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बारह व्रत वर्णन 1
पाले बाल जु ब्रह्मव्रत, ता सम पुरुष न नारि । खोव वृद्धहिं ब्रह्मव्रत ता सम पशु न विचारि ||३६|| वजू चक्रसे लोकमे, आयुध और न वीर । वज्रायुध चक्रायुधी, तिनसे प्रबल न धीर ॥३७॥ हल मुमलायुध सारिखे, भद्र भाव नहिं भूप । नहिं धनुषायुध सारिखे, केलि कुतूहल रूप ||३८|| नाहिं त्रिमूलायुध जिमै, और न भयकर कोइ । नहिं पहुपायुध सारिखे, महा मनोहर होइ ||३६|| धर्मायुधमे धर्मघर, सर्वोत्तम सब नाथ । और जानो लोकमे, सकल जिनोंके साथ ||४०|| नाहि व्यभिचारी सारिखा, पापाचारी और । नहिं ब्रह्मचारी समा आचारी सिरमौर ॥४१॥ मायासी कुलटा नहीं, लगी जगमके मङ्ग । विरचे क्षणमे पापिनी, परकीया बहु रङ्ग ||४२॥ नहिं चिद्रपा मिद्धिमी, सुकिया जगत मंझार । नहिं नायक चिप सो, आनन्दी अविकार ||४३|| न्यारी होय न चेतना, है चेतनको रूप । राम रूप सी नहिं रमा, रामस्वरूप अनूप ||४४ || कनक कामिनी राग ते, लखी जाय नहि सोइ । संयमशील सुभाव लें, ताको दरमन होइ ॥ ४५॥ सील ओपमा बहुत हैं, कहै कहा लौ कोय । जाने श्री जिनराजजू, शील शिरोमणि सोय ॥ ४६ ॥ दौलत और न ऋद्धिसी, ऋद्धि न बुद्धि समान ।
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