________________
जैन-क्रियाकोष। तरकारी सम ल्यूजी एह, आगे संधाणा समुह ।। भणजाण्यू फल त्यागहु मित्र ! अणछाण्यो जल ज्यों अपवित्र । त्यागौ कंदमूल बुधिवंत, कन्दमूलमें जीव अनन्त ।। गारिन कबहु भखहु गुणवन्त गारी कबहु न काढउ संत । डरी गारिमें जीव असंख, निन्दै साधु अशंक अकंख ॥१२०॥ जा खाये छूटे निज प्राण, सो विषजाति अभक्ष प्रवान । माफू और महोरा आदि, तो सकल सुनि सूत्र अनादि । काचौ माखण अति हि सदोष, भखिया करै सबै सुभ सोख। पहले आमिष दूषण माहिं, फुनि फुनि निन्द्यौ संसै नाहिं ।। फल अति तुच्छ खाहु मति वीर, निन्दे महावीर जगधीर । पालौ रानि जमावै कोय, ताहि भखत दुरगति फल होय ॥ निज सवाद तजि ह विपरीत, सो रसचलित तजा भवभीत। आगें मदिरा दूषण महै, नियो ताहि सुबुध नहिं गहै। ए बाईस अभख तजि सखा, जो चाही अनुभव रस चखा। अवर अनेक दोषके भरे, तजो अभख भन्यनि परिहरे ॥ फूल आति सब ही दोषीक, जीव अनन्त फरे तहकीक। कबहु न इनको सपरस करौ,इह जिन माझा हिरदै धरौ।। खावौ और सूधिवौ सदा इनकू तजहु न ढाकहु कदा। साक-पत्र सब निंद बखानि, त्याग करौ जिन आज्ञा मानि ।। नेम धर्म प्रत राख्यौ चहै, तो इन सबकू कबहु न गहै। साड़ सनें बड बोरि जु तने, सजो बौर त्रस जीव जु पर्ने । पेठा और कोहला तजौ, तजितरबूज जिनेसुर भनौ। जावू और करोंदा जेहु, दूध परै त्यागौ सहु तेह ।।