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जैन-क्रियाकोष। लक्ष्मीहेत । पूजे ते आपज लहैं लक्ष्मी देय न प्रेत ॥५८। भक्ति किये पूजे थके, जो वितर धन देय । तौ सब ही धनवंत हैं, जण जन तिनकों सेय ॥ ४६ । क्षेत्रपाल चडी प्रमुख, पुत्र कलत्र धनादि । देन समर्थ न कोइकों, पूर्जे शठ जन बादि ।। ६० । जो भवितव का जीवको, आ विधान करि होय । जाहि क्षेत्र जा कालमैं, निःसदेह सोय ।। ६१ ॥जान्यौ जिनवर देवने, केवलज्ञान मंझार। होनहार संसारको, ता विधि है निरधार ॥ ६२ । इह निश्च जाकै भयो, सो नर सम्यकर्वत । लखे भेद षट द्रव्यके, भावै भावअनंत ॥ ६३ । द प्रतीत जिनवैनकी, सम्यकदृष्टी सोय । जाकें संसे जीव मैं, सो मिथ्याती होय ॥ ६४॥ सोरठा-जो नहिं समझी जाय, जिनवाणी अति सूक्षमा ।
तो ऐसे उर लाय, संदेह न आने सुधी ॥६६॥ बुद्धि हमारो नद, कछु समझे कछु नाहि । जो भाष्यो जिनचंद, सो सब सत्यस्वरूप है ।। ६७। उदै होयगौ ज्ञान, जब आवर्ण नसाइगौ। प्रगटेगौ निजध्यान, तब सब जानो जायगो ॥६८। जिनवानी सम और, अमृत नहिं संचारमें। तीन भुवन सिरमौर, हरै अन्म जर मरण जो ॥ ६६ ॥ जिनर्मिनसो नेह, यौ नेह मिनधर्मसु । बरसै आनन्द मेह, भक्त भयो जिनराजको॥७॥ सो सम्यक धरि धीर, लहै निजातम भावना। पावै भवजल तीर, दरसन ज्ञान चरित्तते ॥५॥ ऋद्धिनमैं बड़ ऋद्धि, रतनिमें रतन झु महा।