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जैन-क्रियाकोष । बुद्धि न केवल सिद्धिसी, इह निश्च परवान ॥४॥
अथ शील स्वरूप निरूपण कयौ दोय विध शीलवत, निश्चे अर व्यवहार । सो धारो उरमे सुधी, त्यागौ सकल विकार ॥४८॥ निश्चै परम समाधितें, खिसवौ नाहिं कदाचि । लखिवौ आतमभावको, रहिवौ निजमे राचि ॥४६॥ निज परणति परगट जहा, पर परणति परिहार। निश्च शील निधान जो, वर्जित सकल बिकार ।। ५०॥ पर परणनि जे परणमें, ते विभचारी जानि। मानि ब्रह्मचारी तिके लेहि ब्रह्म पहिचानि ।। ५१ ॥ परम सुद्ध परणति विषै, मगन रहै धरि ध्यान । पावें निश्चै शीलको, भावे आतमज्ञान ॥५२ ।। निज परणति निज चेतना, ज्ञान सरूपा होइ । दरसन रूपा परम जो, चारितरूपा सोइ ।। ५३ ।। जडरूपा जगबुद्धि जो, आपापर न लखेह । पर परणतिसो जानिये, तन-धन माहिं फसेह ॥५४॥ पर परणतिके मूल ए, राग दोष मद मोह । काम क्रोध छल लाभ खल, परनिन्दा परद्रोह ॥५५॥ दम्भ प्रपञ्च मिथ्यात मल, पाखण्डादि अनन्त । इन करि जीव अनादिके, भव भवमे भटकंत ॥५६॥ जो लग मिथ्यापरणती, सठजनके परकास । तौ लगसम्यकपरणतो, होय न ब्रह्मविकास ॥५॥