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बारह व्रत वर्णन |
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कहिवेमें भावें नहीं, नरकवासके कष्ट । ते पावें पापी महा, परदारातें दुष्ट ि नारकके बहु कष्ट लहि, खोटे नर तिर होय । जन्म-जन्म दुरगति लहैं, दुख देखें अघ सोय ॥४॥ मर या ही भवमे सठा, अपजस दुःख लहेय । राजदण्ड परचण्ड अति, पावें परतिय सेय १५॥ बेसरी छंद
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अग धन बल्लभ है भाई, धनडूते जीतब अधिकाई । जीतबतें लना है वल्लभ, लज्जायें नारी नर दुल्लभ |६| जे पापी परदारा सेवें, ते बहुतनिकी लज्जा लेवें । बैर बढ जु बहुसेती वीरा, परदारा सेवें नहिं धीरा || धन जीत लज्जा जस माना; सर्व जाय या करि बूत ज्ञाना । कुलों लागे बड़ो कलंका, या अघको निंर्दे अकलङ्का [८] परनारीरत पापिनकों जे, दस वेगा उपजे मन सों जे । चिन्ता अर देखन अभिलाषा, फुनि निसास नाखन भी भाषा ६ कामज्वर होवै परकासा, उपजै दाह महादुख भासा । भोजनकी रुचि रहैं न कोई, बहुरि महामूरछा होई ॥१०१ तथा होय सो व्यति उनमत्ता, अंध महा अविवेक प्रमत्ता । आनौं प्राण रहनको संसैं, व्अथवा छूटै प्राण निसंसै ॥११॥ कहे वेग ए दश दुखदाई, विभचारीके उपजें भाई । कौलग वर्णन कार्जे मित्रा, परदारा सेवें न पवित्रा |१२| इही पाप है मेरु समाना, और पाप है सरस्यूं दाना । याके तुल्य कुमर्म न कोई, सर्व दोषको मूल जुहोई |१३|