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बारह ब्रत वर्णन। जिनसों रहनों दूर अति, निनकों संस तजेय । तिनसों संभाषण नहीं सब जनम सुधरेय ॥४३॥ गमन करै नहिं वा तरफ, विचर जहा न नारि । ढारि नारिको नेह नर, धरै व्रत अघटारि ॥४४॥ तजि अनंगक्रीडा सबै, क्रीडा अघकी एहि । मैन मानि मन जीति कर, ब्रह्मचर्य व्रत लेहि ॥ ४५ ॥ निज नारीहतें सुधी, करै न अधिकी प्रीति । भाव तीव्र नहिं कामके, धरै धर्मकी रीति ॥४५॥ कहे अतिक्रम पंच ए, इनमें भला न कोय । ए सबही तजिया थका, शील निर्मला होय ॥४॥ नीली सेठसुता सुमा शीलवत परसाद । देवन करि पूजा लहो, दूरि भयो अपवाद ॥४८॥ शीलप्रभावै जयप्रिया, सुभ सुलोचना नारि । लही प्रशंसा सुरनि करि, सम्यकदर्शन धारि ॥४६॥ शील-प्रसाई रामजी, जनकसुता सुभ भाव । पूज्य सुरासुर नरनि करि, भये जगतकी नाव ॥५०॥ सेठ बिजय अर सेठनी, विजया शीलपसाद । भई प्रसंसा मुनिन करि, भये रहित परमाद ॥५१॥ शुक्लपक्ष पर कृष्णपख, धारि शीलवूत तेहि । तीनलोक पृजित भये, जिन आज्ञा उर लेहि ॥५२॥ सेठ सुदर्शन मादि बहु, सीझे शीब्यताप। नमस्कार या प्रतकों ओ मेटे भवताप ॥५३॥ जे सीझे ते शील करि, और न मारग कोय ।