पावें सुरसौख्य सुकाता ॥५॥ अनुक्रम पहुंचे थिर थाने, परकी सहु परणति भाने । यह एकहु निर्मलबत्ता, समदृष्टी जो दृढचित्ता ॥१८॥ करई सो सुरपति होने, फुनि नरपति है शिव जावै। इह मुक्ति मुक्ति दायक है, सब वरानिको नायक है ॥५६॥ सोरठा-मेरौ जो निजधर्म, ज्ञान सुदर्शन माचरण । सो नाशक वसु कर्म, भासक अमिन सुभावको ॥६॥ मैं भूल्यौ निज धर्म, भयौ अधर्मा अगविर्षे । तातें बाघे कर्म, कीये कुमरण अनन्त में ॥६१॥ मरि मरि पहुंगति माहि, जनम्यौ मैं शठ भ्राति धर । सो पद पायो नाहिं, जहा जन्म मरण न वै ॥६॥ बिना समाधि जु मण, मर्ण मिटे नहिं हमतनों। यह एकैव सर्ण है सल्लेखण मति गुणी ॥३॥ निज परणतिसों मोहि, एकत करिवे सक है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन । देख्यौ श्रुतिमें टोहि, ठौर ठौर याको जसा ||६४ घरै निरन्तर याहि, अन्तिम सल्लेक्षण परत । उपजे उराम ताहि मरणकाल निहता ॥ ६५॥ करिहों पण्डित मर्ज, किये बाल मर्ज अमित । ले जिनवरको सर्ज, तजिहों काया कारिमा ॥६६॥ जिन माझा अनुसार, अवश्य करोंगो अन्नसन । सल्लेखन व्रत धार, इहै भावना निति घरे ॥ ६७॥ बेसरी छन्द । मरण काल धरियेगो भाई, परि याकों नित प्रति चितराई । व्रत अनागत या विधि पाले, या व्रत करि सहु दूषण टाले ६८ मरणो नाहीं भातमतामें, वार्तें निरभै होय रह्या मैं । १५१ पर सम्बन्ध अपनी काया, ताका नाता अवश्य बताया |६६| इनका ज्ञान हुए यह जीव, पावे निश्चय सुगति सदीव | मैं अनादि सिद्धों अविनाशी, सिद्धसमानो मति सुखरासी ॥७०॥ सो अनादि कालजुर्ते भूल्यो, परपरणतिके रसमें फूल्यौ । पर परणति करि भयौ सदोषी, कर्म कलङ्क उपार्जक रोषी |०२| जातें देह मनन्ती धारी, किये कुमर्ण अनन्ता भारी । माया तें दूवौ ॥७२॥ मैं नहिं कबहूं उपज्यो मूवौ, मैं चेतन मोर्ते भिन्न सकल परभावा, मैं चिद्रूप अनन्त प्रभावा । भयो कषाय कलति चित्ता, मैं पापी अनि ही अपविता ॥७३॥ बहु तन घरिघरि डारै भाई, तन तजिवौ इह मरण कहाई । वार्ते कुमरण मूल कषाया, क्षीण करें ध्याऊ जिनराया 1७४| रागादिक तजि करों सुमरणा, बहुरि न मेरे दोइ कुमरणा । Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ जैन-प्रियाकोष। इहै धारना घरि व्रत पारी, दुर्षल करै कषाय जु सारी । के गुरुके उपदेशथकी जो, के असाम्य लखि रोग मती जो। मरन काळ जाने अब नीरे, तब कायरता परइन तीरे ७६। चउ बहार तजि च्यारि कषाया, तजि करि त्यागै च्यागी काया। सन सम्बन्ध सदै मति आवो, तनमें हमरौ नाहि सुभावौ ७७ सोरठा-कर्म संयोगे देह, उपज्यौ सो नर रहायगो । ताते यासौं नेह, करनौ सो अति कुमति है ।।७८॥ चौपाई-इहै भावना धारि विरागी, तजै कारिमा काय सभागी। सो श्रावक पावै शुभ लोका, षोड़श सुर्ग लहै सुखथोका ७६ नर है फिर मुनिके व्रत धार, सिद्ध लोकको शीघ्र निहारे । सल्लेखण सम व्रत न दूजा, इह सल्लेखण त्रिभुवन पूजा ८० सजि कषाय त्यागै बुध काया, सो सन्यास महा फलदाया। सल्लेखण संन्यास समाधी, अनसन एक अर्थ निरुपायो ८१ पंडित मरणा वीरिय मरणा, ये सब नाम कई जु सुमरणा। समरणते कुमरण सब नासे, अविनासी पद शीघ्र प्रकासै ८२ यह संन्यास न आतमघाता, कर्म विधाता है सुखदाता। अर जो शठ करि तीन कषाया, जलमें डूबि मरै भरमाया ८३ जीवत गडै भूमिमें कुमती, सो पावै दुरगति अति विमती । अगनि दाह ले अथवा विष करि, तजै मूढधी काया दुखकरि शस्त्र प्रहारि जो त्यागै प्राणा, अथवा झंपापात बखाणा । ए सब बातम पात बताये, इन करि बड़ भव भव भरमाये हिंसाके कारण ये पापा, हैं जु कषाय प्रदायक तापा। तिनको क्षीण पारिवौ भाई, सो संन्यास कहे जिनराई ।। Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ NAVRA पारह प्रत वर्णन । जीवदयाको हेतु समाधी, विना समाधि मिटेन उपाधी। या उपाधि मिटे बिन नाही, तातें दया समाधि ही माही बूत शीलनिकौ सर्वस पही, इह संन्यास महा सुख देही। मुनिकों अनशन शिवसुख देई, अथवा सुर महमिंद्र करे ८८ श्रावकको सुर उत्तम कार, नर करि मुनि करि भवदधि वारे उभय धर्मको मूल समाधी, मेट सकल माघि भर व्याधी कायर मरणे बहुस हि मूवा, अब धरि वीर मरण जगवा । बहुत भेद हैं अनशनके जी, सबमें माराधन चउ ले जी. दरसन ज्ञान घरन तप शुद्धा, ए चारौं ध्या प्रतिबुद्धा । निश्चय पर व्यवहार नयनि करि, चाराधन सेवैचितकरि ताको सुनहु विधारि पवित्रा, जा करि छूट भव भ्रम मित्रा देव जिनेसर गुरु निरपंथा, सूत्र क्यामय जैन सुपन्था १२ नव तत्वनिकी श्रद्धा करिवौ, सो ब्यवहार सुदर्शन धरिवौ निश्चै अपनो आतमरामा, जिनवर सो अविनश्वरधामा६३ गुण-पर्याय स्वभाव अनन्ता, द्रव्यथकी न्यारे नहिं सन्ता। गुण-गुणिको एकत्व सुलखियो, आतमरुचि अदाको परिवौ करि प्रतीति जे तत्वतनी जो, हनै कर्मकी प्रकृति धनी जो। सो सम्यकदर्शन तुम जानों, केवल आतम भाव प्रधानों ९५ अब सुनि ज्ञान अराधन भाई, सम्यकज्ञानमयी सुखदाई । नव पदार्थको जातें भेदा, जिनवानी परमान सुवेदा ॥६६॥ पा परम पदकों प्रमु जाने, भयौ जु दासा बोष प्रवाने । इ व्यवहारतनों हि स्वरूपा, निश्चय जाने हूं अमरूपा शुदबुद्ध अविरुद्ध प्रद्धा, अतुल शक्ति रूपी मनुबद्धा । Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। चेतन अनन्त गुणातम ज्ञानी, सिद्ध सरीखौ लोक प्रवानी। अपनो भाव भायवो भाई, सो निधय ज्ञान जु शिवदाई ६६ फुनि सुनि सम्यकचारित रतना, त्रसथावरको अतिहीजतना आचरिवौ भक्ती जिन मुनिकी, आदरिवौ विधि जोहिसुपुनकी पंच महाव्रत पंच सुसमिती, तीन गुपति धारै हि जु सुजती अथवा द्वादस व्रत सुधरिवौ, आवक संजमको अनुसरिवौ १ ए सब है विवहार चरित्रा, निश्चय आतम अनुभव मित्रा। जो सुस्वरूपाचरण पवित्रा, थिरता निजमें सो सु पवित्रा ए रतनत्रय भाषे भाई, चौथौ सम्यकतप सुखदाई। व्यवहार द्वादश तप सन्ता, मनसन आदि ध्यान परजन्ता निश्चै इच्छाको जु निरोधा, पर परणति तजि मातम सोषा अपनो आतम तेजकरी जो, सो सप भाषहि कर्महरीजो ४ ए चउ पाराधन आराधे, सो सन्यास घर शिव साधे। अरहन्ता सिद्धा साधा जे, केवलि कथित सुधर्म दया ले ५ ए चउ शरणा लेइ सु ज्ञानो, ध्यावै परम ब्रह्मपद ध्यानी। णमोकार मंतर जपनौ जो, ओंकार प्रणवै रटतौ जो ॥६॥ सोऽह अजपा अनादह सुनतौ, श्रीजिन विम्ब चितमोंमुनतो धर्मध्यान धरन्तौ धोरी, लगी जिनेसुर पदसों डोरी॥७॥ ध्यावतौ जिनवर गुन धीरो, निजरस रातौ बिरकत वीरो दुर्बल देह अनेह जगतसों, करि कषाय दुर्बल निज धृतिसों क्षमा करै सब प्राणी गणसों, त्यागै प्राण लाय लव जिणसों सो पण्डितमरणा जु कहावै, ताकौ जस श्रुतिकेवलि गावे सल्लेखणके बहुते भेदा, भाषे जिनमत पाप उछेदा । Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वर्णन! . ५५ हे प्रायोपगमन सब माहें, उत्तमसों उत्तम सक नाई ॥१०॥ ताको अर्थ सुनौ मनलाये, जाकर अपनों तत्व लखाये। प्रायः कहिये मित्र सर्वथा, उप कहिये स्वसमीप निळया ११ गमन जु कहिये आप्रत होवो, रात दिवस कबहूनहि सोवो सो प्रायोपगमन संन्यासा, सर्व गुणाकरि धर्म अभ्यासा १२ निजको बारंबार चितारे, क्षण क्षण चेतन तत्व निहारे। जग संतति तजि होइ इकाकी, कीरति गावे श्रीगुरु ताकी। सगै आहार विहार समस्ता, भने बिचार समस्त प्रशस्ता। इह भव परभवकी अभिलाषा,जिन करि होइ निरोह ममासा या जड तनकी सेवा मापुन, करै न करावे विधिसों थापुन अति वैराग्य परायण सोई, तजे अनातम भाव सबोई १५ गहन बनें भू मज्जा धारी, निसाह जगतजोगधी भारी। चित्त दयाल सहनशीलो जो, सहै परीषह नहिं ढीलो जो १६ जो उपसर्ग थकी नहि कंप, जाको कायरता नहिं च। भागो लोक प्रपंचथकी ओ, परपरणति जाते दिसिकी जो।। या संन्यास थकी जो प्राणा, त्यागै सो नहिं मुवौ सुजाणा। सुर-शिवदायक है यह व्रता,यामें बुधजन कर प्रवृत्ता ॥१८॥ पञ्च अतीचारी जो त्यागै, तब संन्यास-पथकों लागे । सो तजि पाचूं ही अतिचारा, ये तो सल्लेखण व्रत धारा १६ जीवित अभिलाषा अघ पहिला,ताको सो गिनि लो यह गहिया देखि प्रतिष्ठा जीयौ थाहै, सो सल्लेखण नहिं अवगाहै २० दूजौ मरण तनी अभिलाषा, जो धारै निज रस नहि चाखा रोग कष्ट करि पीब्यो अति गति, मरिवौ चाहै सोशठमति . Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। तीजो सुहृदनुराग सुगनिये, मित्रथकी अनुराग सु धरिये। मरिवौ आनि बन्यू परि मित्रा, मिल्यौ न हमसों जाहुपवित्रा दूरि जु सज्जन तामैं भावा, मिलिबेको अति करहि अपावा अथवा मित्र कनारे जो है, ताके मोक्षथकी मन मोहे ॥२३॥ यों अज्ञानथकी भव भरमै, पावै नहिं सल्लेखण घरमैं। पुनि सुखानुबंधो है चोथो, सुख संसार तनों सहु थोथौ २४ या तनमें मुगते सुख भोगा, सो सब यादि करै शठ लोगा। यो नहि जाने भव सुख दुख ए, तीन कालमैं नाहीं सुख ए इनको सुख जाने जो भाई, भोदू इनसो चित्त लगाई। सो दुख लहै अनंता जगके, पावै नहिं गुण जे जिनगमके । पञ्चम दोष निदान प्रबंधा, जो धारइ सो जानहु अन्धा । परभवमैं चाहे सुख भोगा, यों नहिं जानें ए सहु रोगा २७ इन्द्र चन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रा, हूवो चाहे पनि महमिन्द्रा । प्रतकों बेचै विषयनि साटे, सो जड कर्मबंध नहिं काटे २८ ए पाचो तजि घरइ समाधी, सो पावै सद्गति निरुपायी। या ब्रत सम नहिं दूजौ कोई, सबमैं सार जु इह त होई॥ याको जस सुर नर मुनि गावै, धीर चित्त यासों लव लावै। नमो नमों या सुमरणकों है, जो काटै मलदा कुमरणको है दोहा-उदै होः सल्लेखणा, जाहिं निवारे भ्राति। आव बोध जु घटि विर्षे, पइये परम प्रशान्ति ॥ ३१ ॥ कहे बरत द्वादश सबै, अर सल्लेखण सार । अब सुनि तप द्वादश तनों, भेद निर्जराकार ॥ ३२॥ प्रथमहिं बारह सपविर्षे, है अनशन अविकार। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन 4. माहि करें उपवास गुरु, ताको सुनहु विचार ।। ३३ ॥ इन्द्रिनिकी उपसांतता, सो कहिये उपवास । भोजन करते हू मुनी, उपवासे अनदास ॥ ४ ॥ जो इन्द्रिनिके बास हैं, मज्ञानी अविवेक । करें उपासा तउ शठा, नहिं ब्रत धार अनेक॥ ३५॥ मुनि श्रावक दोऊनिकों, अनसन अनि गुणदाय । जाकरि पाप विनाश है, भाषे श्रीजिनराय ॥ ३६ ॥ इन्द्रिनिको उपशांत करि, करै चित्तको रोध । ते उपवासे उत्तमा, लहें आपको बोध ॥३७॥ गनि उपवासे ते नरा, मन इन्द्रिनिकों जीति । करें वास चेतनविर्षे, शुद्धभावसों प्रीति ॥ ३८॥ इस भव परभव भोगकी, तजि माशा ते धीर। करम-निर्जरा कारणे, करें उपास सु वीर ॥३६ ।। आतम ध्यान धरै बुधा, के जिन श्रुत अभ्यास । तब अनसनको फल लहै, केवल तत्व अभ्यास ॥४॥ बऊ महार विकथा चऊ, तजिवी चारि कषाय । इन्द्री विषया त्यागिवौ, सो उपवास कहाय ॥४१॥ है विधि अनसनका कहैं, महामुनी श्रुतिमाहिं। सावधि निरवधि गुण धरा, जाकरि कर्म नशाहिं ॥४२॥ एक दिवस तीन दिन, च्यारि पांच पखवार । मासी जय प्रय च्यारि हु, मास छमास विचार ।। ४ ।। वर्षावधि उपवास करि, करें पारनों जोहि । सावटि अनसन तप भया, भाचे श्रीगुरु सोहि ॥ ४॥ Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष आयु-कर्म थोरौ रहै, तब ज्ञानी प्रत धीर । जावोजीव तजे सब, अनसन पान जगवीर ॥ ४५ ॥ मरणावधि अनसन करें, सो निरवधि उपवास । जे धाएँ उपवासलों, तेजु करें अव नाश ॥४६॥ करते थके उपासकों, जे न तज आरम्भ । जग धन्धेमें चित घरौं, तजे न शठमति दम्भ ॥४७॥ माहगहल चचल दशा, लहै न फल उपवास । कछुयक काय कलेशको, फल पावै जगवास ॥४८॥ कर्मनिर्जरा फल सही, सो नहिं तिनको होइ । इह निश्चै सतगुरू कहैं, धारै बुधजन सोइ ॥ ४६ ॥ धन्य धन्य उपवास है, देइ सासतौ वास । अब सनि अवमोदर्य को, दूजी तप सुखरास ॥ ५० ॥ जो मुनि करें अनादरी, तजि अहारकी वृद्धि । प्रामुक योग सु अलप अति, ले अहार तप-वृद्धि ॥५१॥ करें सु अवमोदर्यको, कर निर्जरा हेत । नहिं कीरतिको लोभ है, सो मुनि जिन पद लेत ॥५२॥ श्रावक होइ ज ब्रत कर, लेइ अलप आहार ।। जप स्वाध्याय सु ध्यान है, मिटै अनेक विकार ॥५३॥ सध्या पोसह पडिक्रमण, तासौं सधै अदोष । जो अहार बहुत न कर, धरै महागुण कोष ॥ ५४ ॥ के अनसन अघ नाश कर, के यह अवमोदर्य । इन सम और न जगविर्ष, ए तप अति सौंदय ॥ ५५ ॥ इन बिन कदै न जो रहै, सो पावै व्रतशुद्धि । Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ mamminimumnamrarma बारहनत वर्णन। भ्यान कारवें जो कर, सो होवै प्रतिबुद्ध ॥५६॥ मरु ओ मायावी अषम, धरि कीरतिको लोमा कर सु अलप अहारको, सो नहिं होइ अछोम ॥ ५ ॥ अथवा जो शठ अंध थी, यह विचार जियमाहि। कर सु अलप अहार जो, सोह व्रतधरि नाहिं ॥५॥ जो करिहों जु महार अति, तो गैसो तेसो हि । मिलिहैं मोदक स्वादकरि, तातें इह न भलो हि ॥५६॥ अलप महार जु खाहुंगो, बहुत रसीली वस्तु । इहै भावरि जो कर, सो नहिं प्रत प्रशस्त ॥६० ॥ मिष्ट भोज्य अथवा सुमस,कारण अल्प अहार। कर न फल तपको प्रबल, कर्म निर्जराकार ॥ ६॥ केवल आतमध्यानके, अर्थ कर प्रतधार। के स्वाध्याय सु व्रतके, कारण अल्प अहार ॥ ६२॥ अल्प अहारथकी बुघा, रोग न उपजै क्वापि । निद्रा मनमथ आदि सहु, नाहिं पारै जु कदापि ॥६३॥ बह, अहार सम दोष नहिं; महा रोगकी खानि । निद्रा मनमथ प्रमुख जो, उपजे पाप निदान ॥३४॥ लोकमाहिं कहवत इहै, मरै मूढ़ अति खाय । के बिन बुद्धि जु बोझकों, भोंदू मरे उच्चाय ॥६५॥ सानै धनों न खाइवौ, करियो अलप महार। याहि करें सतगुरु सदा, ब्रतको बीज अपार ॥