SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 88
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८८ जैन-क्रियाकोष । मुनिराय महा बलवंता, मनजीत मानजित सता ॥६॥ शीलहि सुरपति सिर नावे, शीलहिं शिवपुर जति जावे। साधू हैं शीलसरूपा, यह शील सुत्रत अनूपा ॥६६॥ मुनिके कछुहू न विकारा, मन वच तन सर्वप्रकारा। चितवौ व्रत चेतन माहीं, नारीको सपरस नाहीं ॥ ७० ॥ गृहपतिके कछुक विकारा, ताते ए अणुव्रत धारा । परदारा कबहु न सेवै, परधन कबहु नहिं लेवै ।। ७१ ।। लेती जगमे परनारी, बेटी बहनी महतारी। इह भाति गिने जो भाई, सो श्रावक शुद्ध कहाई ।। ७२ ।। निजदारा पर सतोषा, नहि काम राग अति पोषा। विरकन भावै कोउ समये, सेवै निज नारी कमये ।। ७३ ॥ दिनको न करै ए कामा, रात्री कबहुक परिणामा । मैथुनके समये मवना, नहिं राण कर रति रमना ।। ७४ ॥ परबी सवही प्रति पालै, ब्रत शील धारि अघ टालै । अष्टान्हिक तीनों धार भादवके मास हु सारै ।। ये दिवस धर्मके मूला, इनमे मैथुन अघ थूला । अबर हु जै व्रतके दिवमा, पालै इन्द्रिनिके न बसा ॥६॥ अपने अर तियके व्रत्ता, सबही पाले निरबृत्ता। या विधि जिननारी सेवे, परि मनमे ऐसे बेवै ॥७॥ कब तजि हौं काम विकारा, इह कर्म महा दुख भारा। यामे हिंसा बहु होवै या कर्म करें शुभ खोवे ॥८॥ जैसे नाली तिल भरिये, रंचहु खाली नहि धरिये । तातौ कीलो ता माहै, लोहेको संसै नाहे ॥७॥
SR No.010271
Book TitleJain Kriya Kosh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDaulatram Pandit
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages225
LanguageHindi
ClassificationDictionary
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy