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जैन-क्रियाकोष। परद्रोह परपंच अर पाखंडादि प्रतीत ।। तजो अभक्षण भक्ष्य अरु, तजौ अगम्यागम्य । तजौ विपर्जे भाव सहु त्यागहु पाप अरम्य ॥२५॥ इनसी और न कुक्रिया, नरक निगोद प्रदाय । सकल कुक्रिया त्याग-सो और न ज्ञान उपाय ||२६॥ ऊज्वल जल गाल्यौ उचित, सोध्यौ अन्न अडंक । ता मम भक्ष्य न लोकमें भाषे विबुध निशंक ॥२७॥ मद्य मास मधु मांखणा , ऊमरादि फल निदि । इनसे अभख न लोकमें, निंदै नर जगवंदि ॥२८॥ वेश्या दासी परत्रिया, तिनसो धारै प्रीति । एहि अगम्या गम्य है, या सम नहीं अनीति ॥२६॥ होय कलङ्कको सारखे, नाहिं अनीती कोय । बन चक्री सारिखे, नीतिवान नहीं जोय ॥३०॥ गज नहिं कोउ गजेन्द्रसे, मृग मृगेन्द्रसे नाहि । ग्वग नहिं कोई खगेंद्रसे, जे अति ओर धराहिं ॥३१॥ बादित्र न कोई वीनसे, सुरपतिसे न प्रवीन । वाण न कोइ अमोघसे, हिसकसे न मलीन ॥३॥ अमन न पान पियूषसे, विसन न त समान । वस्त्राभरण न लोकमे, देवलोक सम आन ॥३॥ वामित्री न महेद्रसे, पञ्चकल्याणक माहि । सदा बजावें राग धरि, गार्दै संशय नाहिं ॥३४॥ अस्व नहीं जात्यस्वसे, कटक न चक्रि समान । अलङ्कार नहिं मुकटसे, अङ्गन सीम ममान ॥३५॥