३६॥ व्रतपरिसंख्या तीसरौ तप साकों सु विचार । सुन सुगुरु माई भया, परम निर्जराकार ॥ Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-क्रियाकोष। मुनि उतरे माहारकों, करि ऐसी परतिश। मनमैं तोऊ छाटकों (१) सो पारौ तुम विज्ञा एक घरें नहिं पाय हो, तौ न मान घर जाहुँ । और कछु नहिं खायहों, यह मिलि है तौ वाहुं ॥६६॥ अथवा ऐसी मन धरै, या विधिके तन चीर । पहिरे होगी प्राविका तौ लेहूं अन नीर ॥७॥ तथा विचार सो सुधी कारौ वलबा आहि । धरै सींग परि गुडडला,मिले पंथमैं मोहि ॥७॥ जाऊ भोजन कारनें, नातरि नहीं अहार । इत्यादिक जे अटपटी, करें प्रतिज्ञा सार ॥७२॥ प्रतपरि संख्या तप लहै, मुनिराय महंत । श्रावक हू इह तप कर, कौन रीति सुनु संत ॥७॥ प्रातहि संख्या विधि कर, धारइ सतरा नेम । तासम कबह न करे, परिसंख्यासों प्रेम ॥७॥ धारि गुप्ति चितवै सुघी, अपने चित्त मंझार । साखि जिनेश्वर देव हैं, ज्ञायक होय अपार ॥७॥ और न जाने बात इह, जो घार बुध नेम । नहीं प्रेम भवभावसों, जप तप व्रतसों प्रेम ॥७६।। अनायास भोजन समे, मिलि हैं मोदि कदापि । रूखी रोटो नंगकी, लेह और न क्वापि ॥७॥ इत्यादी ने अटपटी, धरै प्रतिज्ञा धीर । ब्रतपरिसंख्या तप लहैं, ते श्रावक गंभीर ७८॥ मन सुनि चौथा तब महा, रस परित्याग प्रवीन । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwwmar बारह व्रत वर्णन। मुनि श्रावक दोऊनिकां, मारे आतमलीन ॥७॥ अति दुखको सागर भगत, तामैं सुख नहिं लेश । चहुंगति भ्रमण जु कब मिटै कट कलंक अशेश ना जगके झूठे रस सबै, एक रसस अतिसार । इहै धारना धर सुधा, होइ महा अविकार ॥८॥ भवतै अति भयभीत जो, डरयौ भ्रानणत धीर । निर्वानी निर्मान जो, चाखें निजरस बोर ॥८२॥ निषहते अति गिषम जे, निषया दुखकी खानि । भवभव मोकू दुख दियौ, सुख परणतिकों मांनि ॥८॥ साते इनको त्यागकरि, घरौं ज्ञानको मित्र । सप जो भव मातप हरै, कारण पुनीत पवित्र ।।८।। इह चितवतो धीर जो, रसपरित्याग करेय । नीरस भोजन लेयकै, ध्यावै आतम ध्येय ॥८५|| दूध दही धृत तेल अर, मोठी लवण इत्यादि । रस तजि नीरस अन्न ले, काटै कर्म अनादि ॥८६॥ अथवा मिष्ट कषायलो, खारो खाटो जानि । करवो और जु चिरपरो, यह षटरत परवानि ॥८॥ सजि रस नीरस जो भखै, सो आतमरस पाय । देय जलां जलि भ्रमणकों, सूधो शिवपुर जाय ।। भव बाकी वै जो भया, ता पावै सुरलोक । सुरथी नर हबै मुनिदशा, धारि ल. शिवथोक ॥८॥ अथवा सिंगारादि का, नव रस जगत विख्यात । सिनमें शांति सुरस गहै, ना सब रसका सात EDIT Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ immunmar जैन-क्रियाकोष । पर रस तजि जिनरस गहै, जाके रस नहि रोष। सो पावै समभावकों, दूरि करै सहु दोष ॥६॥ रसपरित्याग समान नहिं, दूजौ तप जगमाहि । जहा जीभके स्वाद सहु, त्यागै संशय नाहि ॥२॥ अब विविक्त शय्यासना, पंचम तप सुनि वीर। राग द्वेषके हेतु जे, आसन सज्जा वीर ॥३॥ तमि मुनिवर निरप्रन्थ ह्वै, बसैं आपमैं धीर । सन खीणा मन उनमना, जगतरुड़ गंभीर em पूजा हमरी होयगी, बहुत मजेंगे लोक । इह बाछा नहिं चित्तमैं, सही हरष अर शोक ॥१५॥ सकल कामनारहित जे, ते साधू शिवमूल । पापथकी प्रतिकूल है, भये ब्रह्म अनुकूल ॥६॥ तेसंसार शरीर अरु, भोगयकी जु उदास । अभ्यतर निज बोध धर, तप कुशला जिनदास | उपशमशीला शातधी, महासत्व परवीन । निवसै निर्जन वनविर्षे ध्यान लोन तनखोन ॥ECH गिरिसिर गुफा मंझार जे, अथवा बसें मसान । भूमिमाहि निरब्याकुला, धीर वोर बहु आन Meen तरकोटर सूना घरी, नदातीर निवसत । कर्म-क्षपावन उद्यमी, ते जैनी मतिवंत ॥१०॥ कंकरीला धरतीवि, विषम भूमिमै साधन तिष्टे घ्यावे तत्वकों, आराधन बाराधि ॥२॥ अगवासिनकी संगती, ध्यान विधनको मूल Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ anha बारह वर्णन। साल तशि जड़ संगतो, भये शान अनुज ॥२॥ स्त्री पशु-बाल-विमूढ़की, संगति अति दुखदाय। कायरकी संगति थकी, सूरापन विनसाय ॥३॥ जे एकांत वसैं सुधा, अनेकात धरि चिच । ते पावै परमेसुरो, लहि रतनत्रय क्ति ॥ ४ ॥ मुनिकी रीति कही भया, सुनि श्रावककी रीति । जा विधि पंचम तप करै, धरि जिन बचन प्रतीत ॥५॥ निजनारीहूते विरत, परनारीको वीर। शीलवान शातिक अती, तपधारें अति धीर ॥६॥ परनारीकी सेज भर, आसन चीर इत्यादि । कबहुं न मीटै भव्य जो, तजे काम रागादि ॥७॥ निज नारीहुको तमे जौलग त्याग न होय । तौ लग कबहुँक सेवही, बहुत गग नहिं कोय ॥८॥ एक सेज सोवै नहीं, अदौ जू सोवै जोहि । जब विविकशय्यासना, पावै सप अति सोहि ॥६॥ कर परोस न दुष्टको तमे दुष्टको संग। विसतोते दूरी रहै, पाले ब्रत अभंग ॥१०॥ जे मिथ्यामत धारका, अलगौ निनसों होई । जिनपरनीकी संगति, धारै उत्तम सोइ ॥ ११ ॥ कुगुरु देव कुषमको, करै न जो विश्वास । है विश्वासी जैनको, जिनदासनिकौ दास ॥ १२ ॥ सामायक पोषा सम, गर्दकत सुबान । सो विविशवासना, मा श्री भगवान ॥१३॥ Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। करनों पंचम तप भया, अब छट्टो तप घार । कायकलेस जु नाम है कह्यौ सूत्र अनुसार ।। १४ ।। अति उपसर्ग उदै भयौ, ताकरि मन न डिगाय । क्षमावान शातिक महा, मेर समान रहाय ॥ १५ ॥ देव मनुज तिरजच कृत, अथवा स्वते स्वभाव । उपजौ जो उपसर्ग है, तामै निर्मल भाव ॥ १६ ॥ खेद न आने चित्तमैं, कायकलेस सहेय । सौ कलेस नहिं पावई, ज्ञान शरीर लहेय ॥ १७ ॥ गिरि सिर ग्रीषममै रहै, शीतकाल जलतीर । बर्षाऋतु तरुतल बसइ, सो पानै अशरीर ॥ १८ ॥ आतापन जोग ज धरै, कष्ट सहै जु अशेश । अतिउपवास कर सुधी, सो तप कायकलेश ॥ १६ ॥ कायलेसे सहु मिटे, तन मनके जू कलेश । महापाप कर्म जु कट, गुण उपजेंहि अशेश ।। २० ।। मुनि श्रावक दोऊनिको करिवौ कायकलेश । संकलेसता भाव तजि, इह आज्ञा जगतेश ॥ २१ ॥ वनवासीके अति सपा, घरवासीके 'अल्प। अपनी शक्ति प्रमाण तप, करिवौ त्याग विकल्प ॥ २२ ॥ ए षट बाहिज तप कहै, अब अभ्यन्तर धारि । इह भाई श्रुतकेवली, जिनबाणी अनुसार ॥ २३ ॥ दोष न करई आप जो, करवानै न कदापि । दोषतनो अनुमोदना, करै नहीं बुध क्वापि ॥ २४ ॥ मन वच तन करि गुणमई, मिरदोषो निरुपाधि । Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। आनन्दी मानन्द मय, धार परम समाधि ॥ २५ ॥ अथवा कदै प्रमादतें, किंचित लागै दोष । तो अपने औगुण सुधी, तहिं गोपे व्रतपोष ॥ ६ ॥ श्रीगुरु पास प्रकाशई, सरल चित्तकरि धीर । स्वामी चाग्यौ दोष मुझ, दंड देहु जगवीर ।। २७ ॥ तब जो गुरु दंड दे, प्रत तप दान सुयोग । सो सब श्रद्धा से करें, पाने पंथ निरोग ॥२८॥ ऐसी मनमै ना धरे अलप हुतौ यह दोष । दियौ दंड गुरुने महा, जाकरि तनको सोष ॥ २६ ॥ सबै त्यागि शका सुधी, सकल विकलपा डारि। प्रायश्चित्त करै तपा, गुरु आज्ञा अनुसारि ॥३०॥ बहुरि इच्छै दोषकों, त्यागे मन वच काय । देहनत सौ टूक हौ, तौहु न दोष उपाय ।। ३१ ।। या विधिक निश्चे सहित, वरते शानी जीना। ताके तप हरै सातमौ, भाषे त्रिमुगन पीन ॥ ३२॥ जो चितवै निजरूपकों, ज्ञानस्वरूप अनूप । चेतनता मंडित विमल, सकल लोकको भूप।। ३३ ॥ बार बार ही निज लखै, आने बारम्बार । बार बार अनुभव करै, सो ज्ञानी अविकार ।। ३४ ।। विकथा विष कषायते, न्यारौ वरतै सन्त । ता विरकतके दोष कहु, कैसे उपजे मिन्त ॥ ३५ ॥ निरदोषी बहु गुण घर, गुणी महाचिद्रप। सासों परवै पाइयो, सो तपधारि अनूप ॥ ३६॥ Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ न-क्रियाकोष । दोक्तनो परिहार जो, कहिये प्रायश्चिन्त । धारै सो निजपुर लहै, गदै सासतो क्त्ति ॥ ३७ ॥ अब सुनि भाई आठमो, विनय नाम तप धार । विनय मूल जिनधर्म है, बिनय सु पंच प्रकार ||३८|| दरसन ज्ञान चरित्र तप, ए चउ उत्तम होइ । अर इन चउके धारका, उत्तम कहिये सोइ ॥ ३६ ॥ इन पाचनिको अति विनय, सो तप विनय प्रधान । ताके भेद सुनू भया, जाकरि पद निरवान ॥ ४० ॥ दरसन कहिये तत्वकी, श्रद्धा अति दृढरूप । ज्ञान जानिवौ तवक, संशय रहित व्यनूप ॥ ४१ ॥ चारित थिरता तत्त्व, अति गलतानी होइ । तप इच्छाको रोखिवौ तन मन दण्ड न सोइ ||४२॥ ए हैं च आराधना इन बिन सिद्ध न कोइ । इनst अति आराधित्रौ, बिनयरूप तप सोइ ॥ ४३॥ रतनत्रयधारक अना, तप द्वादस विधि धार । तिनकी व्यति सेवा करे, तन मन करि अविकार ||४४॥ सो उपचार कह्यौ विनय, ताके बहुत विभेद । जिनवर जिन प्रतिमा बहुरि, जिनमंदिर हरछेद ||४५६ | जिनवानी जिन तीरथा, मुनि आर्या व्रत धार । श्रावक और सु श्राविका, समदृष्टी अविकार ||४६ ॥ इनको विनय जु धारिवौ, गुण अनुरामी होइ । सो तप विनय कहावई, धारे उत्तम सोइ ॥ ४७ ॥ जैसे सेवक लोग अति, सेवै नरपति द्वार । Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह वर्णन तेसे परिधि संघकों, सेवे सो तप धार ॥४८॥ बाप की जो समा, सिनको वासा होई। सपसों समता भावई, विमयरूप सप सोह। ४६ ॥ प्रत विन छोटे आपते, जेसम्यक्त निवास। जिनधर्मी जिनदास हैं, सिनईसों हित मास ॥५०॥ धर्मा जाके भयो, सो इह विनय घरेष। पाच प्रकार विनय करि, भवसागर उतरेव ।। ५१ ॥ अब सुनि वैषावृत्त जो, नवमो सप सुखदाय। जो अपहार कर सुषी, पर दुखार अधिकाय ॥५२॥ हरे सकल उपसर्ग जो, मानिनिके सपवार । सुधी हद रोगीनिको, कर सदा पगार ॥५॥ महिमाविक चाहे नहीं, निरापेक्ष प्रापार । वैयावृत्त कर भया, जिनवाणी मनुसार ॥५४॥ मुनिको उचित मुनीकर, टहल मुनिनिकी पीर । मुनि सेवासम नाहिं कोड, त्रिमुबनमें गंभीर ॥ ५५॥ श्रावक भोजन पथ्य दे, औषधि बाश्रम मादि। कर भक्ति साधुनिकी, इह विधि है जु अनादि ५३ मो ध्यानै स्नरूपको, सर्व बिकलपा सरि । सम दम भाव हिद घर, यावृत सो धारि ५०n सम कहिये समष्टिता, सकल जीवकों सूख्या। देखें शान विचारते, र बटीजु अतुल्य ||५वा बम कहिये मन इन्द्रियां, बर्म महा उपचारित वित लगाने मापनों, सद गोकशी मारि५॥ Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ wwws -man जैन-क्रियाकोष तजै लोक व्यवहारकों धरै अलौकिक वृत्ति। सो चउगतिको दे जला, पागै महा निवृत्ति ॥ ६० ॥ सनों सुबुद्धी कान धरि, दसमो तप स्वाध्याय । सर्व तपनिमै है सिरै, भार्षे त्रिभुवनराय ॥ ६१ ॥ नहिं थाहै जु महंतता, करनावे नर्हि सेग। चाह नहीं परभागकी, सेनै श्रीजिनदेन ॥ ६२॥ दुष्ट निकलपनिकों भया, जो नासन समरत्य । सो पानै स्वाध्यायकों, फल केगल परमत्य ॥ ६३॥ तत्ता सुनिश्चै कारनें, करें शुद्ध स्वाध्याय । सिद्धि कर निज ऋद्धिकों, सो आतम लगलाय ॥६॥ आगम अध्यातममई, जिनगरको सिद्धान्त । ताहि भक्तिकरि जो पढ़े, मो स्वाध्याय सुकात ॥६५॥ केवल आतम अर्थ जो, करें सूत्र अभ्यास । अपनी पूजा नहिं चहै, पानै तत्त्ता अध्यास ॥६६॥ अपने कर्म कलकके, काटनको श्रुतपाठ । करें निरन्तर धर्मधी, नासै फर्म जु आठ ॥६॥ भेद पच स्वाध्यायके, उपाध्याय भाषेहिं । जे धार ते शातधी, आतम रस चाखेहिं ।। ६८॥ कही वाचना पृच्छना, अनुप्रेक्षा गुरु देन । आमनाय फुनि धर्मको, उपदेशौ बहुमेन ॥६॥ अन्य बाचनौ गांचना, पृछना पूछनरीति । बारम्बार बिचारिगौ, अनुप्रेक्षा परतीति ॥७॥ आमनायकौ जानिगौ, जिनमारगकी बीर। Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह व्रत वर्णन। धर्म कपन करिगौ सदा, कहैं धर्मघर धीर ॥ १ ॥ निसप्रेमी भनमावतें, जो स्वाध्याय करेय । सो पावै निजज्ञानकों, भवसागर उतरेय ॥७२॥ जो सेवैं जिनसूत्रकों, जग अभिलाष घरेय । गर्व धरै विद्यातनो, सो चउगति भरमेय ।। ७३ ॥ हम पंडित बहुश्रुत महा, जानें सकल जु अर्थ । हमहिं न सेवै मूढधी, देखौ बडौ अनर्थ ।। ७४॥ इहै वासना जो धर, सो नहिं पंडित कोइ । आतम भावे जो रमैं, सो बुध पंडित होइ ॥ ७ ॥ मान बढ़ाइ कारने, जे श्रुति से अन्ध । ते नहिं पावें तत्त्वकों, करै कर्मको बन्ध ॥ ७६ ॥ जैनसूत्र मद मान हर, ताकरि गर्वित होय । ताहि उपाय न दूसरौ, भ्रमै जगतमें सोय । ७७ ॥ अमृत विषरूपी भयौ, जाकौ और इलाज । कहो, कहा जु बताइये, भार्षे पंडितराज ॥ ८ ॥ जो प्रतिकूल बिमूढधी, साधर्मिनतें होइ । पढ़िवौ गुनिवौ तासके, हालाहल सम जोइ ॥ ६ ॥ राग द्वेष करि परिणम्यू, करै असूत्र अभ्यास । सो पावै नहिं धर्मकों, करै न कर्म विनास ॥ ८ ॥ युद्ध कथा कामादिका, कुकथा चावै मूढ़। लोक-रिझावन कारणों, सो पद लहै न गूढ ॥ ८१ ॥ जो आनै निजरूपकू, अशुचि देहत भिन्न । सो निकसै भक्कूपते, भटकै भाव अभिन्न ॥२॥ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ N aman जैन-क्रियाकोष। जाने निज पर भेद जो, भातमझान प्रवीन । सो स्वामी सब लोकको, सदा सांतरसलीन ॥८३॥ लखिवौ बातम भावको, सो स्वाध्याय बखानि । मुनि श्रावक दोऊनिको, यह परमारब जानि ।। ८४ ॥ अब सुनि ग्यारम तप महा, काया-सग्ग शिवदाय । कायाको उतसर्ग जा, निर्ममता ठहराय।। ८५॥ त्याग्यां बैठ्यौ देहकों, नहीं देहसों नेह । लग्यो रंग निजरूपसों, बरसै आनंद मेह ॥ ८६ ॥ छिदौ भिदौ ले जाहु कोड, प्रलय होउ निजसंग। यह काया हमरी नहीं, हम चेतन चिद मङ्ग ।। ८७॥ इहै भावना उर धरै, जल-मल लिप्त शरीर। . महारोग पीड़े तऊ, मजै न औषध धीर ॥ ८८॥ ब्याचितनों न उपायकों, शिवको करै उपाय। इन्द्री-विषय न सेवई, सेवै चेतनराय ॥८९ ॥ मयौ विरक्त जु भोगते, भोजन सजा आदि । कास्की परवा नहीं, भेटौ ब्रा अनादि ।।१०।। निजस्वरूप चितवन जग्यौ, भग्यौ भोगको भाव । लायौ चित चेतनथकी, प्रकटयौ परम प्रभाव ।।