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वेपण किया।
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कन्द शाकदल फूल जु त्यागि, साधारण फलतें दुर भागि। जो प्रत्येकहु छाडे वीर ता सम और न कोई धीर ॥१३०॥ जो प्रत्येक न त्यागे जाय, तो परमाण करे सुखदाय । सेतु मलपहो कबहुक खाय, नहिं तौड़े न तुड़ावन जाय ।। ताजा ले बासी नहिं भखै, रसचलतादिक कबहु न चखै । हरितकायसो त्यागै प्रोति, सो जानें जिनमारग-रीति ।। जे अनन्तकाया सुखदाय, सब साधारण त्यागौ राय। तजि केदार तूं बडी सदा, खाहु मनालीढिस तुम कदा ।। कचनारादिक डौंडी तजौ, तजि अणफोड्यो फल जिन भजौ। पहली विदलतनू अति दोष,-भाख्यौ भेद सुनहु तजि रोष ।। अन्न मसूर मूंग चणकादि, तिनकी दालि जुहोय अनादि । भर मेवा पिस्ता जु बिदाम, चारौली आदिक अतिनाम ।। जिन जिन वस्तुनको है दालि, सो सो सब दधि मेला टालि। भर जो दधि मेलो मिष्टान, तुरतहि खावौ सूत्र प्रमान ।। अंतमहूरत पीछे जीव,-उपमे इह गावें जगपीव । तातै मीठाजुत जो दही, अंतमहरत पहले गही।। दधि-गुड़ खावौ कबहु न जोग, बरजे श्रीगुरु वस्तु अजोग । कुनि सुनहु ! मित्र इक बात, राईलण मिलें उतपात ।। ।। सातै वही महीमें करें, तो रायता कांजी वरै। पी ताजा गहिबौ भविलोय, सूदनको घृत जोगि न होय ।। स्वादचलित जो खावै धीव, सो कहिये अविवेकी जीव । पिरत सोधिको लेवौ मल्प, भजिवौ जिनवर त्यागि विकल्प १४. वृत हू छाड़े वौ अति सपा, नीरस तप धरि श्रीजिन अपा।