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सम्बक वर्णन !
१६५ या सम और म सिदिइ निक्ले धारौ भया ।। ७२॥ योगनिमें निज योग, सम्यक बरसन जानितू।
हने सदा सब शोक, है मानन्ददायी महा ।।७३ ॥ जोगारासा बड़नीक है सम्यकदृष्टी, यद्यपि प्रत न कोई।
निंदनीक है मिथ्यादृष्टी, ओं सपसी होई ।। मुक्ति न मिथ्यादृष्टी पावै, तपसी पा सर्गा। ज्ञानी व्रत बिना सुरपुर ले, तपरि ले अपकर्मा ।। ७४ ।। दुरगति बंध करै नहिं ज्ञानी, सम्यकभावनि माहीं। मिथ्याभावनिमैं दुरगतिको, बंध होय बुधि नाहीं॥ समकित बिन नहिं श्रावकवृत्ती, अर मुनिव्रत नाही। मोक्षहु सम्यक बाहिर नाही, सम्यक आपहि माहीं ॥५॥ संग निशंकित मादि जु अष्टा, धारै सम्यक सोई। शंका आदि दोष मल रहिता, निरमल दरसन होई ।। जिनमारंग भाषे जु अहिंसा, हिंसा परमत भाषे । हिंसामारगकी तजि सरघा, दयाधर्म दिढ़ राखे । ०६ ॥ संदेह न जाके जिय माहीं, स्यादवादको पंथा। पकरै त्यागि एक नयवादो, सुनै मिनागम प्रथा ॥ पहली अंग निससै सोई, दूजो काक्षा रहिता । जामैं जगकी वांछा नाही, मातम अनुभव साहिता 1000 शुमकरणी करि फल नहिं चाहै, इह भव परभक्के जो। करै कामना रहित जुधर्मा, भानामृत फल ले ओं। इह भाष्यौ नि:कांक्षित अंगा अब सुति तीज मेदा । निरविचिकित्सा बन है भाई जा कर भव प्रम छेदा ॥ 41