११।। शत्रु मित्र सहु सम गिने, तौं राग अरु दोष । बंध-मोक्ष रहित निज,-रूप लख्यौ गुण कोष ॥२॥ बेसरी छंद है विरकस पुरुषनिकों भाई, इह कायोतसर्ग सुखदाई। मह जे तन पोषन है लागा, तपाई नहिं भाव विरागा ॥६॥ Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चार वर्णन उपकरणादिकमै ममरा, ते महि ज्ञान सुधारा पायें। जग विवहार नै नहिं जलों, नहिं कायोत्सर्ग व दौलों ६४ नाम त्यागको है उर्गा, कंपै नहिं जो है उपसर्गा | तब कायोतसर्ग तप पावे, निज चेतनसों चित लगावै ॥६५॥ एक दिवस है दिवसा भाई, पाख मास कमौ हि रहाई । मासी छहमासी वर्षा, रहें जु ऊभौ चितमैं इरवा ॥ ६६ ॥ यहि निजज्ञान भयौ अति पुष्टा, जाहि न धेरै विकल्प दुष्टा सो कायोत्सर्ग तपधारी, पावे शिवपुर आनन्दकारी ॥ १७ ॥ मुनिके यह तप पूरण होई, श्रावकके किंचित तप जोई। आवक हू नहिं देहसनेही, जानों मातम तत्त्व विदेशी ॥६८॥ मरणवनों में तिनके नाहीं, ते कायोत्सर्ग सपमाहीं । अब सुनि बारम तप है ध्याना, जो परसाद ल्दै निजज्ञाना|| अन्तर एक महूरत काळा, सो एकाग्रचित व पाला । ताकौ नाम ध्यान है भाई, व्यारि भेद भायें जिनराई ॥१००॥ द्वै प्रशस्त है निंद्य बखानें, श्रुत अनुसार मुनिनने जानें । आरति रौद्र अशुभ ए दोऊ, धर्म सुकळ अति उत्तम होऊ |१| भारति तीव्र कषायें होई, महा तीव्रतें रौद्र ज सोई । मन्द कषायें धर्म सुध्याना, आहि न पावे जीव अशाना ॥२॥ धर्मध्यान सुफळ सु ध्याना, सुकलध्यान केवलज्ञाना। रहित कषाय सुकल है सूघा, जा सम और न ध्यान प्रदूषा ३ वारि ध्यान प भाषै भाई, तिनके सोला भेद कहाई । ते तुम सुनहु विच परि मित्रा, त्यागौ भारति रौद्र विचित्रा ४ भारवि च भेद जु बोटे, पशुगतिदायक मौगुण मोटे । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ जैन-क्रियाकोष । भरमा वै । इष्टवियोग अनिष्टसंजोगा, पीरा चित्तन होई अजोगा ||५|| चौथो बंधनिदान कहावै, जो जीवनिको भव वस्तु मनोहरको जु, वियोगा, होय तवै धारै शठ सोगा । ६ । इष्ट वियोगारत सो जानो, दुःखतरुवरकौ मूल खानों । दूजौ भेद अनिष्ट संभोगा, ताकौ भाव सुनौ भक्लिोगा ॥७॥ वस्तु अनिष्ट मिले जब आई, शोच करे तब भोदू भाई । भवबनमें भरमै शठमति सो, पाप बांधि पार्टी दुरगति सो ICI रोगनिकर पीड्या अति शठजन, आरति धार जो अपने मन सो पीराचितवन है तोजौ, आरतध्यान सदा तजि दीजो || चौथो आरति त्यागौ भाई, बंधनिदान महा दुखदाई । अपतपत्रत कर वाहैं भोगा, ते जगमाहिं महाशठ लोगा |१०| ए चारो आरति दुखदाई, भवकारण भाषै जिनराई । रौद्रध्यानके चारि विभेदा, अब सुनि जे दायक व्यतिखेदा ११ हिंसाकरि आनन्द ज मार्ने, हिंसानंदी धर्म न जानै । मृषावाद करि धरै अनंदा, मृषानन्द सो जियको फन्दा ११२ | चोरी आनंद उपजावै, सो मघ चौर्यानन्द कहावे । परिग्रह बढ़े होय आनन्दा, सो जानों जु परिग्रहनन्दा | १३ | एव भेद हरें सुख साता, दुरमतिरूप उम्र दुखदाता | पर विभूतिकी घटती चाहें, अपनी सपति देखि उमा हैं |१४| रौद्रध्यानके लक्षण एई, त्यागें धन्नि धन्नि हैं तेई । आरति रुद्र ध्यान ए खोटा, इनकरि उपजै पाप ज मोटा १५ दुखके मूल सुखनिके खोवा, ए पापी हैं जगत दबोवा । उ मारतिके पाये भाई, तिर्यग्गतिकारण दुखदाई ॥ १६ ॥ Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह नव वर्णन। रौद्रध्यानके चारि ए पाये, अधोलोकके दायक गाये। अशुमच्यान ये दोय विरूपा, लगे जीवके विकलपरूपां ॥१॥ नरक निगोद प्रदायक तेई, बसैं मिथ्यात घरामैं एई। कबहुँ कदाचित अणुव्रत ताई, काहूके रौद्र जु उपजाई ॥१८॥ महावृत्तलों आरतध्याना, कबहुंक छठे परमित थाना। काहू के उपजे त्रय पाये, सप्तमठाणे सर्व नसाये ॥१६॥ भोगारति उपजे नहिं भाई, जो उपज तौ मुनि न कहाई। अब सुनी धर्मध्यानकी बातें जे सह पाप पंथको घातें ॥२०॥ धर्म जु स्वत स्वभाव कहावं, पण्डितजन तासों लव लावै क्षमा मादि दशलक्षण धर्मा, जीवदया बिनु कटइ न कर्मा २१ इत्यादिक जिन भाषित जेई, धा” धर्म धोर हैं तेई । धर्मविर्षे एकाग्र सुचित्ता, विष भोगसे अतिहि विरता ॥२२॥ जे वैराग्यपरायण झानी, धर्मध्यानके होंहि सु ध्यानी। जो विशुद्धभावनिमैं लागा, जिन रागदोष सह भागा ॥२३॥ एक अवस्था अनर बाहिर, निरविकल्प निज निधिके माहिर ध्या यात्मभाव सुधिरा, है एकाप्रमना वर वीरा ॥२४॥ जे निजरूपा हैं समभावा, ममत वितीता जग निरदावा। इन्द्री जीति भये जु जितिन्द्री, तिनको ध्यानो कहैं मतिन्द्री चितवन्ता चेतन गुण धामा, ध्यानहि लीना मात्मरामा । निरमोही निरदन्द सदा ही, चिनमैं कालिम नाहिं कदाही २६ जोहि अनुभवै निज चितवनकों, रोके मनको सोकै मनकों। मानन्दी निज शानम्वरूपा, तिनके धर्म ध्यान निरूपा २१ मैत्री मुदिता करुणा माई, अर मध्यस्थ महासुखदाई। Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। एहि भावना मावे जोई, धर्मध्यानको ध्याता सोई ॥२८॥ सर्वमीवसों मैत्रीभावा, गुणी देखि चितमैं हरपाल । दुखी देखि करुणा उर माने, सखि विपरात राग नहिं ठाने द्वेष जु नाहिं धरैजु महन्ता, है मध्यस्थ महा गुणवन्ता । बहुरि धर्मके चारि जु पाया, ते समयकदष्टिनिकों भाया ३० आझाविचय कहा जोई, श्रीजिनवरने भाष्यौ सोई। ताका इढ़ परतीति करै जो, संसय विभ्रम मोह हरे जो ३१ कम नाशको उद्यम ठाने, रागद्वपकी परणति माने । सौ अपायविचयो है दूजौ, तिरे जगतथी धारे तू जो ॥३२॥ करै उपाय शुद्ध भावनिको, अर निरवागपुरि पावनको। तीऔ नाम निपाफविचे है, भवभावनि भिन्न रहे हैं ।।३।। शुभके उदै संपदा आवे, अशुभ उदै आपद बहु पावै । दोऊ जाने तुल्य सदाही, हर्ष-विषाद धरै न कदा ही ॥३४॥ फुनि संठाणविषय है चौथो, सर्व जगतकों आनैं थोयौ । तीन लोकको जानि सरुपा, जिनमारग अनुसार अनूपा ३५ सबको भूषण चेतनराया, चेतनसों नहिं दूजो माया । सर्व लोकसं छांडि जु प्रीती, चेतनकी धारै परतीती ॥३६॥ चेतन भावनिमें लौ लावै, अपनों रूप आपमैं ध्यावे । ए हैं घरमध्यानके भेदा, सुकल प्रदायक पाप उछेदा ३णा चौथे गुणठाणों होइ धर्मा, संपूरण गुण ठाणों परमा । धर्मध्यानके घर गुणठाया, ते देवाधिदेवने आणा ॥३८॥ अहमिन्द्रादिक पद फल ताकी, वरणे जाहिंन मति गुण नाको कारण सुकल ध्यानको एहो, धर्मध्यान सुकाळ ज लेही ॥३॥ Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Re uniaNALANummam बारह प्रत वर्णन ।' मुनि भाषक दोडके गाया, धर्मध्यान सो नहीं पाया। मुनिको पूरणाप प्रधानों, पावकके कछु नून बखानों ॥४०॥ मुनिके पति ही निश्चलताई श्रावकके किंचित विस्ताई। परिग्रह चंचलताको मूला, जाते धर्म न होय सभूला ॥४२॥ तृष्णा छाड़ी बहुतेरी, करि मरजादा परिप्रहकेरी। सा धर्मव्यानके पात्रा, आवक हू जाणों गुनगाना ॥४२॥ धर्मध्यानके प्यारि स्वरूपा और हु श्रीगुरु कहे अनूपा । इक पिंडस्थ पदस्थ द्वितीया, रूपस्था तीली गनि लीया ॥४३॥ रूपातीत चतुर्थम भेदा, हर धर्म को पाप उछेदा । इनके भेद सुनौ मन लाये, जाकरि सुकलध्यामकू पाये ॥४४ पिंडमाहिं सब लोक विभूती, चितवं ज्ञानी निज मनुभूती । पिंडलोकको राजा चेतन, जाहि स्पर्श सकैन अचेतन ॥४५॥ ताकोध्यान धरै जो ध्यानी, सो होवे केवल निज हानी। बहुरि पदस्थ ध्यान बुध धारे, जिनभाषित पद मन्त्र विचारे पंच परमगुरुमंत्र अनादि, ध्यावे धीर त्याग क्रोधादी । नमोकारके अक्षर भाई, पैंतीसौ पूरण सुखदाई ।।४७॥ पोड़स अक्षर मंत्र महंता, पंच परमगुरु नाम कहन्ता। मंत्र षडाक्षर अ रहत सिद्धा, अ सि आ उ सा पंच प्रबुद्धा नमोकारके पैतिष अक्षर, प्रसिद्ध छै मह घोड़स मक्षर । भरहन सिद्ध मायरि उवझाया, साहू अते अंक गिनाया । वह साक्षर बरहंत अपौजू, सिद्ध नाम उरमाहि थपो जू अक्षर भूलो मति भाई, सिद्ध-सिद्ध यह जाप कराई 1.01 मंत्र इकार है मोंकारा, जानीज इह प्रणव अपारा। Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - जन-क्रियाकोष ।। पंच परमपद या अक्षरमै, याहि ध्याय जगमै नहिं भरमै ५१ शुक्लरूप अति उज्जल सजला, ध्यावै प्रणवा हैविमला । सोऽहं सोऽहं अजपाजापा, हरै संतके सब सन्तापा ॥५२॥ इह सुर सबही प्राणीगणके, होवै श्वास प्रश्वास सबनिके। पै नहिं याकौ भेद जु पावै, तातै भोंदू भव भरमावै ॥५३॥ जो यह नाद सुनें वरवीरा, पावै शुक्लध्यान गुणधीरा। उज्जलरूप दाय ए चंका, ध्यावै सो नास अधपंका । ५४ । जिनवर सो नहिं देव जु कोई, अजपा सो नहिं जाप स होई मंत्र अनेक जिनागम गाये, ते ध्यानी पुरषनिने ध्याये ॥५५॥ सबमै पच परम गुरू नामा, पंच इष्ट बिन मन्त्र निकामा। मंत्राक्षरमाला जो ध्यावें, नाम पदस्थ ध्यान सो पावै ॥५६॥ अब सुनि योजौ भेद सु भाई, है रूपस्थ महासुखदाई। कर्तृम और अकतम मूरत, जिनवरको ध्यावै शुभ सुरत ५१ जिनवरको साकार स्वरूपा, तेरम गुणठाणे जु अनूपा । अतिसै प्रानिहाय धर स्वामी, धरै अनत चतुष्टय नामी ५८ समवसरण शोभित जिमदेवा, ताहि चितारै उर धरि सेवा। फुनि नजि रूप रंग गुणवाना, ध्यावै चौथो भेद सुजाना ५६ रूपातीत समान न कोई, धर्म ध्यानको भेद जुहोई । ध्यावै सिद्धरूप अतिशुद्धा, निराकार निलेप प्रबुद्धा ।।६०॥ पुरुषाकार अरूष गुसाई, निरविकार निरदूषन साई । वसु गुण आदि अनंत गुणाकर, अवगुणरहित अनंत प्रभाधर लोकशिखर परमेसुर राजै, केवलरूप अनूप विराज। जितको उर अन्तर जे ध्यान, रूपातीत ध्यानते पावै ॥६या Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारह प्रत वर्णन सिद्ध समान आपकों देखें, निश्चयनय कछु मेव न पेखें विवहारे प्रभु हम दासा, निश्चय सुद्ध बुद्ध अविनाशा ॥ ६शा एच्या ध्यावैं जो धर्मा, तेहि पिछानें श्रुतिको मर्मा । धर्म ध्यान चहुतगतिमैं होई, सम्यक बिन पावैं नहिं कोई ॥६४॥ छट्टम सत्तम मुनिके ठाणा, पंचम ठाणें श्रावक जाणा । चौथे अवत सम्यकज्ञानी, तेऊ धर्मध्यानके ध्यानी || ६५ || चौथेसों ते सप्तमताई, धर्मध्यानको कहैं गुसाईं । धर्मध्यान परभाव सुज्ञानी, नासै दस प्रकृती निजध्यानी || ६६|| प्रथम चौकरी तीन मिथ्याता, सुर नारक अर आयु विख्याता । अष्टमों चौमलों सुकली, सुकल समान न कोई विमली ६७॥ शुकलध्यान मुनिराज हि ध्यावैं, शुकलकरी केवलपद पावैं । शुकल नसावें प्रकृति समस्ता, करें शुकल रागादि विध्वस्ता ।६८ा जौ निज आतमसो लव लावे, शुकल तिनोंके श्रीगुरु गावैं । शुकलध्यानके चारि जु पाये, ते सर्वज्ञदेवने गाये ॥६॥ मुकला कल जु पर्मा, जानें श्रीजिनवर सह मर्मा 1 प्रथम पृथक वितर्क विवारा, पृथक नाम है भिन्न प्रचारा ॥ ७२ ॥ भिन्न भिन्न निज भाव विचारे, गुण पर्याय स्वभाव निहारै । नाम वितर्क सूत्रकौ होई, श्रुति अनुसार लखै निज सोई । ७२ ।। भाव थकी भावातर भावे, पहलो शुकल नामसो पावै । दूजो है एकत्व वितर्का, अवीचार अगणित दुति अर्का ॥७२॥ rat एकता लवलीना, एकी भाव प्रकट जिन कोना । त अनुसार भयौ अविचारी. भेदभाव परणत्ति सब टारी 15३ | तीज सूक्षम किरियाधारी, सूक्षम जोग करें अविकारी | Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-फियाकोष पौवो जोगरहित निकिरिया,जाहिबार साप भवतिरिका मष्टम अणों पहलो पायो, बारमठाणे एनौ गायो। सीमो तेरमठाणों मानो, चौथौ चौदमठायों मानों ॥७॥ इनके मेद सुनों धरि भाव, जिनकर नासै सकल विभाव। होहिं पवित्रभाव मधिकाई, मक्तक वे नहिं भाई 400 भाव अनंत ज्ञान सुख मादी, लिनको धारक वस्तु अनादी। लिये अनंता शक्ति महंती, धरें विभूति अनंतानंती 1000 अपनी माप माहिं अनुभूती, अति अनंतता अतुल प्रभूती। अपने भाव तेहि निज अर्था, और सबै रागादि अनर्था ||CH सपनो मर्थ मापमें जाने, आतम सचा आप पिछाने । इक गुणते पूजो गुण जावे, ज्ञानयकी मानन्द बढ़ावै ॥७॥ गुण मनतमै लीलाधारी, सो पृथक्तबीतकंक्विारी। अर्थ थकी अर्थान्तर जावै, निज गुण सत्ता माहिं रहा ८० योगथकी योगान्तर गमना, राग दोष मौहादिक बमना । शब्दयकी शब्दातर सोई, ध्यावै शब्दरहित है सोई ॥८॥ न्यंजन नाम शुद्ध परजाया, जाको नाश न कबहुं बताया। वस्तुशक्ति गुणशक्ति अनन्ती, तेई पपय जानि महन्ती ॥२॥ न्यजनतें व्यंजन परि आवे, निज स्वभाव तजि कितहुनाजावै। अति अनुसार लखें निजरूपा, चिनमूरति चैतन्य स्वरूपा !८३॥ जैनसूत्रमैं भाव श्रुनी जो, प्रगट अनुभव ज्ञानमती जो। सो पृथक्कवितर्क विचारा, ध्यावे साधू ब्रह्म विहारा | दोहा-आनि पृथक्त अनंतता, नाम वितर्क सिद्धत । है विचार विचार निम, इह जानों विरतन्त ॥८॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n arenamedh लेश्या सुबक माव अति शुद्धा, मन क्व काय सबै निकाला। यामैं एक और है मेदा, सो तुम बारहु टारहु सेनाneen पसमश्रेणी कपकजु श्रीगी, सिनमैं क्षायक मुलिनिसनी। पहलो शुक्ल दोज पार, दूजी अपकविना न निहारे का उपसम बार बारम ठाणा, परस्परै उत्तरै गुणाणा। जो कदाधि भवहूर्ते आई, तौ महमिन्द्रलोकको जाई Ncell नर करि धारै फिर धर्मा, बढ़ क्षपकोणी नु अपा। क्षपक श्रेणिधर धीर मुनिन्द्रा, होवे केवलरूपजिनिन्दा बारम ठाणों पूजौ सुकला, प्रकटै जा सम और न विमला। दुवै मैं झपकोणि अधिकाई, कहीं जाथ नहिंक्षपक बढ़ाई अष्टम ठाणे प्रगटे श्रेणी, सप्तमलों श्रेणी नहिं लेणी। मपक श्रेणिघर सुकल निवासा, प्रकृति छतीस नवें गुणनामा दशमें सक्षम लोभ छिपावे, दशमाथी बारमकों जा। ग्वारमको पैंडो नहिं लेदै, दूजो सुकलध्यान सुख बे I साधकताकी हर बताई , बारमठाण महा सुखदाई। जहां षोड़सा प्रकृति खिपावे , शुद्ध एकतामें लव ला l सोरठा-मासौ मोह पिशाच, पहले पायेसे श्रीमुनि । राजी जगतको नाच, पायो ध्यायौ दूसरौ ॥४॥ है एकत्ववितर्क, अधीचार दूजी महा । कोटि अनंता अर्क, जाको सौ तेज न लहै JE५|| झानावरणीकर्म, दर्शनावरणी हू हते। रह्यौ नाहिं कछु मर्म, अन्तराय अन्त जु भयो । ६६ ।। निरविकल्प रस माहि, तीन भयौ मुनिराज सो । जहाँ भेद कछु नाहि निजगुण पर्ययमावते ॥ER Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। द्रव्य सूत्र परताप, भावसूत्र दरस्यौ तहां । गयो सफल सन्ताप, पाप पुण्य दोऊ मिटे ॥४८॥ एक भावमैं भाव, लखे अनन्तानन्त ही। भागे सकल विभाव, प्रगटे ज्ञानादिक गुणा HEEM अपनों रूप निहार, केवलके सन्मुख भयौ। कर्म गये सब हारि, लरि न सके जासें न कोऊ ॥१००। एकहि अर्थे लीन, एकहि शव माहिं जो। एकहि योग प्रवीण, एकहिं व्यजन धारियौ ॥१॥ एकत्व नाम अभेद, नाम बितर्क सिधन्तको। निरविचार निरवेद, दूजौ पायौ इह कह्यौ ॥ २॥ जहां विचार न कोय, भागे विकलप जाल महु । क्षीणकषायी होइ, ध्यानारूढ भयौ मुनी ॥ ३॥ दूजो पायो येह, गायौ गुरु आज्ञा थको । कर कर्मको छेह, अब सुनि तीजौ शुकल तू ॥४॥ सुक्षम किरिया नाम, प्रगटै तेरम ठाण जो। जो निज केवल धाम, श्रुतझानीके है परे ॥ ५॥ लोकालोक समस्त, भासै केवल बोध मैं। केवल सा न प्रशस्त, सर्व लोकमै ओर कोउ ।। ६ ।। जे अघातिया नाम, गोत्र वेदनी आयु है। निनको नाशै गम, परम शुकल केवल थकी ।। ७ ।। पच्यासी पच्यासी प्रकृती जु, जिनके ठाणो तेरमें। जरी जेबरी सो जु, तिनकू नाशे सो प्रभू ॥ ८॥ सुक्षमक्रिया प्रवृत्ति, ध्यावे तोजो शुकल सो। वादरजोग निवृत्ति, कायजोग सुक्षम रहै ।। ६ ।। करै जु मूक्षम जोग, तेरम गुणके छेहुरे। पावै तबै अजोग, चौदम गुणठाणे प्रभू ॥ १०॥ नहा सु चौथौ ध्यान, है जु समुच्छिन्नक्रिया । ताकरि श्रीभगवान, बेहत्तरि तेरा हतं ॥११॥ गई प्रकृति समस्त, मौ ऊपरि अडताल जे। भये भाव जड़ अस्त, चेतन गुण प्रगटे सवै ॥ १२ ॥ करनी सकल उठाय, कृत्यकृल्य हबौ प्रभ । सो चौथो शिवदाय, परम शुकल जानो भया ।। १४ ॥ पंच Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहनत वणन। AMRALA लघुक्षर काल, चौदम ठाणे थिति करें। रहित जगत जंभाल, अगत शिखर राजे सदा । बहुरि न आवै सोय, लोकशिखामणि जगतते । त्रिमुवनको प्रमु होय, निराकार निर्मल महा ॥ १५ ॥ सबकी करनी सोह, जाने अंतरगत प्रभू । सर्व व्यापको होइ, साखीभून अव्यापको ॥१६॥ध्यान समान न कोई, ध्यान ज्ञानको मित्र है। सोनिज ध्यानी होइ, ताकों मेरी बदना ॥१७॥ धर्ममूल ए दोय, ध्यान प्रशंशा योग्य हैं । आरति रुद्र न होय, सो उपाय करि जीव तू ॥१८॥ धर्म अगनिकौ दीप, शुकल रतनकौ दीप है, निजगुण आप समीप तिनको ध्यावौ लोक तजि ॥ १६ ॥ ध्यान तनू विस्तार, कहि न सके गणधर मुनी । कैसे पार्वै पार, हमसे अलपमती भया ॥ २० ॥ सप जप ध्यान निमित, ध्यान समान न दूसरी। ध्यान धरौ निज चित्त, जाकर भवसागर तिरौ ।। २१॥ नपकू हमरी ढोक, जामैं ध्यान ज पाइये। मेटै जगको शोक करै कर्मकी निर्जरा ॥ २२ ॥ अनशन आदि पवित्र, ध्यान लगै तप गाइया। बारा भेद विचित्र, सुनों अबै समभाव जो ॥ २३ ॥ (इति द्वादश तप निरूपणम्।) मम भाव वर्णन (छप्पय छंद) . राग दोष अर मोह, एहि रोके समभावै। जिनकरि अगके जीव, नाहिं शिवथानक पावें। तेरा प्रकृति अ राग, दोषकी बारा जानों। मोहतनी है सीन, मट्ठाईस बखानौं। . Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाको एक माहके मेद, दो दर्शन चारित्र ए दर्शन मोह मिष्यात भव, जहा न सम्यक सोहए ॥ २४ ॥ राग द्वेष ए दोय, आनि चारित्र जु मोहा । इनकरि तप नहीं उत्त, ए पापी पर द्रोहा ।। इनकी प्रकृति पचीस, तेहि तजि बातमरामा । छोडौ तीन मिथ्यात, यही दोषनिके धामा । स्वपर विवेक विचार बिना, धर्म अधर्म न जो लखे। सो मिथ्यात अनादि प्रथम, ताहि त्यागि निजरस चले २५ दूजो मिश्र मिथ्यात, होय तीजे गुण ठाणे । जहां न एक स्वभाव, शुद्ध मातम नहिं आणे ॥ सत्य सत्य प्रतीति होव दुविधामय भाई । वाहि त्यागि गुणखानि, शुद्ध निजमाव लखावे ॥ सीओ समय प्रकृमि मिथ्यात, सककितमै उदवेग कर ( १)। भलो दोयत तीसरौ; तौपन चंचलभाव घर ॥ २६ ॥ दोहा-कहे तीन मिथ्यात ए, दर्शन मोह विकार । अब चारित्र जु मोहको, भेद सुनौ निरधार ॥२१॥ कही कपाय नु पोड़सी, नो-कषाय नव भेलि । ए पचीसों आनिये, राग दोषकी केलि ॥२८॥ चउ माया चउ लोम अर, हासि रती त्रय वेद । ए तेरा हैं रागकी, देहि प्रकृति अति खेद ॥२६॥ च्यारि क्रोध पर मान चर, अरनि शोक भय जानि । दुरगंधा ये द्वादशा, प्रकृति दोषकी मानि ॥३०॥ लगी अनादि जु कालकी, भरमा जु अनन्त । विनसें भम्बनिके मया, है न जमविके अन्त ॥३क्षारोको सम्यकरष्टिकों, रोसकल विभाव। ढोकै मिथ्याष्टिकों, नहिं मामें Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम भारवर्षमा समभाव या मानसानु कन्धी , प्रथम चौधरी यानि । त्यागे जान मिल्वातानुक सौ समस्पटी मानि ॥३॥ समफित बिनु नहिं होत, शातिरूपी सम्मावा। चौथे गुण ठाणों मुकछुक, समभाव समाया। द्वितीय चौकरी बारि, सोहु मातमय भाई। माम मप्रत्यास्मान, आछौं प्रत न पाई। दोष चौमी तीन मिण्या, त्यात शेष प्रावकावती। प्रगटे गुणठाण अपंचमैं, पापनिकी परणति हसी॥३॥ पढ़ें तहां समभाव, होय रागादिक मूना। मालते गनि अंच, सायातनि ना॥ तृतीय चौकरी जानि, नाम है प्रत्याख्यानी। रोके मुनिनस पह, ठाण छडो शुमध्यानी॥ तीन चौकरी तीन मिथ्या छांडि साबू हवे संगमी । वृद्धि होय समभाई, मन इन्द्री सपही दमी ॥३॥ बोहा - चौथी संझुलना सही, रोके केवग्यान । जाके तीन उदेवकी, होय व निश्चस ध्यान (छप्पय छन्द) चौली चौकरि टरै, नाम संजुलन जवे ही। नो-पाय ना मेह, नाशि का भु सबै ही। यथासात चारित्र, सपनै गारम ठाणों। पूण समभाव, शेष जिमस्त प्रमाणों। Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। दोहा-अनंतानुबंधी प्रथम, द्वितीय अप्रत्याख्यान । तीजी प्रत्याख्यान है, चउथी है संजु लान ॥३८॥ कही चौकरी चार ए, चारो गतिकी मूल । च्यारितनी सोला भई भेद मोक्ष प्रतिकूल ॥३६॥ हास्य अरति रति शोक भय, दुरगंधा दुखदाय । नो कषाय ए नव कहो, पंचवीस समुदाय ॥४०॥ राग दोषकी प्रकृत ए कहौ पचीस प्रमान । तीन मिथ्यात ममेन ए, अट्ठाईस वखान ॥४१॥ जावं जबै सब ही भया, तब पूरण समभाव। यथाख्यातचात्रिह, क्षीणकषाय प्रभाव ॥४२॥ मुनिके जाते अलप है, छटे सातमे ठाण । पन्द्रा प्रकृति अभावनें, ता माफिक समजाण ||४॥ प्रावकके यात अलप, पंचम ठाणों जाण । ग्यारा प्रकृति गया थकीं, ता माफिक परवाण ॥४४॥ श्रावकके अणुवृत्त है, इह जानो निरधार। मुनिके पञ्चमहानता, समिति गुपति अविकार ॥४५॥ श्रावकके चौथे अलप, चौथौ अत्रत ठाण । सहा सात प्रकृती गई, ता माफिक ही जाण ॥४६॥ गुणठाणा समभावके, ह्र ग्यारा तहकीक । चौथे सूले चौदमा, तक नहिं बात अलीक ॥४॥ चौथे अधनि जु जानिये, मध्य पंचमे ठाण । छठासू दसमा लगै, बढ़तो बढतो जाण ॥४८॥ बारम तेरम चौदवें, है पूरण समभाव। जिन सासनको सार इह, भवसागरकी नाव ॥४॥ छप्पय-छट्टमसोले ... ...जुगल मुनीके आणा। तिनको सुनहुं विचार, जैनशासन परवाणा ॥ छट्टम सप्तम ठाण, प्रकृति पंद्रा जब त्यागी। तीन मिथ्यात विख्यात, चौकरी इक तीन ममागी। तब उपजै समभावई, आवकके अधिकौ महा Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभाव वर्णन | पै तथापि तेरा रही, तार्तें पूरण नहिं कहा ॥५०॥ रही नौकरी एक, और गनि नो-कषाय नव । तिनको नाश करेय, सो न पावै कोई भव ॥ छट्टे तीव्र जु उदै, सातवें मंद ज, इनमें पट हास्यादि, आठवें अन्त जु क्रोध मान अर कपट नो, वेद तीनही चौथे चौकार लोभसू -क्षण दश ठाण बिनाशिया ॥५१॥ छन्द चाल -- एकादशमा द्वादशमा, फुनि तेरम अर चौदशमा । नहिं या । समभावतने गुणथाना, ए च्यारि कहे भगवाना ॥ ५२ ॥ ग्यारम है पतन स्वाभावा, डिगि जाय तहा समभावा । बारहमैं परम पुनीता, जासम नहिं कोई अजीता ||५३|| तेरम चौदम गुणठाणा, परमातमरूप बखाना | समभाव तहा है पूरा, कीये रागादिक नहि यथाख्यात सौ कोई, समभाव सरूपी सोई । इह सम उतपत्ति बताई, रागादिक नाश कराई ॥५५॥ चूरा ||५४|| अब सुनि सम लक्खण संता, जा विधि भाषै भगवंता । जीवौ मरिवौ सम जानै, अरि मित्र समान बखानें ॥५६॥ इनक 1 तिनकौ ॥ सुख दुख अर पुण्य जु पापा, जानें सम ज्ञानप्रतापा । सब जीव समान विचारे, अपनेसे सर्व निहारे ॥५७॥ चिंतामणि पाहून तुल्या, जिनके सम भाव मतुल्या । सुरगति अर नक समाना, सब राव रंक सम जाना ॥५८॥ जिनके घर मै नहिं ममता, उपजी सुखसागर समता । वन नगर समान पिछाने, सेवक लाहिब नम जान १५३१ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समसान महल सम भावे, जिनके न विषमता जाये। साभ अलाम समाना,अपमान मान सम जाला ॥६॥ गिरि प्रीष्म समान जिनू के सुर कीट समान सिके। सुख्ता विपतरु सम दोऊ, चन्दन कईम सम होड ॥१॥ गुरु शिम्ब न मेद विचारें, समता परिपुरण पारे। जाने सम सिंह सियाका, जिनके समभाव विशाखा ॥२॥ संपति विपता है सरिखी, लघुता गुरुतासम परती। कंचन लोहा सम जाके, रंचन है विधम ता ॥ रति मरति हानि भर वृद्धी,रज सम जानें सब कही। खार कुअर तुल्य पिछार्ने, अहि फूलमाल सम जानें ॥४॥ नारी नागिन सम देखें, गृह कारागृह सम पेखें। सम जानें इष्ट अनिष्टा, सम मानें अवसि बलिदा ॥६५॥ जे भोग त सम जानें, सब हर्ष राग सम मानें। रस नीरस रंग कुरंगा, सुसद असद सम अंगा॥६६॥ शीतल पर उष्ण समाना, दुरगंध सुगंध प्रमाना । नहिं रूप कुरूप जु भेदा, जिनके समभाव निवेदा ॥१७॥ चक्री पर निरधन दोई, कछु भेदभाव नहि होई। चक्राणी भर इन्द्राणी, अति दान नारि सम जाणी ॥६॥ इन्द्र नागेन्द्र नरेन्द्रा, फुनि सर्वोत्तम अहमिन्द्रा । सूक्षम जीवनि सम देखें, कछु मेव भाव नहिं पे ॥६॥ युति निंदा तुल्य गिर्ने जो, पापनिके पुंज हनें जो। कमिन्धकृष्ण सम तुल्या, पाचौ समभाव मनुस्मा 100 सेवा उपसर्ग समाना, मेरी बांधव सम माना। Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समभावपणन। जिनके दिन महसरीया, सोलो सदगुलकी सीखा ॥ बदै निदे सो सरिखौ, समभावन सन जिन परिलो। समतारस पुरण प्रगयौ, मिथ्यात महाभम विषटयौ ०२॥ तिनकी ललि शांत सुमुद्रा, रौद्र त्यागे अति खा। चीता मृगवर्गन मारे, मति प्रीति परस्पर चारै ॥७॥ गड़ा नहिं मग बिनास, नागा नहिं दादर नासे। उन्दर मारै न विडाला, पलिनसौं प्रीति विशाल tam तिर विद्याधर नर कोई सुर मसुर न वापक होई। कार गव न दंडे, दुरजन दुरजनता छ l काहूके चोर न पैसे, चोरी होवे कहु कैसे। ललि समता धारक मुनिकों, त्यागै पापी पानिकों "" दाकिनके बोर न चालें, हिंसक हिंसा सब टा। भूता नहि लागन पावे, राक्षस व्यंतर भजि जाये In मंतर न चलें मुकिसीके ये हैं परभाव रिषीके। कोहू काडू नहिं मारे, सब जीव मित्रता धारै ७वा हरिनी मृगपतिके छावा, देखें निज सुत समभावा । पापनि गाय चुखावे, मार्जारी हंस खिलावै ॥७॥ ल्पाली मर मोढ़ा इकठे, नाहर बकरा ईठे। काईको जार न चाले, समभाव दु:खनिकों हालै ॥८॥ हम सुविद्यारूपा, निरदोष विराग मनूगा। मति शांतिभावको मूहा,समसौं नहिं शिव मनुरcm नहि समता पर है कौक,सबभुतिको सार होड। जो ममता परित्यागा, सो करिये सम बड़भागा II Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-क्रियाकोष मन इंद्रीको जु निरोधा, सो दम कहिये प्रतिबोधा । समतें क्रोधादि नशाया, दमतें भोगादि भगाया ॥८॥ सम दम निवारण प्रदाया, काहे धारौं नहि भाया । सब जैन सूत्र समरूपा, समरूप जिनेश्वर भूपा ॥४॥ समताधर चउविधि संधा, समभाव भवोदधि लंघा । पूरण सम प्रमुके पइये, लिनतं लघु मुनिके लइये । ८५॥ तिनश्रावकके नूना सम करें कर्मगण चूना । श्रावकतै चौथे ठाणे, कछुइक घट तो परमाणे ॥८६॥ सम्यक विन समता नाहीं,सम नाहिं मिथ्यामत माहीं। ममता है मोह सरूपा, समता है ज्ञान प्ररूपा ॥८॥ सब छोडि विषमता भाई, ध्यावौ समना शिवदाई। समकी महिमा मुनि गावै,समको सुरपति शिर नावै ॥८॥ समसौं नहिं दूजौ जगमे, इह सम केवल जिनमगमें । सम अर्थ सकल तप वृत्ता, सम है मारग निरवृत्ता ॥८॥ जो प्राणी समरम भावै, सो जनम मरण नहिं पावै। यम नियमादिक जे जोगा, सबमैं ममभाव अलोगा ॥१०॥ समको जस कहत न आवै, जो सहस जीभकरि गावै । अनुभव अमृतरस चाखै, मोई समता दिढ राखै ॥६॥ इति समभाव निरूपण। Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ '. सम्यक वर्णन । सम्यक वर्णन सवैया ३१ सा। अष्ट मूलगुण कहे वारह वरत कहे कहे सप द्वादश जु समभाव साधका । सम सान कोऊ और सर्वको जु सिरमोर, याही करि पावै ठऔर आतम अराधका। विषमता त्यागि अर समताके पंथ लागि, छाडौ सब पाप जेहि धर्मके विराधका ! ग्यारै पडिमा जु मेड दोषनिको करै छेद, धार नर धीर धरि सकै नाहिं वाधका HE२॥ दोहा~पडिमा नाम जु, तुल्यको, मुनिमारगकी तुल्य । मारग श्रावकको महा, भा देव अतुल्य ॥ ३॥ बहुरि प्रतिज्ञाकों कहैं, पडिमा श्री भगवान । होहि प्रतिज्ञा धारका, श्रावक समतावान ॥६४। मुनिके लहुरे वीर हैं, श्रावक पडिमाधार । मुनि श्रावकके धर्मको, मूल जु समकित सार ॥ ५ ॥ सम्यक चउ गतिके लहैं, कहै कहालो कोइ । पै तथापि वरणन करूं, सवेगादिक सोइ ॥ ६ ॥ सम्यकके गुण अतुल हैं, श्रावक तिर नर होय। मुनिव्रत मिनखहि धारही, द्विज छत बाणिज होय ॥ संवेगो निरवेद अर, निंदन गरुहा जानि । समता भक्ति दयालता, बात्सल्यादिक मानि ॥ ६८ ॥ धर्म जिनेसुर कथित जो, जीवदयामय सार । वासौं अधिक सनेह है, सो संवेग विचार ।। ६६ ॥ भव तन भोग समस्तत, बिरकत भाव अखेद । सो दूजो निरवेद गुण, करै कर्मको छेद ॥ १०॥ Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जन-क्रियाकोष। तीजी निंदन गुण सौ. निमकों निंदै जोइ । मतमैं पछितावौ करें, भव भरमणको सोइ ॥१॥ चौथौ गरहा गुन महा, गुरुचे भाचे वीर। अपने नौगुन समकिसी, नहीं सिपाचे धीर ॥२॥ पंचम उपशम गुण महा, उपसमता अधिकार । प्रान हरै साहूबकी, बैर न चित्त पराय ॥३॥ छहौ गुण भती परें, सम्बकाष्टी संत। पञ्च परमपदको महा, पार सेव महंस ॥४॥ सतम गुण वात्सल्य मो, जिन धर्मिनसौं राग। अष्टम अनुकंपा गुणो, जीपल्या प्रत लाग॥५॥ काय गाथा-संवेऊ णिवेड, णिवण गरुहान उपसमो भत्ती। वच्छल्लं मनुकंपा, मट्टगुणा हुँति सम्मत्ते ।। चौपाई-भन्यजीव चहुंगसिके माही,पावै समकित संसय नाही। पंचेन्द्री सैनी विनु कोय, और न सम्यकदृष्टी होय ॥७॥ अब संसार अलप ही रहै, तब सम्यक दरशनकों गहै। प्रथम चौकरी नीन मिथ्यात, ए सातों प्रकृती विख्यात ॥८॥ इनके उपशमतें जो होय, उपशम नाम कहावै सोय । इनके क्षयतें क्षायिक नाम, पावै मनुष महागुण धाम || क्षायिक मनुष बिना नहिं लहै, क्षाायक तुरत ही भववन है। केवल आदि मूल इह होय, क्षायिक सो नहिं सम्यक कोय॥१०॥ अब सुनि भय उपसमको रूप, तीन प्रकार की जिनभूप। प्रथम चौकरी क्षय है जहा, तीन मिथ्यात उपसमैं वहा ॥१॥ पहली क्षय उपशम सो आनि, जिनवानी उरमैं परवानि । Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्णन | १६१ प्रथम चौकी पहल मिध्यात एपांचों शेष है दुखात ॥१५॥ निध्यात उपशमैं जहां, दूजी क्षय उपशम है वहां प्रथम चौक है मिथ्यात ए पट क्षय होवें जड़तात ॥ १५ ॥ तृतिय मिध्यात उपशमै भया, तीनो क्षय उपशम सो ख्या । वैदसम्बक च्यारि प्रकार, साके भेद सुनों निरधार ॥ १४ ॥ प्रथम चौकरी क्षय है जहां दोय मिथ्यात उपशमैं वहां । तृतिय मिध्यात बड़े अब होय, पहलौ वेदक जानौ सोय ॥१५॥ प्रथम चौकरी प्रथम मिथ्यात, ए पांचों क्षय होय विख्यात । द्वितिय मिथ्यात उपशमें जहां, उदे होय तीजको तहां ॥१६॥ भेद दूसरों वेदकतणों, जिनमारग अनुसारे भणों । प्रथम चौकरी दो मिध्यात, ए पट प्रकृति होंय अब बात ||१७ तीसरौ मिथ्या होय, सीओ वेदक कहिये सोय । प्रथम चौकरी मिध्या दोय, इन छहुँको उपशम जब होय ॥१८ होय तीजौ मिथ्यात, सो चौथौ वेदक विख्यात । ए नव भेद स सम्यक कहे, निकटभव्य जीवनिनें गद्दे ॥१६॥ दोहा - खै उपशम वरतै त्रिविध, वेदक प्यारि प्रकार । झाविक उपशम मेलि करि, नवधा समकित धार ॥ २० ॥ नवमे शायिक सारिखो, समकित होय न और । अविनाशी आनंदमय, सौ सबकौ सिरमौर || २१ || पहली उपशम ऊपजै, पहली और न कोय । समके परसाद, पाछे क्षायिक होय || २२ || क्षायिक बिनु नहिं कर्मक्षय, इह निश्वै परवानि | क्षायक दायक सर्व ए, सम्यकदर्शन मानि ॥ २३ ॥ उपशमादि सम्यक सबै आदि अन्य जत जानि । शायिकको नहि अन्त है, सादि अनन्य बखानि ॥ २४ ॥ सम्यदृष्टी Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष। सर्व ही, जिनमारगके दास । देव धर्म गुरु तत्वको, श्रद्धा अविचल भास ॥ २५ ॥ अनेकात सरधा लिया, शातभाव घर धीर । सप्तमंग वानी रुचै, जिनवरकी गंभीर ॥ २६ ॥ जीव अजोवादिक सगै, जिन आज्ञा परवान । जाने ससै रहित जो धारै दृढ सरधान ॥२७॥ सप्त तत्त्व षट द्रव्य अर, नव पदार्थ परतक्ष । अम्तिकाय हैं पंच ही तिनको धारै पक्ष ॥ २८ ॥ इष्ट पंच परमेष्टिको, और इष्ट नहिं कोय । मिष्ट वचन बोले सदा, मनमै कपट न होय ॥ २६ ॥ पुत्रकलत्रादिक उपरि, ममता नाहिं बखान ।। ३० ॥ तृण सम माने देहको, निजगम जाने जीव । धरै महा उपशातता, त्यागै भाव अजीव ॥ ३१ ॥ से विषयनिको तऊ, नही विषयसू राग। वरते गृह आरम्भमै , धारि भाव वैराग।। २ । कब दशा वह होयगी, धरियेगो मुनिवृत्त । अथवा श्रावक वृत ही, करियेगो जु प्रवृत्त ॥३॥ धृग धृग अवतभावको या मम और न पाप । क्षणभंगुर विषया सबै देहि कुगनि दुख नाप ॥ ३५ ॥ इहे भावना भावनो, भोगनित जु उदाम । मी मम्यकदरसा भया पावे तत्त्वविलास ॥ ३५ ॥ सप्तम गुणके ग्रहण को, गगी होय अपार । माधुनिकी सेवा करै, सो सभ्यक्रगुण धार ॥ ३६॥ माधर्मिनमो नेह अति नहिं कुटुम्बसौं नेह । मन नहि मोह-विलासमै, गिने न अपनी देह ।। ३७ ॥ जीव अनादि जु कालको, बस देहमे एह । बंध्यौ कर्म प्रपचसौं, भवमैं, भ्रमो अच्छेह ।३८। त्याग जोग जगजाल सब, लेन जोग निज भाव । इह जाके निश्चै भयो, सो सम्यक परभाव । भिन्न भिन्न आने सुधी, जड-चेनको रूप। त्यागै देह सनेह जो, भावै भाव अनूप ४०॥ क्षार नीरकी भांति ये, मिलैं जीव अर कर्म । नाहिं तथापि मिलें कदै Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्यक वर्णन | १६३ 1 भिन्न भिन्न हैं धर्म ॥ ४१ ॥ यथा सर्पकी कंचुकी, यथा खड़गको म्यान । तथा खै बुध देहकों, पायौ व्यावमज्ञान ॥४२॥ दोष समस्त वितीत जो, वीतराग भगवान । ता बिन दूजौ देव नहिं, इह बार सरघास ||४३ || सर्व जीवकी जो दया, ताहि सरदहै धर्म । गुरुमाने सिरमन्थकों, जाके रंच न भर्म ॥ ४४ ॥ जपै देव अरहतको दास भाव धरि धीर । रागी दोषी देवकी, सेब तजे वरवीर ॥ ४५ ॥ रागी दोषी देवको, जो मानै मतिहीन । धर्म गिर्ने हिंसा बिषे, सो मिथ्या मतिहीन ॥ ४६ ॥ परिगृह धारककों गुरु, जो आर्ने जग माहिं । सो मिध्यादृष्टी महा यामैं संसै नाहिं ॥ ४७ ॥ कुगुरुकुदेव कुधर्मकों, जो ध्यावै हिय अंध । सो पार्ने दुरगति दुखी, करे पापको बंध ॥ ४८ ॥ सम्यकदृष्टी चितवे या संसार मंझार । सुखको लेश न पाइये, दीखे दुःख अपार ॥ ४६ ॥ लक्ष्मीदाता और नहि, जीवनिकों जगमाहिं । लक्ष्मी दासी धर्मकी, पापथकी विनसाहि ॥ ५० ॥ जैसौ उदय जु आवही पूरब बांध्यौ कर्म तैसौ भुगतें जीव सव, यामैं होय न मर्म ॥५१ पुण्य भलाई कार है, पाप बुराई कार । सुखदुखदाता होय यह, और न कोई विचार || ५२ । निमित्तमात्र पर जीव हैं, इह निचे निरधार। अपने -कीये आप ही, फल भुगते संसार ॥ ५३ । पुन्यथकी सुर नर हुवै, पापथकी भरमाय । तिर नारक दुरगति विबैं, भव भव अति दुख पाय । ५४ । पाष समान न शत्रु है, धम समान न मित्र । पाप महा अपवित्र है, पुण्य कछुक पवित्र । ५५ । पुण्यपापत रहित जो, केवल आतम भाव । सो उपाइ निरवाणको, जामैं नहीं विभाव । ५६ । झूठी माया जगतकी, झूठौ सब संसार । सत्य जिनेसुर धर्म है, जा करि है भवपार ॥ ५७ ॥ ध्यंतर देवादिनिकों ने शठ 灣 Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९४ - ~ ~~ -~~ - ~ जैन-क्रियाकोष। लक्ष्मीहेत । पूजे ते आपज लहैं लक्ष्मी देय न प्रेत ॥५८। भक्ति किये पूजे थके, जो वितर धन देय । तौ सब ही धनवंत हैं, जण जन तिनकों सेय ॥ ४६ । क्षेत्रपाल चडी प्रमुख, पुत्र कलत्र धनादि । देन समर्थ न कोइकों, पूर्जे शठ जन बादि ।। ६० । जो भवितव का जीवको, आ विधान करि होय । जाहि क्षेत्र जा कालमैं, निःसदेह सोय ।। ६१ ॥जान्यौ जिनवर देवने, केवलज्ञान मंझार। होनहार संसारको, ता विधि है निरधार ॥ ६२ । इह निश्च जाकै भयो, सो नर सम्यकर्वत । लखे भेद षट द्रव्यके, भावै भावअनंत ॥ ६३ । द प्रतीत जिनवैनकी, सम्यकदृष्टी सोय । जाकें संसे जीव मैं, सो मिथ्याती होय ॥ ६४॥ सोरठा-जो नहिं समझी जाय, जिनवाणी अति सूक्षमा । तो ऐसे उर लाय, संदेह न आने सुधी ॥६६॥ बुद्धि हमारो नद, कछु समझे कछु नाहि । जो भाष्यो जिनचंद, सो सब सत्यस्वरूप है ।। ६७। उदै होयगौ ज्ञान, जब आवर्ण नसाइगौ। प्रगटेगौ निजध्यान, तब सब जानो जायगो ॥६८। जिनवानी सम और, अमृत नहिं संचारमें। तीन भुवन सिरमौर, हरै अन्म जर मरण जो ॥ ६६ ॥ जिनर्मिनसो नेह, यौ नेह मिनधर्मसु । बरसै आनन्द मेह, भक्त भयो जिनराजको॥७॥ सो सम्यक धरि धीर, लहै निजातम भावना। पावै भवजल तीर, दरसन ज्ञान चरित्तते ॥५॥ ऋद्धिनमैं बड़ ऋद्धि, रतनिमें रतन झु महा। Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्बक वर्णन ! १६५ या सम और म सिदिइ निक्ले धारौ भया ।। ७२॥ योगनिमें निज योग, सम्यक बरसन जानितू। हने सदा सब शोक, है मानन्ददायी महा ।।७३ ॥ जोगारासा बड़नीक है सम्यकदृष्टी, यद्यपि प्रत न कोई। निंदनीक है मिथ्यादृष्टी, ओं सपसी होई ।। मुक्ति न मिथ्यादृष्टी पावै, तपसी पा सर्गा। ज्ञानी व्रत बिना सुरपुर ले, तपरि ले अपकर्मा ।। ७४ ।। दुरगति बंध करै नहिं ज्ञानी, सम्यकभावनि माहीं। मिथ्याभावनिमैं दुरगतिको, बंध होय बुधि नाहीं॥ समकित बिन नहिं श्रावकवृत्ती, अर मुनिव्रत नाही। मोक्षहु सम्यक बाहिर नाही, सम्यक आपहि माहीं ॥५॥ संग निशंकित मादि जु अष्टा, धारै सम्यक सोई। शंका आदि दोष मल रहिता, निरमल दरसन होई ।। जिनमारंग भाषे जु अहिंसा, हिंसा परमत भाषे । हिंसामारगकी तजि सरघा, दयाधर्म दिढ़ राखे । ०६ ॥ संदेह न जाके जिय माहीं, स्यादवादको पंथा। पकरै त्यागि एक नयवादो, सुनै मिनागम प्रथा ॥ पहली अंग निससै सोई, दूजो काक्षा रहिता । जामैं जगकी वांछा नाही, मातम अनुभव साहिता 1000 शुमकरणी करि फल नहिं चाहै, इह भव परभक्के जो। करै कामना रहित जुधर्मा, भानामृत फल ले ओं। इह भाष्यौ नि:कांक्षित अंगा अब सुति तीज मेदा । निरविचिकित्सा बन है भाई जा कर भव प्रम छेदा ॥ 41 Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ जन-क्रियाकोष। जे दश लक्खण धर्म घरैया, साधु शातरस हीना। तिनको लखि रोगादिक जुक्ता, सेव करें परवीना॥ सूग न आने मनमै क्यू हीं, हरै मुनिनकी पीरा । सो सम्यकदृष्टी जिनधर्मा, तिरै तुरत भवनीरा ॥ ४ ॥ चौथो अंग अमूढ स्वभावा, नहीं मूढता जाके। जीवघातमें धर्म न जाने, संसै मोह न ताके॥ अति अवगाढ़ गाढ़ परतीती, कुगुरु कुदेव न पूजे । जिन सासनको शरणो ले करि, जाय न मारग दूजे ।। ८०॥ जानें जीवदयामैं धर्मा, दया जैन ही माहीं। आन धर्ममैं करुणा नाही, परतख जीव हताई ।। जो शठ लज्जा लोभ तथा भै, करिके हिंसा माहीं। मानै धर्म सो हि मिथ्याती, जामै समकित नाहीं ।। ८१॥ पचम अङ्ग नाम उपग्रहुन, ताकौ सुनहु विवेका । पर जीवनिके आखिन देखें ढाके दोष अनेका ।। आप जु दोष कर नहिं ज्ञानी सुकृत रूप सदा ही। अपने सुकृत नाहिं प्रकाशै, टरै न एक मदा ही ।। ८२ ॥ दोहा-ढाकै अपने शुभ गुणा ढाकै परक दोष । गावे गुण परजीवके, रहै सदा निरदोष ॥८३॥ जो कदाचि दूषण लगै, मन वच काय करेय । तौ गुरु पै परकाशिक, ताकौ दंड झु लेय ॥ ८४ ॥ जप सप प्रत दानादि कर, दूषण सर्व हरेय । करै जु निंदा आपकी, परनिंदा न करेय ॥८५॥ जे परगासैं पारके, ओगुन तेहि अयान । जे परगास आपके, औगुण तेहि सयान ॥८६॥ जे गावै गुन गुरुनिके, ते समदृष्टी आनि ॥८॥ छट्टो अंग कहों अवै, थिरकरणा गुणवान । Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ~WW WA 1 3 १६७ धर्म की विचलेनिक, प्रतिबोषै मतिवान |२८| थार्षे धर्म मझार जो, करें धर्मकी पक्ष | आप डिगे नहि धर्मतें, भावे भाव भक्ष ||८|| थिरतागुण सम्यक्तकौ, प्रगट बात है यह । चित्त अथिरता रूप जो, तौ मिध्यात गिनेह ||३०|| सुनो सातम् अंग अब, जिन मारगसो नेह | जिनधर्मीकू देखि करि, बरसे व्यानंद मेह ॥ ६१॥ तुरत जात बछरानि परि त करें ज्यू गाय । त्युं यह साधर्मी उपरि हेत करें अधिकाय |. ६२|| जे ज्ञानी घरमातमा, मुनि श्रावक व्रतवंत । आर्या और सुश्राविका, चडविधि संघ महंत ||३|| तथा अन्नती समकिती, जिनधर्मी अग माहि । तिनसों राखे प्रीति जो, यामै संसे नाहि ||४|| तन मन धन जिनधर्म परि, जो नर वारे डारि । सो वातसल्य जु मङ्ग है, भाख्यौ सूत्र विचारि ||१५|| अष्टम मङ्ग प्रभावना, कझौ सुनों घरि कान । जा विधि सिद्धान्तनि विषै, भाष्यौ श्री भगवान |१| भांति भाति करि भासई, जिनमारगकों जो हि । करें प्रतिष्ठा जैनकी, अङ्ग आठमो होहि ॥६७ जिनमंदिर जिनतीरथा, जिन प्रतिमा जिनधर्म | जिनधर्मी जिनसूत्रकी, करें सेव बिन भर्म ॥ ६ ॥ जो अति श्रद्धा करि करें, जिनशासनकी सेव । बोलै प्रियवाणी महा, ताहि प्रसंस देव ॥६६॥ जो दसलक्षण धर्मकी, महिमा करें सुजान । इन्द्रिनके सुखकों गिने, नरक निगोद निसान ॥ १०० ॥ कथनी कर न पारकी, फुनि फुनि घ्यावे तस्व । भावे आतमभाव जो, त्यागे सर्व ममत्र ॥ ० ॥ कहे अङ्ग ये प्रथम हो, मूल गुणनिके माहिं । अब हु पड़िमामैं कहै, इन सम और जु नाहि ॥ २ ॥ बार और बुति ओग ये, सम्यकदरसन मङ्ग । इनको धारै सो सुधी, करें कर्मकौ भङ्ग ॥ ३ ॥ अष्ट अङ्गको धारियों, अष्ट मदनिको त्याग । सम्यक वणन | VA Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ जैन-क्रियाकोष पट अनायतन त्यागिवौ, अतोचार महिं लाग॥ ४॥ ते भाचे गुरु पंचविधि बहुरि मूढता तीन । तभिवौ सातों विसनको, भय सातों नहिं कीन ।। ५॥ ए सब पहले हू कहै, अब हू भार्षे वीर । बार बार सम्यक्तकी, महिमा गाव धीर ।। ६ ।। अङ्ग निशंकित आदि बहु, मठ गुण संवेगादि । अष्ट मदनिको त्याग फुनि, अर वसु मूलगुणादि । ॥ ७॥ सात विसनको त्यागिवौ, अर तजिवौ भय सात । तीन भूढता त्यागिवौ, तीन शल्य फुनि भ्रात ॥ ८॥ षट अनायतन त्यागिवौ, अर पांचों अतिचार । ए त्रेमठ त्यागै जु कोउ, सो समदृष्टी सार ॥ ६॥ चौथे गुण ठाणे तनी, कही बात ए भ्रात । है अपत परि जगततै, विरकितरूप रहात ॥ १० ॥ नहिं चाहै मनत दसा, चाहे व्रत्तविधान । मनमैं मुनित्रलको लगन सो नर सम्यकवान ॥११॥ जैसे पकौं चोरकू दे तलवर दुख धोर। परक्स पडि बंधन सहै, नहीं चोरको जोर ।। १२॥ त्यू हि अप्रत्याख्यानने, पकरयो सम्बकवन्त । परवस भव्रतमैं रहै चाहै व्रत महन्त ॥ १३ ॥ थाहै बोर जु छटिवौ, यथा बंधते वीर। चाहै गृह छूटियौ, त्यों सम्यकपर धीर ।। १४ ॥ सान प्रकृतिके त्यागते, जेती थिरता जोय । तेती बोये ठाणि है, इह जिन आश होय ॥ १५ ॥ ग्यारा व्रत वर्णन दोहा-यारा प्रकृति वियोग”, होय पंचमो ठाण । तव पडिमा धारे सुषी, एकादश परिमाण ।। १६ ।। तिनके नाम सुनों सुषी, जा विधि कहै जिनंद । धाएँ प्राक्क धीर जे, तिन सम नाहिं नरिंद २५॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ म्यारा वर्णन 1 TEE दरसन प्रतिमा प्रथम है, दूजी व्रत कार सीजी सामायक मदा, चौथी पोपहार ॥ १८ ॥ सचितत्याग है पंचमी, छठ्ठी दिन तिय त्याग | तथा रात्रि अनसन व्रता, धारे तपसों राम ॥ १६ ॥ जानों पढ़िमा सातवी, ब्रह्मचर्यव्रत धार । तजी नारि नागिन गिने, राजे मोह अंगार ॥ १० ॥ लौकिक वचन न बोलिवौ, सो दशमी बढ़भाग ।। २१ ।। एकादशमी दोय विधि, क्षुल्लक ऐलि विवेक ! है डाहार, तिनमैं' मुनिप्रत एक ॥ ३२ ॥ ऐलि महा सकिष्ट है, ऐलि समान न कोय। मुनि आर्या अर ऐलिए, लिंग तीन शुभ होय || २३ || भाषी एकादश सर्वे, प्रतिमा नाम जु मात्र । अब इनको विस्तार सुनि, ए सब मध्य सुपात्र ॥ २४ ॥ चौपाई- -प्रथम हि वरशनप्रतिमा सुनों, आत्तमरूप अनूप जु गुणों । दरशन मोक्षबीज है सही, दरशन करि शिव परसन नहीं ||२५|| दरसन सहित मूळगुण धरै, सात विसन मन बच तन हहै । बिन अरहंत देव नहिं कोय, गुरु निरग्रन्थ बिना नहि होय ॥२६ जीवदया बिन और न धर्म इह निहवे करि टारे भर्म । संयम बिन तप होय न कदा, इह प्रतीति धारे बुध सदा ॥२५॥ पहली प्रतिमाको सो घनी, दरसनवंत कुमति सब हनी । आठ मूल गुण विसन जु सात, भाषे प्रथम कथन में भ्राता ||२८|| ans कथन कियौ अब नाहि, श्रावक वह आरम्भ तजाहिं । है स्वारथमै साचौ सदा, कूड़ कपट धारे नहि कदा ॥ २६ ॥ घरै शुद्ध व्यवहार सुधीर । परपीराहर है जगवीर । सम्यक दरसन हढ़ करि धरैः पापकर्मकी परणति हरे ॥३०॥ क्रय विक्रय कसर न कोय, लेन देनमै कपट न होय । Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष | कियौ करार न लोपे जोहि, सो पहिली पड़िमा गुण होहि ॥३१ जाके र कालिम नहिं रंच, जाके घटमैं नाहिं प्रपंच | जिन पूजा जप तप व्रत दान, धर्म ध्यान धारै हि सुजान ॥ ३२ ॥ गुण इकतीस प्रथम जे कहै, ते पहली पड़िमामें लहै । अब सुनि दूजी पड़िमाधार, द्वादश व्रत पाले व्यविकार ||३३|| पंच अणुव्रत गुणनत तीन, शिक्षाव्रत धारें परवीन । निरतीचार महामतिवान, जिनको पहली कियौ बखान ॥३४॥ व्यय तीजी पड़िमा सुनि सत, सामयक धारी गुणवन्त । मुनिसम सामायककी वार, थिरता भाव व्यतुल्य अपार ||३५|| करि तनको मन परित्याग, भव भोगिनतें होइ विराग । धरि कायोतसर्ग वर वीर, व्यथवा पदमासन धरि धीर ॥ ३६ ॥ घट घट घटिका तीनू काल, ध्यावै केवलरूप विशाल । सब जीवन समता भाव, पश्च परमपद सेवै पांव ॥ ३७ ॥ सो सब वर्णन पहली कियौ, बारा वरस कथनमें लियौ । चौथी प्रतिमा पोसह जानि, पोसह मैं थिरता परवानि ||३८|| सो पोसकौ सर्व सरूप, आगे गायौ अब न प्ररूप । पोसा समये साधु समान होवै चौथी प्रतिमावान || ३६ || दूजी पड़िमा धारक जेहि, सामायक पोसह विधि तेहि । धार परि इनकी सम नाहिं, नहिं थिरता तिन रंचक माहिं ||४०| तोजी सामायक निरदोष, चौथी पडिमा पोसह पोष । पंचम पड़िमा घरि बड़भाग, करें सचित वस्तुनिको त्याग ॥४१॥ काचो जल अर कोरो धान, दल फल फूल तजै बुधिवान । काळ मूळ कंदादि न वखै, कूपल बीज अंकुर न भखें ||४२ ॥ २०० Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारा वर्णन। २०१ हरितकायको त्यागी होग, जीवदयाको पालक सोय । सूको फल फोड़या बिन नाहिं, लेवौ जोगिन ग्रंथनि माहि लोन न ऊपरसे ले धीर, लोन हु सचित गिने वर वीर । माटो हात धोयवे कान, लेय अचित्त दयाके काज ।। ४४ ॥ खोरी तथा माटी जो जली, सोई लेय न काची डली। पृथ्वीकाय विरा| नाहि, जीव असल कहै ता मांहि ।।४।। जलकायाकी पाले दया, सर्व जीवको भाई भया। अगनिकायसों नाहिं विरोध, दयावन्त पावै निज बोध ॥ ४६॥ पवन को न करावै सोय, षट कायाको पीहर होय । नाहिं वनस्पति कर विरोध, जिनशासनकी धरै अगोष ॥४॥ विकलत्रय अर नर तिर्यश्च, सबको मित्र रहित परपंच । जो सबिचको त्यागी होय, दयावान कहिये नर सोय ॥४८॥ माप भखे नहिं सचित कदेय, भोजन सषित न औरहिं देय। जिह सचित्तकौ कीयौ त्याग, जीता जीभ तज्यौरसराग | दया धर्म धारयौ तिहि धीर, पाल्यौ जैन बचन गंभीर । अब सुनि छट्टी प्रतिमा संत, जा विधि भाषी वीर महंत ॥५०॥ कै मुहूर्त अब बाकी रहे, दिवस तहा ते अनशन गई। कै मुहूर्त जब चढ़ि है भान, तो लग अनशनरूप बखान ॥५१॥ दिनकों शील धरै जो कोय, सो छठी प्रतिमाघर होय । खान पान नहिं रैनि मझार दिवस नारिको है परिहार ॥५२॥ पूछे प्रश्न यहां भवि लोग, निशिभोजन पर दिनको भोग। शानी जीव न कोई करै, छही कहा विशेष अ धरै ॥५३॥ लाको उत्तर धारौ एह औरनिको प्रत न्यून गिनेह । Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष मन वच तन कृतकारित त्याग, कर न अनुमोदन बड़भाग ५४॥ तब त्यागी कहिये श्रुति मांहि, या माहीं कुछ संसै नाहिं। गमनागमन सकल आरम्भ, तज रैनिमें नाहिं अचम्म ॥१५॥ महावीर वर वीर विशाल, दिनों ब्रह्मचर्य प्रनिपाल । निरतीचार विचार विशेष, त्यागै पापारम्भ अशेष ॥५६॥ जैनी जिनदासनिकौ दाम, जिनशासनको करें प्रकाश । जो निशिभोजन त्यागी होंय, छ: मासा उपवासी सोय ॥णा वर्ष एकमैं इहै विचार, जावो जीव लगै विस्तार । ह उपवासनिकौ सुनि वीर, तात निशिभोजन तजि धीर ५८॥ जो निशिकों त्यागे आरम्भ, दिनहूं जाके अलपारम्भ । अब सुनि सप्तम पडिमा धनी, नारिनकू नागिन सम गिनी ॥५६॥ घारयौ ब्रह्मचर्य व्रत शुद्ध, जिनमारगमैं भयो प्रबुद्ध । निशि वासर नारीको त्याग, सज्यौ सकल जाने अनुराग ॥६॥ मन वच काय तजी सब नारि, कृनकारित अनुमोद विचारि। योनिरंध्र नारीको महा, दुरगति द्वार इहै उर लहा ॥१॥ इन्द्राणी चक्राणी देखि, निंद्य वस्तु सम गिने विशेष । विषवासनामैं नहिं राग, जानें भोग झु काले नाग या विषमगनता अति हि मलीन, विषयी अगमैं दीखे दीन । विषय समान न बैरी कोय, जीवनिळू भरमावै सोय ६शा शील समान न सार न कोय, भवसागर तारक है सोय। अब सुनि अष्टम पडिमा मेद, सर्वारम्भ सजे निरखेद ॥६॥ आप करे नहिं कछु मारम्भ, तजै लोभ छल त्यागे बम्म । करवावै न कर सनुमोद, साधुनिकों लखि धरै प्रमोद ५॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारा वर्णन - मन वच काय शुद्ध कार सन्त, मग या धार न महन्त । जीव घाततै कांप्यौ मोहि, सो अष्टम पडिमावर होहि ॥६॥ असि मसिषि वाणिज इत्यादि, तजे, जगत कारज गनि वादि। जाय पराये जीमै सोह, गृह आरम्भ कळू नहि होह ॥६॥ कहि करवावे नाही वीर, सहज मिलें तो जीमैं धीर । ले जावै कुल किरियावन्त, ताके भोजन ले बुधिवन्त ॥६८॥ जगत काज खजि मातम काज, करै सदा ध्याये जिनराज । क्या नहीं मारम्भ मंझार, करि आरम्म भ्रमै संसार ॥६६॥ वाते सगै गृहस्थारम्भ, जीवदयाकौ रोप्यो थम्म । करि कुटुम्बको त्याग सुजान, हिंसारम्भ सजै मतिवान ॥७॥ दया समान न जगमैं कोई दया हेत त्यानें जग सोड़। अब नवमी प्रतिमा को रूप, धारी भवि तजि जगत विरूप नवमी पडिमा धारक धीर, तजे परिणहकों वर वीर। अन्तरङ्गके त्यागै संग, रागादिकको नाहिं प्रसङ्ग या बाहिरके परिमह घर आदि स्थासर्व धातु रतनादि । वस्त्र मात्र राखे बुधिवन्त, कनकादिक भाटै न महन्त ॥३॥ वस्त्र हु बहु मोले नहिं गहै, अलप वस्त्र हे भानन्द लहै। परिग्रहको जानै दुखरूप, इह परिग्रह है पापस्वरूप ॥७॥ जहां परिग्रह लोम वहां हि, या करि दया सत्य विनशाहि । हिंसारम्म उपांवे एह, या सम और न शत्रु गिनेह ॥५॥ तजै परिगृह सोहि सुजान, तृष्णा त्याग को बुधिनान । आकी चाह गई सो सुखी, चाह करें ते वीले दुखी HI बाहिन ग्रन्थ रहित जग माहि, दारिद्री मानव शक नाहि । . Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अन-क्रियाकोष ते नहिं परिगृह त्यागी कहैं, चाह करन्ते अति दुखल. ॥७॥ जे अभ्यंतर त्यानें सङ्ग, मूरिहित लहें निजरङ्ग। ते परिगृहत्यागी हैं राम, बाछा रहित सदा सुखधाम ॥७॥ शानिन बिन भीतरको सङ्ग, और न त्यागि सबै दुख अङ्ग। राग दोष मिथ्यात विभाव, ए भीतरके सङ्ग कहाव ॥६॥ तजि भीतरके बाहिर सगै, सो बुध नवमी पडिमा भने। वस्त्र मात्र है परिगृह जहां, धातुमात्रको लेश न तहां ॥८॥ नर्म पूजणी धार धीर, पट कायनिकी टारै पीर। जलभाजन राबैं शुचि कान, त्यागै धन धान्यादि समाज ॥८१॥ काठ तथा माटीको जोय, और पात्र राखै नहिं कोय । जाय बुलायो जीमैं जोय, श्रावकके घर भोजन होय ॥२॥ दशमी प्रतिमा पर बड भाग, लौकिक वचनथकी नहिं राग। बिना जैनवानी कछु बोल, जो नहिं बोलै चित्त अडोल ॥८॥ जगत काज सब ही दुखरूप, पापमूल परपश्च स्वरूप। ताते लौकिक वचन न कहै, जिनमारगकी सरधा गहै ॥४॥ मोन गहै जगसेती सोय, सो दशमी पडिमाधर होय । श्रुति अनुसारधर्मकी कथा, कर जिनेश्वर भाषी यथा ॥८५। जगतकाजको नहिं उपदेश, ध्यावे धीरज धारि जिनेश । बोले अमृत वानी वीर, षट कायनिकी टार पीर ॥८६॥ तजे शुभाशुभ जगके काम, भयौ कामना रहिक अकाम । जे ना करें शुभाशुभ काम, ते नहि लह देश जिनराज (1८७॥ रागद्वेष कलहके धाम, दीसैं सकल जगतके काम। जगतरीतिमैं जे नर धसा, सो नहिं पाचे उत्तम दसा ical Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्यारा व्रत वर्णन । २०५ दशमी पड़िमा धारक संव, ज्ञानी ध्यानी अति मतिवंत । गिने रतन पाहून सम जेह, त्रण कंचन सब जानें तेह, ८६ शत्रु मित्र सम राजा रक, तुल्य गिनै मनमें नहिं संक । बाधव पुत्र कुटुम्ब धनादि, तिनकू भूलि गये गनि वादि ॥६०॥ जानें सकल जीव समरूप, गई विषमता भागि विरूप । पर घर भोजन करें सुजान, श्रावक कुल जो किरियावान || ११|| अल्प अहार सहालें धीर, नहि चिन्ता घार वर वीर । कोमल पीछी कमंडल एक, बिना धातुको परम विवेक ॥६२॥ इक कोपीन कणगती छया, छह हस्ता इक वस्त्र हु भया । इक तह एक पाटकौ जोय, यही राति दशमीको होय ||१३|| जिन शासनको है अभ्यास, आगम अध्यातम अभ्यास । अब सुनि एका दशमी घार, सबमें उतकिष्टे निरधार ॥६४॥ बनवासी निरदोष अहार, कृतकारित अनुमोदन कार, मनवच काय शुद्ध अविका, सो एकादश पड़िमा धार ॥६५॥ ताके दो भेद हैं भया, क्षुल्लक ऐलिक श्रावक क्या । लक खण्डित कपड़ा घरें, अरु कमडल पीछी आदरे ॥ ६६ ॥ इक कोपीन कणगती है, और कछू नहिं परिगृह चहे । जिनशासनको दासा होय, क्षुल्लक ब्रज्ञचार है सोय ||६|| ऐलि धेरै कोपीन हि मात्र, अर इक शौचतनू' है पात्र । कोमल पीछी दया निमित्त, जिनवानीको पाठ पविच ॥६८॥ पश्च परनिमें एक परेहिं भोजन मुनिकी भांति करेहिं । ये है चिदानन्दमैं लीन, घर्मध्यानके पात्र शुल्क जीमैं पात्र मंझार, ऐलि करें करपात्र बहार । प्रवीन ॥ ६६ ॥ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष मुनिवर ऊमा लेय महार, ऐलि अर्यका बैठा सार ॥१०॥ हुलक कतरावै निज केश, ऐलि करें शिरलोंच अशेष । पहली पड़िमा आदि झुलेय, क्षुल्लकलों प्रत सबकू देव ॥१॥ श्रीगुरु तीन वर्ण बिन कदे, नहिं मुनि ऐलित. प्रत है। पहलीसों छट्ठीलों जेहि, अघन्य श्रावक आनो तेहि ।।२।। सप्तमि अष्टमि नवमी धार, मध्य सरावक हैं अविकार। दशमी एकादशमी वन्त, उतकिष्टे भाई भगवन्त ॥३॥ तिनहूमैं ऐलि जु निरधार, ऐलिथकी मुनि बड़े विचार। मुनिगणमैं गणधर है बड़े, ते जिनवरके सनमुख खड़े ॥४॥ जिनपति शुद्धरूप हैं भया, सिद्ध परै नहिं दूजौ लया। सिद्ध मनुज बिन और न होय, चहुगतिमै नहिं नरसम कोय ॥ नरमैं सम्यकदृष्टी नरा, तिन" बर आवक व्रत धरा। घोड़स स्वर्गलोकलो जाहिं, अनुक्रम मोक्षपुरी पहुंचाहि ॥६॥ पचमठाणे ग्यारा भेंद, घारै तेहि करें अघछेद । इह श्रावककी रीति जु कही, निकट भव्य जीवनिने गही ॥७॥ ऊपरि ऊपरि चढते भाव, विकरतभाव अधिक ठहराव । नींव होय मन्दिरके यथा, सर्व ब्रतनिके सम्यक नथा। दान वर्णन दोहा - प्रतिमा ग्याराको कथन, जिन आज्ञा परवान। परिपुरण कीनू भया अब सुनि दान बखान I.en कियौ दान बरनन प्रथम, अतिथिविभाग जु माहि। अबहू दान प्रबन्ध कछु कहिहौं दूषण नाहि ॥१०॥ ... Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान वर्णन मनोहर छन्-एमूढ अचेतो कइक चेतो,माखिर नामें मरना है। धन रह ही बाही संगन जाही, सात दान सु करना है ॥११॥ बन दान न सिद्धी अद्धी ,दुरगति दुख अनुसरना है। करपणता पारी शठमति भारी,विनहिं न सुभगति वरना है।एश यामें नहिं संसा नृप श्रेयसा, कियख दान दुख हरना है। सो ऋषभ प्रताचे स्याग त्रिसापे, पायौ घाम अमरना है ॥१२॥ श्रीषेण सुराजा दान प्रभावा, गहि जिनशासन सरना है। लहि सुख बहु भांती है जिन शांती, पायो वर्ण अवर्णा है ॥१४॥ इक अकृत पुण्या किया सुपुण्या, लहित तुरत जिय मरना है। है धन्यकुमारा पारित धारा, सरवारथ सिधि घरना है ॥