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जन-क्रियाकोष |
इह त्रिय सेवन विधि भाखी, बिन पाणिग्रह नहिं राखी | ६१| sana धरि सुरपरि ह्वै, सुरपतिते चय नरपति वै । पुनि मुनि वै पावै मुक्ती, यह शील प्रभाव सुजुकी ॥६२॥ नहिं शील सारिखौ कोई, दे सुरपुर शिवपुर होई । जे बाल ब्रह्मचारी है, सम्यकदर्शन धारी हैं | १३ | निके सम है नहिं दूजा, पावै त्रिभुवन करि पूजा । जे जीव कुशीले पापा, पावे भव भव संतापा । ६४ । विभचारी तुल्य न होई, अपराधी जगमे कोई । ह्वै नरक निगोद निवासा, पापनिका अति दुख भासा । ६५॥ जेते जु अनाचारा हैं, विभचार पिछे सारा है । त्यागौ भविजन विभचारा, पालौ श्रावक आचारा ६६
दोहा - मुख्य बारता यह भया, बाल ब्रह्मवून लेय। जो यह बूत धार न सके, तौ इक व्याह करेय ॥६७॥
दूजी नारि न जोग्य है, व्रतधारिनको वीर । भोग समान न रोग हैं, इह धारै उर धीर ॥ ६८ जो अभिलाषा बहुत है, विषयभोगकी जाहि । तौ विवाह और करें, नहिं परदारा चाहि ॥६६॥ परदारा सम पाप नहि, तीनलोकमे और I जे सेवें परनारिको, लहैं नर्कमें ठौर । १००/ नरक माहिं बहु काललो, दुख देवें अधिकाय । बागनि पुतलीनिसो, तिनको अंग तपाय |१| अरि- जरि तिनकी देह जो जैसेको तैसोहि । र सागरावधि तहा, दुःख सहंता सोहि | श