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जैन-क्रियाकोष। पूरव भोग-विलास न चितवौ, अर आगामी वाछा हरिवौ । सुपने हू नहिं मन मथ कर्मा, ए दश दोष तजै व्रत धर्मा ॥३१॥ व्रत नहिं शील बराबर कोई, जिनशासनकी आज्ञा होई।
उक्त'च श्रीज्ञानार्णावमध्ये अद्य शरीरसंस्कारो द्वितीयं वृष्यसेवनम् । तौर्यत्रिकं तृतीयं स्यात्संसर्गस्तुर्यमिष्यते ॥१॥ योषिद्विषसंकल्पं पंचमं परिकीर्तितं । तदगवीक्षणं षष्ठ सत्कार सप्तमो मतः ॥२॥ पूर्वानूभूतसभोग स्मरण स्यात्तदप्टमम् । नवमे भावनी चिन्ता दशमे वस्तिमोक्षणं ॥३॥
कवित्त । तिय-थल-वासि प्रेमरुचि निरखन, देखि रीक्ष भाषत मधु बैन । पूरव भोग केलिरस चितवन, गरुव अहार लेत चित चैन। करि सुचि तन सिंगार बनावत, तिय परजंक मध्य सुखसैन । मनमथ कथा उदरभरि भोजन, ऐ नव वाड़ि जानि मत जैन ३८ दोहा-असीचार सुनि पाच अब, सुनि करि तजि वर वीर । जग चौथो ब्रत शुद्ध हवे, इह भाषे मुनि धीर ॥ ३६॥
ब्याह सगाई पारकी, किरिया अवतपोष । शीलवन्त नर नहिं करें, जिन त्यागे सहु दोष ॥४०॥ इत्वरिका कुलटा त्रिया, ताकी है | जाति । परिप्रयीना एक है, जाके सामिल खाति ॥४१ अपरिग्रहीता दूसरी जाके, स्वामि न कोय । ए इत्वरिका द्वै विधा, पर पुरुषा-रत होय ।। ४२॥