१५॥ सूकर मर नाहर नकुलर वानर, ममि चारम मुनि चरना है। करि दान प्रशंसा लहि शुभ वंशा,हरै जनम जर मरना है ।१६॥ दोहा-बाघ पर श्रीमती, दानतने परमाव । नर सुर सुख लहि उत्तमा भये जगतकी नाव ॥१षा वनअंघ आदीश्वरा, भए जगतके ईश । भये दानपति श्रीमती, कुलकर माहि अघीश ॥१८॥ अन्नदान मुनिराजकों, देत हुते श्रीराम ! करि अनुमोदन गीष इक, पंछी अति अभिराम ॥१॥ भयो धर्मथी अणुप्रती, कियो रामको संग । राममुखै जिन नाम सुनि, लगो स्वर्ग अतिरंग ॥२०॥ अनुक्रम पहुंचेगो भया, राम सुरग वह जीव । धारंगौ निनमाव साहु, तजिकै भाव अजीव ॥२१॥ दानकारका अमित ही, सीझे भवी भात । बहुरि दान अनुमोदका, कौलग नाम गिनात ॥२२॥ पात्रदान सम दान भार, करुणादान बखान । सकल दान है अन्तिमो, जिन माला परवान ॥२३॥ मापथको गुण अधिक जो, सादि चतुर Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ जन-क्रियाकोष। विधि दान। देवो है अनि भक्ति करि, पात्रदान सो जान ॥रक्षा जो पुनि सम गुन आपतै, ताको दैनों दान । सो समदान है बुधा, करिके बहु सनमान ॥२५॥ दुखी देखि करुणा करै, देवे वविध प्रकार । सो है करुणादान शुभ, भाषे मुनिगणधार ॥२६॥ सकल त्यागि ऋषिव्रत धरै, अथवा अनशन लेइ । सो है सकल प्रदानवर, जाकरि भव उतरेइ ॥२णा दान अनेक प्रकारके, तिनमै मुखिया चार । भोजन औषधि शाख अर, अभेदान अविकार ॥२८॥ तिनको वर्णन प्रथम ही अतिथि विभाग, मंझार । कियो अब पुनरुक्तके, कारण नहिं विस्तार ॥२६॥ ससक्षेत्र वर्णन-जो करवावै जिनभवन, धन खरचे अधिकाय । सो सुर नर सुख पायक, लहै धाम जिनराय ।।३०।। जो करवावै विधिथको, जिनप्रतिमा वुधिमन्त । मन्दिरमैं थसुरावई, सो सुख लहै अनन्त ॥३१॥ जब ममान जिनराजकी, प्रतिमा जो पधराय । किंदरीसय वह देहरो, सोहू धन्य कहाय ॥ ३५ ॥ शिखर बध करवावई, जिन चैत्यालय कोय । प्रतिमा उच्च करावई, पावै शिवपुर सोइ ॥ ३३ ॥ जल चदन अक्षत पहुप, अरु नैवेद्य सुदीप । धूप फलनि जिन पूजई, सोह्र जग अवनीप ॥ ३४ ॥ जो देवल करि विधि थकी, कर प्रतिष्ठा धीर । सुर नर पतिके मोह लहि, सो उतनै भवनीर ॥ ३५॥ जो जिन तीरथकी महा, यात्रा कर सुभान । सफल जनम ताही तनों, भार्षे पुरुष प्रधान ॥३६॥ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चाड मनवोगमई महा, द्वादशांग मनिकार। सो जिनवाणी है भया, करे अगतथी पार ३णा ताके पुस्तक बोधकर, लिख लिखावे शुद्ध । धन सरचे या वस्तुमैं, सो होवे प्रतिबुद्ध men प्रन्थनिकू मूड़े करै, करवावै धरि चित । भले भले वस्त्रानि विर्षे, राखे महा पवित्र ॥३॥ जीरण ग्रन्थनिके महा, जतन कर बुधिवान। ज्ञान दान देवे सदा, सो पावै निरवान ॥४०॥ जीरण जिनमंदिरतणी, मरमत जो मसिवान । करवावै अति भक्तिसों, सो सुख लहै निदान ।।४।। शिखर चढ़ावै देदुरा, धन खरचै या भाति । कलश परै जिनमन्दिरां, पावै पूरण शाति ॥४२॥ छत्र चमर घण्टादिका, बहु उपकरणां कोय । पधरावै चैत्यालये, पावै शिवपुर मोय ॥४३॥ टीप करावे द्रव्य दे धुबलावै जिनगेह। धुजा चढ़ाव देव लों पाधै घाम विदेह ॥४४॥ जो जिनमन्दिर कारनें, धरती देय सु वीर। . सो पावै अष्टम परा, मोक्ष काम गम्भीर | चाविधि संघनिकी भया, मनक्व सनकरि भक्ति। करे हरै पीरा सबै सो पावै निज शक्ति ४६॥ सस क्षेत्र ये धर्मके, कहे जिनागम रूप । इनमें धन सरचे भा, पावै विच अनूप रचा अब बानिका-प्रतिमा करावे, देवल करावे, पूजा सम Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-क्रियाकोष प्रतिष्ठा करें, जिन तीरथकी यात्रा करे, शास्त्र लिखावे, पविधि संघकी भक्ति कर ए सप्त क्षेत्र जानि । यहां कोई प्रश्न करे, प्रतिमाजी अचेतन छै, निग्रह अनुग्रह करवा समर्थ नाही, सो प्रतिमाका सेवनथकी स्वर्गमुक्ति फलप्राप्ति कैसी भांति होय १ ताका समाधान । प्रतिमाजी शांत स्वरूपने धाऱ्या छ, ध्यानकी रीतिने दिखावे छै । रढ़ आसन, नासाप्रदृष्टी, नगन, निरामर्ण, निर्विकार जिसौ भगवानको साक्षात स्वरूप छै तिस्यौ प्रतिमाजीने देख्यां यादि आवै छै । परिणाम ऐसे निर्मल होइ छै। अर श्रीप्रतिमाजीने सागोपाग अपना चित्तमै ध्यावै तौ वीतराग भावनै पावै यथा स्त्रीकी मूरति चित्रामकी, पाषाणकी काष्ठादिककी देखि विकारभाव उपजै छै, तथा वीतरागकी प्रतिमाका दर्शनथकी ध्यानथकी निविकार चित्त होइ छै। पर आन देवकी मूरति रागी द्वषो छ । उम्मादने धारै छै । सो वाका दरशन ध्यान करि राग दोष उन्माद बढ़े छै। तीसौं आराधना जोग्य,दरसन जोग्य जिनप्रतिमा ही छै। जीवांने मुक्ति मुक्तिदाता छै । यथा कलपवृक्ष, चिन्तामणि औषधि, मंत्रादिक सर्व अचेतन छ, सणि फलदाता छै तथा भगवतकी प्रतिमा अचेतन है, परन्तु फलदाता छ । ज्ञानी तो एक शातभावका अभिलाषी है। सो शान्तभावने जिनप्रतिमा मूर्तवन्त दिखाजै छ। तीसू ग्यान्नांने अर जगतका प्राणी संसारीक भोग चावै छ। सो जिनप्रतिमाका पूजनथकी सर्व प्राप्ति होय छै। ऐसो जानि, हित मानि, संसै भानि जिनप्रतिमाकी सेवा जोग्य छ। कवित्त-श्रीजिनदेवतनी अरचा भर साधु दिगम्बरकी अतिसेव । श्रीजिनसत्र सुनै गुरु सन्मुख, ल्यागे कुगुरु कुधर्म कुदेव ॥८॥ Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान वर्णन। धार दानशील तप उत्तम, भ्यागै मातमभाव मछेव। सो सब जीव लखमापन सम, आके सहज दयाकी देव ||४En दानतनी विधि है जु अनन्त, सबै महिं मुख्य किमिच्छिक दाना | ताके अर्थ सुनूं मनवांछित, दान कर भवि सूत्र प्रवाना ॥५०॥ तीरथकारक चक्र जु धारक, देहि सह दान निधाना। और सबै निज शक्ति प्रमाण, करें शुभ दान महा मतिवाना ॥५१।। सोरठा-कोउ कुबुद्धी कूर, चितनै चितमें इह भया। लहिौं धन अतिपूर, तब करिहूं दानहि विधी ॥५२॥ अब तो धन कछु नाहि, पास हमारे दानको । किस विधि दान कराहि, इह मनमैं धरि कृपण है ॥५३॥ यो न विचारै मूढ़, शक्ति प्रभागै त्याग है। होय धर्म आरूढ़, कर दान जिनन सुनि ॥५४॥ कछु हू नाहिं भुरै जु दान बिना धृग जनम है ॥५५॥ रोटी एकहु नाहिं तौहू रोटी आध हो । जिनमारगके माहि, दान बिना भोजन नहीं ॥५६॥ एक प्रास हो मात्र, देवै मतिहि अशक जो। अर्ध प्रास ही मात्र, देगै, परि नहि कृपण है ॥५०॥ गेह मसान समान, भाष किरपणको श्रुति । मृतक समान बखान, जीवत ही कृपणा नरा ॥५६॥ जानौ गृद्ध समान, ताके सुत दारादिका। जो नहिं करें सुदान, ताको धन मामिष समा ॥५६॥ जैसे आमिष खाय, गिरध मसाणा मृतकको से धन बिनशाहि, कृपणतनों सुतदारका ॥६॥ सबको देनौ दान, नाकारौ नहि कोइसू, करुणभाव प्रधान, नाकारो नही हिं कोइस, सब ही प्राणिनकों जु, अन्न वस्त्र जल औषधी । सूखे तृण विधिसो सु, देनै तिरजवानिकों शगुनी देखि अति भक्ति भावयकी देनौ महा। वान मलिक मुकि कारण मूलं कहै गुरु ॥६॥ पर पर Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ર अन-क्रियाकोष । सिकौ त्यागता सम आन न दान कोड । देहादिककौ राग त्यागे, ते दाता बड़े ||६४|| कह्यो दान परभाव, अब सुनि जलगालण विधी । छांड़ौ मुगध स्वभाव, जलगाoण विधि भादरौ ॥ ६५ ॥ जलगालग विधि अडिल छन्द–अब जल गालन रीति सुनौ बुध कान दे । जीव असंखिनीst fe प्राणको दान दे । जो जल बरतै छाणि सोहि किरिया धनी । जलगालणकी रीति धर्ममै मुख भनी ||६६ ॥ नूतन गाढ़ौ वस्त्र गुडी बिनु जौ भया । ताकौ गलनौ करें वित्त घरिके दया। ढेढ हाथ लम्बो जु हाथ चौरो गहै । ताहि दुपड़तो करे छांणि जल सुख लहै ||६७॥ वस्त्र पुरानो अवर रङ्गकौ नांतिनां । राखे तिन तैं ज्ञानवत्तको पातिना ।। छाणन एक हु बन्द महोपरि जो रैं । भाषै श्रीगुरुदेव जीव अगणित मरें ॥ ६८ ॥ बरतें मूरख लोग अगाल्यौ नीर जे । तिनकों केतौ पाप सुनो नर बरसों पाप करें धीवर महा । अवर पारधी लहा ||६६|| तेतो पाप हि वारि तनधार जे । ऐसो जानि कदापि अगाल्यौ तोय जी । बरतौ मति ता माहिं महा अष होय जी ॥७०॥ मकरीके मुखथकी तन्तु निसैं जिसौ । अवि सूक्षम जो वीर नीर कृमि है तिसौ ॥ सामैं जीव असंखि उड़े है भ्रमर ही । अम्बू द्वीप न माय जिनेश्वर यो कही ||१२|| शुद्ध नातणे वाणि पान जबकों करें । छाण्यां जनधी धोय नांतणो जो घरे ॥ जननथकी मतिवन्त त्रिवायू जल धीर जे || असी भील वागुरादिक है जु एक ही वार जे । अणछायू वर Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१५ जलगालम विधि। वि। पहुँचा सो अन्य अतिवि लिखें ||२|| नो निवाणको होय नीर शाही महै। पधराने बुधिकान परम गुरु यों कहै ।। बोले कपड़े नीर गालाही जे नरा । पाने मोछी योनि की मुनि श्रुतघरा। मलगालण सम किरिया और नाहीं कही। अलगालणमैं निपुण सोहि प्रावक सही॥ चन्थी पडिमा लगे लेइ काचौ जला। मागे काचौ नाहिं प्राशुको निमंझा ॥४४॥ जाण्यू काचौ नीर इकेन्द्री जानिये। मटिका सजीव रहित सो मानिये ॥ प्रामुक मिरच लवड कपूरादिक मिला। बहुरि कसेला आदि वस्तुते जो मिला ॥ ५॥ सों लेनों दोय पहर पहली ही जैनमैं। आगे उस निषजन्न कहौ जिनवेनमें तातौ भात उकालि वारिमु पहर ही, आगे जङ्गम जीवहु उपजै सहज ही ॥६॥ चौपाई-जे नर जिन माझा नहिं आनें, चितमैं आवै सोही ठाने ! भात उकाल अरै महिं पानी, कछु इक मुष्ण करें मनमानी | ताहि जुबरतें अष्टहि पहरा, ते प्रत वर्जित भर अति बहरा मरजादा माफिक नहिं सोई, ऐसें बरतौ भवि मति कोई 11७८॥ औ जन जैनधर्म प्रतिपाला, ता धरि जलकी है इह चाला। काचौ प्राशुक तातौ नीरा, मरजादाम पर बीरा ॥७॥ प्रथमहि श्रावकको माधारा, जलगालण विधि है निरधारा । जे अणछाण्यौ पोर्दै पाणी, ते धीवर बागुर सम जाणी ॥८॥ बिन गाल्यो और नहिं प्याज, अमख न खाने मौन न ख्वाजै । तजि मालस भर सब परमादा, गाले मल चित धरि बहलादा ॥८॥ अलगालण नहिं चित करे जो जल छाननमें चित्त धरै जो। अणछाण्यांकी बन्द हु परती, माले नहीं कदापित करती ॥ ८॥ बून्द परै तौ के प्रायश्चिता, Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Ammon २१४ जैन-क्रियाकोष। जाके घटमैं दया पक्त्तिा । यह जलगालगकी विधि भाई, गुरु महा अनुसार बताई ॥४३॥ दोहा-अब सुनि रात्रि अहारका, दोष महा दुखदाय । द्वै महुरत दिन जब रहै, तब से त्याग कराय ।।८४॥ दिवस महूरत चढ़े, तबलों अनसन होय। निशि अहार परिहार सो, व्रत न दूजो कोय ॥८५|| निशिभोजनके त्यागते, पावै उत्तम लोक। सुर नर विया धरनके, लहै महासुख थाक ॥८६॥ जे निशि भोजन कारका, तेहि निशाचर आन । पावै नित्य निगोदके, जनम महां दुखखानि ॥८॥ निशि वासरको भेद नहिं, खात तृप्ति नहिं होय । सो काईके मानवा, पशुहू अधिकोय ।। ८८ ॥ नाम निशाचर चारको, घोर समाना तेहि । चरै निशाको पापिया, ह, धर्ममति अहि ॥ ८६ ।। बहुरि निशाचर नाम है, राक्षसको श्रुतिमाहि। राक्षस सम जो नर कुधी, रात्रि अहार कराहिं ॥६०॥ दिन भोजन तजि रैनिमैं, भोजन करें विमूढ । ते उलूक सम जानिये, महापाप आरूढ || मास अहारी सारिखे, निशिभोजी मतिहीन । जनम जनम या पापतै, . लहें कुगति दुखदीन ।। ६२॥ नाराच छन्द - उलूक काक औ, बिलाव श्वान गर्दभादिका । गहै कुञ्जन्म पापिया, जु प्राम शूकरादिका । कुछारछोवि माहिं, कीट होय रात्रि भोजका । तजे निशा अहारकों, विमुक्ति पंथ खोजका ।। १३॥ निशा मह करें अहार, ते हि मूढधी नरा। हैं अनेक दोषकू, सुधर्महीन पामरा। जुकीट माछरादिका, भखें महार माहिते। Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जळगालय विधि। सहा मधर्म धारिके, जु नर्क माहि जाहिं ते ॥ १४ ॥ मन्द बाल-निशिमाही भोजन करही, ते पिड ममखते मरही। भोजनमें कीड़ा खाये, सातै बुधि मूल नशाये ६५ ओ जू का दर जाये, तो रोग जलोदर पाये। माली भोजनमैं भावे, सतखिन सो धमन उपाय ॥१६॥ मकरी आवे भोजनमै, तौ कुष्ट रोग होय तनमैं। कंटक मह काठ खंडा, फसि है जा गले परखंडा|M तो कंठविथा विस्तार, इत्यादिक दोष निहारे। भोजनमैं माय बाला, सुर भंग होय ततकाला ||ER निशिमोजन करके जीवा, पार्वे दुख कष्ट सदीवा। हो। अति ही जु विरूपा, मनुजा मति विकल कुरूपा । मति रोगी आयुस थोरा, है भागहीन निरजोरा। भावर रहिता सुख रहिता, अति ऊंच-नीचता सहिता ।। इक बात सुनो मनलाई, हथनापुर पुर है भाई । तामें इक हूतौ किया, मिथ्यामम धारक लिया ॥१॥ रुद्रदत्त नाम है जाकौ, हिंसामारग मत ताको। सो रात्रि महारी मूढा, गुरनके मत मारूदा ॥२॥ इक निक्षिकों भोंदू माई, रोटीमैं चींटी बाई। गनमें मीडक खायौ, तम कुल विहं विनायौ ।।३।। कालान्तर सजि निज प्राणा, सोधूपू भयो भयाणा । फुनि मरि करि गयो ज नको, पायसै मति दुख संपळण नोसरि नरकजुते कागा, वह भयो पापपय अगा। बारें मर्कजुके कष्टा, पायौ सपाटा . Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ जैन-क्रियाकोष फुनि भयो विडाल सु पापी, जीवनि अति संतापी। सो गयौ नर्कमैं दुष्टा, हिंसा करिकै वो पुष्टा ॥६॥ तहारौं नु भयो वह गृद्धा, फुनि गयौ मई मधवृद्धा । नकसुते नीसरि पापी, हूषौ पसु पापप्रतापी॥७॥ बहुरेंजु गयो शठ कुगती, घोर जु न मति विमती। नीसरिके तिरजंच हवा, बहु पाप करी पशु मूवौ ॥८॥ फुनि गयौ नर्कमें कुमती, नारकतें अजगर अमती। अजगरसे बहुरि नर्का, पायौ अति दुख संपर्का ।।। मर्कजुतै भयौ बघेरा, तहां किये पाप बहुसेरा। बहुरें नारकगति पाई, तहातै गोधा पशु आई ॥१०॥ गोधाते नर्क निवासा, नरक मच्छ विभासा । सो मच्छ नरकमैं जायौ, नारकमै बहु दुख पायौ ॥११॥ नारकर्मी नीसरि सोई, बहुरी द्विजकुलमैं होई । लोमस प्रोहितको पुत्रा, सो धर्मकर्मके शत्रा ॥१२॥ जो महीदत्त है नामा, सातों विसनजुसो कामा। नग्रजुतै लयौ निकासा, मामाके गयौ निरासा ॥१३॥ मामे हू राख्यौ नाहीं, तब काशीके वनमाहीं। मुनिवर भेटे निरमन्था, जे देहि मुकतिको पंथा ॥१४॥ झानी ध्यानी निजरत्ता, भवमोगशरीर विरता। जानें जनमांतर बातें, जिनके मियमै नहिं पातें ॥१॥ तिनकों लखि द्विम शिरनायो, सब पापकर्म विनशायौ। पूछी मनमातर बातां, जा विधि पाई बहु घातां ॥१६॥ सो मुनिने सारी भासीकछु बाववीय महि राखी। Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निशिमोजन सम नहिं पापा, आकरि पायौ दुखसापा। सुनि करि मुनिवरके बैना, प्राण धारको मत जैना। सम्यक्त मणुव्रत धारी, प्रावक हूको अविकारी ॥१८॥ दोहा-मात पिता अति हित कियौ, दिवो भूप अति मान । पुण्यउदै लक्षमी अतुल, पाप किये बहु हान ॥ १६॥ चौपाई-पूजा कर जप बरहेत, महीदच हवौ मतिसंत । जिन मन्दिर जिमबिम्ब स्वाय, करी प्रतिष्ठा पुण्य उपाय ॥ २०॥ सिद्धक्षेत्र बंदे अधिकार, जिनसिद्धान्त सुनें अधिकाय । केती काल गौह भांति, समैं पाव धारी उपाति ॥ २१ ॥ शुभ भावनित छाड़े प्रान, पायौ पोडशस्वर्ग विमान । प्राधि महामणिमादिक लई, बायु बीस सागर भई ॥२२॥ भयौ स्वर्गधी सो परवान, राजपुत्र हूवौ शुभ लान। देश अवंती उत्तम बसे, नगर उजैणी अति ही लसै ॥२३ । तहां नरपती पृथ्वीमल, जिनधर्मी सम्यक्ति अचल्ल। प्रेमकारिणी रानी महा, ताके उदर मन्म सोलहा ॥ २४ । नाम सुधारस साकौ भयो, मात पिता अति आनन्द लयौ। अनुक्रम वर्ष सातको जबे, विद्या पड़ने मोप्यौ सबै ॥ २५ ॥ शस्त्र शास्त्रमै बहु परवीण, भयौ अणुव्रती ममक्ति लीन । जोवनईत भयौ सुकुमार, ब्याह कियौ नहिं धर्म सम्हार ॥२१॥ एक दिवस बनक्रीड़ा गयौ, बडतरु मिनुरीते क्षय भयौ । ताको लखि उपजी बैराग, अनुप्रेक्षा चिसई बड भाग ॥ २७ ॥ चन्द्रकीर्ति मुनिक लिग जाय, जिनदीक्षा लीनी शिरनाथ । अन्यन्तर बाहिर चौबीसा, प्रत्य तले मुनिकू नमि शीश ॥२८॥ पच महाव्रत गुप्ति नुतील, पा समिति वारी परवीन । सुकल ध्यान करि कर्म विनाशि केवळ पायोति सुखराशि २६॥त मन्य पदके जि, Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૮ जैन-कियाकोष। मायुकर्म पूरण करि तिनें । शेष मघातियको करि नाश, पायौ मोस पुरी सुखवास ॥३०॥ निशि भोजनतें जे दुख ल्ये, अर त्यागे सुख अनुभये। तिनके फलको वर्णन करी, कथा अणथमी पूरण करी ॥३१ छप्पय-इक चंडाली सुरझि प्रत सेठनि लीयौ। मन बच तन दृढ़ होय त्यागि निशिभोजन कीयौ। ब्रततनों परभाव त्याग तन अंजित जाया । वाही सेठनिके जु उदर उपजी वर काया । गहि जैनधर्म परि शीलबत, पापकर्म सब ही वहा । लहि सुरगलोक नरलोक सुख, लोकसिखरको पथ गहा ॥ ३२ ॥ एक हुतौ जु गाल कर सुदरसन मुनिराया। त्यागौ निशिखान पान जिनधर्म सुहाया । मरि करि हतो सेठ नाम प्रीतकर जाकौ । अदभुत रूपनिधान धर्ममें अति चित ताकौ । भयौ मुनीश्वर सब त्यागिक, केवल लहि शिवपुर गयौ । नहिं रात्रिमुक्ति परित्याग सम, और दूमरौ व्रत लौ ॥३॥ ___सोरठा-निशि भोजन करि जीव, हिंसक वे चहुंगति भ्रमैं । जे त्यागै जु सदीव, निशिभोजन ते शिव लहैं ॥ ३४॥ अर्थ उमरि उपवास, माही बोते तिन तनी । जे जन है जिनदास, निशिमोजन त्यागै सुधी ॥३५॥ दिवस नारिको त्याग, निशिको भोजन त्यागई । निशदिन जिनमत राग, सदा प्रतमूरति बुधा ॥३६॥ एक मासमैं भ्रात, पाख उपास फलें फलामे निशि माहिं न खात, च्यारि अहारा धीवना ॥ ३७॥ निसि भोजन सम दोष, भयौन के है होयगौ। महा पापको कोष, मच मांस माहार सम ॥ ३८॥ त्यानं निशिको खान, तिनें हमारी बंदना । देहो अभय प्रदान, जीवाणनिकों ते नरा ॥ ३६॥ कौलग कहैं सुवीर, निशि भोजनके अवगुणा । जानें श्रीमहावीर, केवलज्ञान महंत सब॥४०॥ Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सनत्रय वर्णन। २९६ Ammmmmmmunna रतनत्रय वर्णन सोरठा-अब सुनि दरसन शान, वरण मोक्षके मूल हैं। रतनत्रय निज ध्यान, तिन बिन मोक्ष नई भया ॥४१॥ सम्यकदर्शन सो हि, मातम रुचि श्रद्धा महा, करनों निश्चय जो हि, अपने शुद्ध स्वभावकों ॥४२ । निजको जानपनो हि, सम्यकशान कहैं जिना। चिरता भाव घनो हि, सो सम्यकचारित्र है। ४३ ॥ चौपाई-प्रथमाहि मलिल जतन करि भाई, सम्यक दरसन चित्त धराई । ताके होत सहस ही होई, सम्यकसान चरन गुन दोई ॥४॥ जीवाजीवादिक नव अर्या, सिनकी श्रद्धा बिन सब व्यर्था । है अद्धान रहित विपरीता, आतमरूप अनूप अजीता ॥ ४५ ॥ सकल वस्तु है उभय स्वरूपा, अस्ति--नास्तिरूपी जु निरूपा ! मनेकांतमय नित्व भनित्या, भगवतने भाषे सहु सत्या ।। ४६॥ तामैं संसै नाहिं जु करनौ, सम्यक दरसन ही दिढ़ परनौ । या भवमैं विभवादि न चाहे परभव भोगनिहून उमाहे ॥४७॥ चक्री केशवादिजे पदई, इन्द्रादिक शुम पवई गिनई। कबहुं पाछै कछुहिन भोगा, ते लिहिये भागबतके लोगा ॥४८॥ जो एकान्तवाद करि दूषित, परमत गुण करि नाहिं जु भूषितः । ताहि न चाहै मन क्च तन कार, ते बरसन धारी उरमैं धरि ।। ४ । क्षुधा सृषा अर उष्ण जु सीवा, इनहि मादिसुखभाव क्तिीता। दुखकारणमैं नाहि गिलानी, सो सम्बदर शन गुणवानी ॥ ५० ॥ लोकवि दहि मूढतमावा, अति अनुसार बने निरदाया । जैनशास्त्र रितु और अ अन्या, शास्त्राभास पिने मपन्या ॥१९॥ जैनसमय बिनु और समया, समयाभास Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० जौन-क्रियाकोष गिर्ने सहु अदया। बिनु जिनदेव और हैं मेते, लजु देवा भास सुते ते ॥५२॥ श्रद्धानी सो सत्वविज्ञानी, धरै सुदर्शन मातमध्यानी ! कर धर्मको जो बढ़वारी, सदा सु मार्दव आजवधारी॥५३॥ पर भौगुन ढाकै बुधिवंता, सो सम्यकदरशनघर संता! काम क्रोध मद बादि विकारा, तिनकरि भये विकल मति धारा ॥५४॥ न्यायमार्ग विचल्यो वाहै, मिथ्यामारगको जु उमाहै। तिनको हानी थिरचित कार, युक्तथको भ्रमभाव निवारे ॥५५॥ आप सुधिर और थिर कारे, सो सम्यकदरसन गुण धारै। दयाधर्ममें जो हि निरन्तर, करै भावना उर नभ्यन्तर ॥५६॥ शिवसुख लक्ष्मी कारण धर्मों, जिनभासित भवनाशित पर्मों। तासौं प्रीति धरै मधिकरी, अर जिनधर्मीनसू बहुतेरो।। ५७ ॥ प्रीति करे सो दर्शनधारी, पावै लोकशिखर अविकारी । यथा तुरतके बछरा ऊपरि, गो हित राखे मन वच सन करि ।।५८॥ तथा धर्म धर्मनिसौं प्रीती, जाके ताने शठता जीती । आतम निर्मल करणों भाई, अतिसयरूप महा सुखदाई ॥ ५६ ॥ दर्शन ज्ञान चरण सेवन करि, केवल उतपति करनौ भ्रम हरि । सो सम्यक परभाव न होई, परभावनको लेश न कोई ।। ६० ॥ दान तपो जिनपूजा करिके, विद्या अतिशय मादि जु धरिकै । जैनधर्मकी महिमा कार, सो सम्यकदरशन गुण धारै ॥६॥ ए दरशनके अष्ट जु अंगा, जे धारै उर माहिं अभङ्गा । ते सम्यकी कहिये वीरा, जिन आज्ञा पालक ते धीरा ॥ १२॥ सेवनीय है सम्यकज्ञानी, माया मिख्या ममता भानी। सदा मात्मरस पी घल्या, ते झानी कहिये नहिं अन्या ।। ६३ ॥ वद्यपि दरसन शान भिन्ना, एकरूप है सदा मभिन्ना । सहभावीए दो भाई, सौ पनि Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२१ anmommanoveuver रखनमय वर्णन। किंचित मेव पराई ॥ ६४ ॥ मिन्न, भिन्न मारपन तिनका, शानबन्तके होई जिनका । एक चेतनाके द्वै भाषा, दरसन ज्ञान महा सुप्रभावा॥६५॥ दरसन है सामान्य स्वरूपा, ज्ञान विशेष स्वरूप शिल्पा दरसन कारन शान सुकार्या, प दोऊन हे हि अनार्य ॥६६॥ निराकार दर्शन उपयोगा, हान घरै साकार नियोगा। कोऊ प्रश्न कर इह भाई, एककाल उत्पत्ति बताई ॥ १७ ॥ दरसन ज्ञान दुहुनको ताते, कारन कारिज होइ न ताते। ताको समाधान गुरु भाई, जे धारे ते निजरस चाखें ।।.६८ ॥ जसे दीपक भर परकाशा, एक काल दुईको प्रतिमासा। पर दीपक है कारनरूपा, कारिज रूप प्रकाशनरूपा ॥६धा से दरशन ज्ञान अनूपा, एक काल उपजे निजरूपा। दरसन कारनरूपी कहिये, कारिजरूपी शान सु गहिये ।।७०॥ विद्यमान हैं वरख सबै ही, अनेकांववारूप पर्वै ही। तिनको जानपनौ जो भाई, संशय बिधम मोद नशाई ॥७१।। ओ विपरीत रहित निजरूपा, मातमभाव अनूप निरूपा । सो है सम्यकशान महन्ता निजको भानपनों विलसण्ता। अष्ट अंगकरि शोभित सोई, सम्यकसान सिद्धकर होई। ते धारी भवि माठों शुद्धा, जिनवाणी अनुसार प्रदा ॥ ७३ ॥ शन्द शुद्धता पहलों मझा, शुद्ध पाठ पढ़ाई जुसमझा । मर्थ शुद्धता मा द्वितीया, करे शुदमर्थ झु विधि लीया ॥७॥ शन्द अर्थ दुहुकी निर्मलता, मन वा तन काया निहचळता। सो है तीजा म विशुद्धा, सम्यका बारे प्रतिपदा II कालाध्यायन चतुर्थम मां, वाकी व सुनौ अविरत । जा.बिरियां जो पाठ अधिवा, सोही पाठ करे पविस्ता विनय भक्त है पंचम भाई, विनयरूप रहिनौ मुखाई। सो Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मन-क्रियाकापा अपधान है छट्टम बङ्गा, योग्य क्रिया करिवौ जुममा II जिन भाषितकों मङ्गी करनौ, सो उपाधान अङ्गको धरनी । सत्तम है बहुमान विख्याता, ताको मर्थ सुन्तजि घाता ||७८॥ बहु सतकार सु आदर करिक, जिन आज्ञा पाले उर घरिक। अष्टम मन अनिन्हव धारे, ते अष्टम भूमी झु निहारे ॥७॥ जो गुरुके डिग तत्त्वविज्ञाना, पायो अद्भुत रूप निधाना। तो गुरुको नहिं नाम छिपावै, बार बार महागुण गावै ॥८०। सो कहिये जु अनिन्हव मना, झानस्वरूप अनूप अभङ्गा। सम्यक ज्ञान तनूँ आराधन, शानिनकों करनू शिवसाधन ।।८।। दरशन मोह रहित जो ज्ञानी, तस्वमावना दृढ़ ठहरानी। जे हि जथारथ जानें भावा, ते चरित्र घरै निरदावा ॥२॥ बिना ज्ञान नहिं चारित सोह, बिना ज्ञान मनमथ मन मोहै। सातै ज्ञान पाछेजु चरित्रा, भाख्यौ जिनवर परम पवित्रा ॥८॥ सर्व पापमारग परिहारा, सकल कषायरहित मविकारा। निर्मल उदासीनता रूपा, आतमभाव सु चरित अनूपा ॥८॥ सो चारित्र दोय विधि भाई, मुनिश्रावक व्रत प्रगट कराई। मुनिको बारित सर्व नु त्यागा, पापरीतिके पंथ न लागा ॥८५॥ आके तेरह मेद बखाने, जिनबानी अनुसार प्रवानैं। पंच महाव्रत पंच जु समिति, तीन गुपति के धारक सुजती ॥८६॥ चरविधि जङ्गम पंचम थावर, निश्चयनय करि सब हि बराबर। तिन सर्वनिकी रक्षाकरिवौ, सो पहलो सु महाव्रत परिवौ ॥ ८७॥ सन्तत सत्य वचनको कहियो, अथवा मौनव्रतको गहिवो। मृपावाद बोले नहिं जोई, दूजी महावत है सोई प कौड़ी मादि रखन परमा पटि अघटित तसु मेद अनन्ता। दत्त भइत्त नं परसै आई, सीमो Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रतनयन महावत है सोई 1८६ पशु पंछी नर दानव देवा, भव बासौ रमनारत मेवा नै निरन्तर मदन विकारा, सो चौथो जु महारत मारा HEL द्विविधि परिम्ह त्यागै माई, अन्तर बाहिर संग न काई । नगन दिगम्बर मुद्रा धारा, सोहि महावत पंचम सारा ॥६॥ ईयासमिति सषी जो चाले, भाषा समिति कुमाषा टाले । मलै महार अदोए मुनीशा, शाहि एषणा कई अधीशा ॥२॥ है अदाननिक्षेपा सोई, लेहि निरखि शासादिक जोई। अर परिठवणा पंचम समिती, निरखि भूमि डारे मल सुजती ॥६॥ मनोगुप्ति कहिये मन रोया, वचनगुप्ति जो वचन निरोधा । कायगुप्ति काया बस करिवी, ए तेरह विधि चारित परिवौ ॥४॥ एकदेश गृहपति चारित्रा, द्वादश व्रतरूपी हि पवित्रा । जो पहली भाल्यो अब सातै, कहो नहीं प्रावकलत साते ५॥ इह रतनत्रय मुनिके पूरा, होवे मष्टकर्म दल चूरा। श्रावकके नहिं पुरण होई, धरै न्यूनतारूप जु सोई॥६६॥ इह रतनत्रय करि शिव लेखे, चहुंगतिको भवि पानी देवे । या करि सीझे अरु सीहोंगे, यह लाह परमैं नहिं रीझेंगे या या करि इन्द्रादिक पद हो सो दूषण शुभकों बुष जोवै। इह तो केवल मुक्ति प्रदाई, बंधनरूप होय नहिं भाई neu बंध विदारन मुक्ति सुकारण, ह रतनत्रय जगात उधारण। रतनत्र सम और न दूजौ, इह रतनत्रय त्रिमुक्न पूमौ #EEN रतनत्रय मिनु मोक्ष न होई, कोटि उपाय करें जो कोई। नमस्कार या रतनत्रयकों, ओ दै परमभाव अक्षयकों ॥१०॥ रतन यकी महिमा पूरन, मानि सकेसु कर्म बिचूरन । मुनिबरह पूरण नहिं जानें, जिनआक्षा अनुसार प्रवाने ॥१०॥ सहस जीभ फार धरणान कर्द, सिनाई पै नहिं जाय वरई। हमसे भाजपमयी Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अन-क्रियाकोष। को कैसे, भाष बुधजन धारहु ऐसे ॥१०२॥ श्रेपन किरियाको यह मूला, रत्रनत्रय चेतन अनुकूला। जिन धान्यौ खिन मापौ वायो याकरि बहुतनि कारिज साग्यो ।।१०२॥ धन्नि घरी वह हंगी भाई, रतनत्रयसों जीव मिलाई । पहुंचेगो शिवपुर अविनाशी, हावें वे मति आनन्द राशी ।।१०४॥ सब प्रन्थनिमें त्रेपन किरिया, इन करि इन बिन भववन फिरिया। जो ए त्रेपन किरया धारै, सो भवि अपना कारिज सारै ॥१५॥ सुरग मुकति दाता ए किरिया, जिनवानी सुनि जिनि ए धरिया । तिन पाई निज परिणति शुद्धा, शानस्वरूपा अति प्रतिबुद्धा ।।१०६ ।। है अनादि सिद्धा ए सर्वा, ए किरिया धरिवौ तजि गर्वा । ठौर ठौर इनको अस भाई, ए किरिया गावै जिनराई ॥१८७॥ गणधर गावै मुनिवर गावे, देव भाषमैं शबद सुनावै । पंचमकाल माहिं सुरभाषा, विरला समझे जिनमत साखा ॥१०८॥ तातें यह नरभाषा कीनी, सुरभाषा अनुसारे लीनी। जौ नरनारि पढ़े मनलाई, सौ सुख पार्दै अति अधिकाई ॥१०६॥ संवत सत्रास पच्याण्णव, भादव सुदि बारस तिथि जाणव। मंगलवार उदयपुर माह, पूरन कीनी संसय नाहैं ॥११०॥ आनन्द-सुत गयसुतकौ मंत्री, जयकौ अनुचर जाहि कहै । सो दौलत जिनदासनि दासा, जिनमारगकी शरण गहै । १११ ।। *समाप्त* Page #225 -------------------------------------------------------------------------- _