________________
बारह व्रत वर्णन ।
जोगीरासा। तजि विभचारी भाव, सबैही भए ब्रह्मचारी जे। ते शिवपुरमें जाय शिरजे, भव्यन भवतारीजे ।। ५८॥ विभचारी जे पापाचारी, ते भरमे भवमें । पर परणतिसो रचिया जौलों जाय न सिक्में ॥ १६ ॥ जगमें पारो जड अनुगगे, लागे नाहीं निजमें। कर्म कर्मफलरूपहोय के, भंवर भ्रम रजमें ॥६॥ ज्ञान चेतना लखी न अबलों, तत्त्वस्वरूपा सुद्धा । जामें कम न भर्मकलपना भाव न एक असुद्धा ॥ ६१ ।। मिथ्या परणति त्यागै कोई, सम्यकदृष्टी होई । अनुभवरसमें भीगे जोई, शीलवंत है सोई ।। ६२ ॥ निश्चै शील बखान्यूएई अचल अखंड प्रभावा । परम समाधि मई निजभावा, जहा न एक विभावा ॥६॥
छन्द चाल अब सुनि व्यवहार सुशीला, धारनमें करहु न ढीला। हढ़ ब्रत आखडी धरिवौ नारिको सग न करिवौ ॥ ६४ ॥ नारी है नरकपतोली, नारिनमे कुमति अतोली । प महा मोहकी टोली, सेवें जिनकी मति भोली ।। ६५ ।। नारी जग-जन-मन चोरै नारी भवजलमें बोरे । भव भव दुखदायक जानों, नारीसों प्रीति न ठानों ।। ६६ । त्यागें नारीको संगा, नहिं करें शीलनत भंगा। ते पावें मुक्ति निवासा, कबहुं न करें भववासा ॥६६॥ इइ मदन महा दुखदाई, याकू जीतें मुनिराई ।